अपनेपन की मिठास कंडारी बंधुओं का ‘कंडारी टी स्टाल’

  • डॉ. अरुण कुकसाल

चर्चित पत्रकार रवीश कुमार ने अपनी किताब ‘इ़श्क में शह़र होना’ में दिल से सटीक बात कही कि ‘’मानुषों को इश्क आपस में ही नहीं वरन किसी जगह से भी हो जाता है. और उस जगह के किन्हीं विशेष कोनों से तो बे-इंतहा इश्क होता है. क्योंकि बीते इश्क की कही-अनकही बातें और सफल-असफल किस्से उन्हीं कोनों में दुबके रहते हैं. ये अलग बात है कि नये वक्त की नई चमचमाहट और आपाधापी में उन किस्सों और बातों के निशां दिखाई नहीं देते हैं. पर दिल का सबसे नाजुक कोना उन्हें ताउम्र बखूबी महसूस करता है.’’

श्रीनगर गढ़वाल के ‘सेमवाल पान भंडार’ और उससे सटा ‘कंडारी की स्टाल’ क्रमशः प्रोफेसरों और छात्रों का बिड़ला कालेज से इतर का मिलन केन्द्र हुआ करता था. अक्सर किसी सेमीनार या कार्यक्रम हाल में बैठे प्रतिभागियों से ज्यादा गम्भीर चर्चा उससे ऊब कर हाल से बाहर आये प्रतिभागियों में होती है.

श्रीनगर में रहते हुए जब कभी मैं ‘सेमवाल पान भंडार’ से सटी कंडारी बंधुओं की दुकान ‘कंडारी टी स्टाल’ से गुजरता या उसके आस-पास किसी से बतियाता हूं तो रवीश की उक्त बात तुरंत याद आ जाती है. तब 40 साल पहले बीते वक्त की कई बातें, किस्से, घटनाएं हल्की मुस्कराहट के साथ दिल से बाहर आने को होती हैं.

सन् 1970 से 90 के दौर में श्रीनगर गढ़वाल के ‘सेमवाल पान भंडार’ और उससे सटा ‘कंडारी की स्टाल’ क्रमशः प्रोफेसरों और छात्रों का बिड़ला कालेज से इतर का मिलन केन्द्र हुआ करता था. अक्सर किसी सेमीनार या कार्यक्रम हाल में बैठे प्रतिभागियों से ज्यादा गम्भीर चर्चा उससे ऊब कर हाल से बाहर आये प्रतिभागियों में होती है. वैसे ही बिड़ला कालेज परिसर से बाहर के इस अनौपचारिक विश्वविद्यालयी परिसर में देर रात तक गम्भीर बहसों का दौर कभी खत्म नहीं होता था.

कंडारी टी—स्टॉल, श्रीनगर, गढ़वाल। सभी फोटो : डॉ. अरुण कुकसाल

कहने और दिखने में ‘कंडारी टी स्टाल’  बद्रीनाथ रोड़, श्रीनगर (गढ़वाल) की आज भी एक सामान्य चाय-पानी की दुकान है. पर आप जरा 70 और 80 के दशक में गढ़वाल विश्वविद्यालय के बिड़ला परिसर, श्रीनगर (गढ़वाल) में पढ़े किसी महानुभाव से इस टी स्टाल का जिक्र करें. शर्तिया, इससे जुड़े किस्से दर किस्से वो आपको सुनाना शुरू कर देंगे और आप उनके चेहरे पर आई बहुरंगी उतार-चढ़ाव वाली रंगत से रोमांचित होने लगेंगे.

कंडारी जी की दुकान में मिलने वाली घर से बनाई नमकीन में बारीकी से कटा और बिखरा हरे धनिए की खुशबू को कौन भूल सकता है? उनसे उधार चाय-बंद खाकर रात भर पढ़ना है यार, कहकर हॉस्टल या बाजारी कमरे में जाने वाले लड़के उन दिनों वो उधार भूल जाते थे, पर आज जीवन के 60वें-70वें दशक में विराजमान बुजुर्ग हो गए उन लड़कों को आज वो उधार जरूर बखूबी याद आता होगा. कसमसाहट भी होती होगी.

कंडारी जी के काउंटर के पास लटके पतले तार पर बहुतों के नाम के मुड़े-तुड़े विविध संदेशों वाली कई पर्चियां ठुंसी रहती थी. ज्यादातर में कमबख्त दोस्तों का ‘चाय के पैसे दे देना लिखा होता था.’ मसलन, ‘’मैंने/हमने तुम्हारा 3 चाय पीने तक इंतजार किया, पर तुम नहीं आये. 7 चाय के पैसे हमने नहीं दिए हैं, तुम दे देना.’’

श्रीनगर में उस दौर के मित्रों के डेरे-ठिकाने चाहे जहां कहीं भी हो परन्तु उनका एक पता ‘कंडारी टी स्टाल’ जरूर होता था. दोस्तों में बातें होती थी ‘मैं/वो इतने बजे ‘कंडारी टी स्टाल’ में पहुंचे/पहुंचेगे.’

