चीड़ को इस नज़र से भी देखना होगा

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मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—20

  • प्रकाश उप्रेती

पहाड़ की हर चीज आपको कुछ न कुछ देती है. पहाड़ के लोगों का हर पेड़, ढुङ्ग (पत्थर), भ्योव (पहाड़), गढ्यर, और झाड़ियों से एक रिश्ता होता है. आज बात करते हैं- ‘सोह डाव’ (चीड़ के पेड़) और उसकी धरोहर- ‘ठिट'(चीड़ का फल) और ‘छिलुक’ (आग पकड़ने वाली लकड़ी) की.

जाड़े के दिनों में हमारा एक काम ‘भ्योव बे ठिट'(जंगल से चीड़ का फल) लाने का भी होता था. ईजा घास काटने जाती थीं तो हम उनके साथ ठिट चाहने जाते थे. जाड़े की सुबह-सुबह जब ‘हॉल’ (कोहरा) के कारण दिखाई भी मुश्किल से देता था तो ईजा कहती थीं- “भ्योव हिट च्यला वोति घाम ले तापी हाले और आग तापे हैं ‘मुन’ (पेड़ की जड़) और ठिट ले चाहा ल्याले”. ( बेटा मेरे साथ पहाड़ चल वहाँ से अंगीठी में जलाने के लिए चीड़ के फल, लकड़ी की जड़े भी ले आएगा और धूप भी सेक लेगा)  यह कहते हुए ईजा हमको एक बोरी देती थीं. हम ईजा के साथ भ्यो चल देते. आगे से ईजा पीछे-पीछे हम.

घास काटते हुए ईजा को कोई ठिट मिल जाता या दिख जाता था तो आवाज लगाकर कहती थीं “एक ठिट ऊ बुझपन छू रे, एक मेल मुड़ हैं घुरे हा”.

भ्योव पहुंचने के बाद ईजा घास काटने लग जाती थीं और हम चीड़ के पेड़ के आस-पास ठिट ढूंढने लग जाते थे. घास काटते हुए ईजा को कोई ठिट मिल जाता या दिख जाता था तो आवाज लगाकर कहती थीं “एक ठिट ऊ बुझपन छू रे, एक मेल मुड़ हैं घुरे हा”. (चीड़ का एक फल उस झाड़ी में है और एक मैं नीचे को गिरा रही हूँ)  हम हां.. हां कहते और जो ठिट ईजा ने नीचे को गिराया था उसकी तरफ दौड़ पड़ते थे. जब ठिट नीचे गिरे हुए नहीं मिलते थे तो पत्थर से निशाना लगाकर पेड़ से तोड़ते थे. किसी न किसी तरह बोरा भर लेते थे. ईजा का भी घास हो जाता तो हम साथ में घर को आ जाते थे.

जाड़े के दिनों में अंगीठी में ठिट से ही आग जलाते थे. उसके बाद अंगीठी के चारों तरफ बैठकर हम ‘आग सेकते’ नहीं ‘तापते’ थे. आग तापते हुए किस्से कहानियों का दौर चलता था. बीच-बीच में हम बोलते रहते थे कि “यो ठिट म्यर लाई छु”(ये चीड़ का फल मैं लाया हूँ)  जिस भी ठिट पर आग तेज पकड़ती थी, उसे लाने का सब श्रेय लेते थे. ईजा सबकी बातों में हां.. हाँ कहती रहती थीं.

ईजा हमें रोज एक लालच भी देती थीं कि जो भैंस के लिए हरी घास लाएगा, लकड़ी ज्यादा लाएगा, ठिट लाएगा उसे दूध में मलाई ज्यादा दूँगी. काफी काम तो हम इस लालच में भी कर लेते थे.

“च्यला आज चूलपन एको छिलुक नि छु, जरा छिलुक फोड़ दे ढैय्” (बेटा आज आग जलाने वाली लकड़ी खत्म हो गई है, जरा उन्हें काट दे) हम छिलुक फोड़ने लग जाते थे. कभी -कभी हम कुल्हाड़ी लेकर चीड़ के कटे हुए पेड़ में जो ‘मुन’ ( जड़ का हिस्सा) छोड़ देते थे, उसको फोड़ कर भी लाते थे.

कभी- कभी ईजा शाम को हमें छिलुक फोड़ने और लाने को भी कहती थीं “च्यला आज चूलपन एको छिलुक नि छु, जरा छिलुक फोड़ दे ढैय्” (बेटा आज आग जलाने वाली लकड़ी खत्म हो गई है, जरा उन्हें काट दे) हम छिलुक फोड़ने लग जाते थे. कभी -कभी हम कुल्हाड़ी लेकर चीड़ के कटे हुए पेड़ में जो ‘मुन’ ( जड़ का हिस्सा) छोड़ देते थे, उसको फोड़ कर भी लाते थे. छिलुक आग जलाने के काम आते थे. चीड़ की सूखी लकड़ी के खास हिस्से में लीसा ज्यादा होता है. उसे ही छिलुक कहते थे और लीसा होने के कारण वह हिस्सा आग भी जल्दी पकड़ता था. चूल्हे में आग जलाने के लिए छिलुक ही प्रयोग होते थे.

चीड़ का पेड़ पहाड़ी जीवन का अभिन्न अंग है. इसकी लकड़ी घर बनाने में प्रयोग होने वाले, बंस, दादर से लेकर दरवाजे तक में प्रयोग होती है. शादी-ब्याह से लेकर घर में खाना बनाने में चीड़ की लकड़ी ही काम आती है. चीड़ की घास को हम गाय-भैंस के नीचे बिछाने के लिए लाते थे. चीड़ के फल के अंदर से ‘दाम’ निकालकर खाते थे. चीड़ से निकलने वाले लीसे का तो बड़ा कारोबार है. किसी अखबार या पत्रिका का शीर्षक- “हरदा तेरे चारों ओर लीसा, लकड़ी, बजरी चोर” लोगों की ज़बान पर था.

“च्यला देख कतु ठिट झड़ी रहीं, अब को इनुकें चाहणी नि छु”. इस बात को कहते हुए ईजा शांत सी हो जाती हैं. मुझे सड़क से गाड़ी में बिठाकर ईजा फिर वापस लौट जाती हैं… काश ! हम भी ईजा की तरह लौट पाते…

सीमेंट और गैस चूल्हे आ जाने बाद गाँव की दृष्टि में चीड़ अप्रासंगिक हो गया है. अब न कोई ठिट चाहने जाता और न छिलुक फोड़ने. ईजा जब भी सड़क तक छोड़ने आती हैं तो यही कहती हैं- “च्यला देख कतु ठिट झड़ी रहीं, अब को इनुकें चाहणी नि छु”.(बेटा देख कितने चीड़ के फल गिरे हुए हैं लेकिन अब इनको कोई उठाने वाला नहीं है) इस बात को कहते हुए ईजा शांत सी हो जाती हैं. मुझे सड़क से गाड़ी में बिठाकर ईजा फिर वापस लौट जाती हैं… काश ! हम भी ईजा की तरह लौट पाते…

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं।)

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