कंडारी जी के काउंटर के पास लटके पतले तार पर बहुतों के नाम के मुड़े-तुड़े विविध संदेशों वाली कई पर्चियां ठुंसी रहती थी. ज्यादातर में कमबख्त दोस्तों का ‘चाय के पैसे दे देना लिखा होता था.’ मसलन, ‘’मैंने/हमने तुम्हारा 3 चाय पीने तक इंतजार किया, पर तुम नहीं आये. 7 चाय के पैसे हमने नहीं दिए हैं, तुम दे देना.’’

मित्रों में चाय पिलानी की बारी लगी रहती थी. विद्यार्थियों के घर-गांव से आने वाले संदेशों और चीजों को मिलने का यह विश्वसनीय स्थान था. दोस्तों के घर आते घी पर सबकी नजर टिकी रहती थी. उसकी नज़र ‘हटी और दुर्घटना घटी’. कुछ फ्री की चाय और मित्रों के घर से आने वाले सामानों की ताक में उधर ही मंडराते रहते थे.

चाय और जलती बीड़ियों के घनघोर धुवांरौली के बीच समाजवाद/धर्म/पहाड़/पर्यावरण/ फिल्म/शिक्षा/रोजगार/साहित्य/विज्ञान/संघ/वामपंथ पर ‘छुयों की छरौली’ सुबह से देर शाम तक चलती रहती और चलती ही रहती थी. इस मुहं जुबानी जंग में हार-जीत हमेशा अनिर्णत ही रहती थी ताकि कल बहस आगे भी जारी रह सके.

सामने ही ‘संजय टाॅकीज’ में मुफ्त पिक्चर देखने के लिए कई तरह के जुगाड़ प्रचलन में थे. मोटा आसामी दोस्त पट गया तो बगल के ‘राजहंस होटल’ में खाना बड़ी बात थी. ये सब लिखते हुए जिगरी दोस्त शिवप्रसाद देवली (अब स्वर्गीय) की बहुत याद आ रही है. उसका ‘याराना और खाना’ दोनों जबरदस्त था.

तब ‘कंडारी टी स्टाल’ दो पार्ट में था बाहर वाले हिस्से में आम ग्राहक तो अंदर वाले हिस्से में ज्यादातर छात्रों का ही कब्जा रहता था. बगल के ‘सेमवाल पान भंडार’ के इर्द-गिर्द अध्यापकों और नगर के गणमान्यों की देश-दुनिया की गूढ़ बहसों को ‘कंडारी की स्टाल’ में बैठे छाञों के हर बात पर ठहाके दर ठहाके बराबर टक्कर दे रहे होते थे.

विश्वविद्यालय के कार्यक्रमों/घटनाओं की समीक्षा, गिले-शिकवे और बात का बतगंड बनाने वाले दिग्गजों की यह पसंदीदा जगह थी. छात्रसंघ चुनाव के समय रणनीतिकार और सर्मथक यहीं अड्डा जमाये रहते थे. छाञसंघ चुनाव में अफवाहों का जन्म और उनको विश्वसनीय – प्रामणिक बना कर प्रचारित करने की रणनीति बनाने वाले उस्तादों का दरबार यहीं सजता था. विरोधियों की टोह लेने वाले जासूस यहीं किसी कोने में दुबके रहते थे.

चाय और जलती बीड़ियों के घनघोर धुवांरौली के बीच समाजवाद/धर्म/पहाड़/पर्यावरण/ फिल्म/शिक्षा/रोजगार/साहित्य/विज्ञान/संघ/वामपंथ पर ‘छुयों की छरौली’ सुबह से देर शाम तक चलती रहती और चलती ही रहती थी. इस मुहं जुबानी जंग में हार-जीत हमेशा अनिर्णत ही रहती थी ताकि कल बहस आगे भी जारी रह सके.

बड़े भाई जितार कंडारी बताते हैं कि ‘’बात बहुत पुरानी याने, सन् 1948 की है. टिहरी गढ़वाल की लोस्तु बड़ियार पट्टी के मेरे गांव सरकासैंणी से पिताजी शंकर सिंह कंडारी ने श्रीनगर आकर गणेश बाजार में एक छोटी सी चाय और भोजन की दुकान खोली. (ज्ञातव्य है कि प्रसिद्ध साहित्यकार गोविंद चातक इसी सरकासैंणी गांव के रहने वाले थे. जातीय प्रथा को न मानते हुए किशोरावस्था में ही गोविंद सिंह कंडारी ने अपने नाम से कंडारी शब्द को हटाते हुए गोविंद चातक नाम रखा था. यह एक शानदार मिसाल है.) मेरी उम्र उस समय 6 साल की रही होगी. मैं भी पिताजी के साथ श्रीनगर आ गया. दुकान में मदद करने के साथ मैंने सन् 1962 जीआईसी, श्रीनगर से हाईस्कूल किया. उसके बाद नौकरी की ओर न देखते हुए अपने छोटे भाई प्रताप सिंह कंडारी के साथ इसी व्यवसाय को आगे बडाया. उस समय मोटरगाड़ी श्रीनगर में पीपलचौंरी से चन्द्रसिंह गढ़वाली मार्ग होते हुए बांसवाडा को जाती थी. सन् 1966 के करीब पीपलचौंरी से दायीं ओर नई चौड़ी मोटर सड़क से यातायात प्रारंभ हुआ. इसी कारण सन् 1968 से हमने ‘कंडारी टी स्टाल’ गणेश बाजार से शिफ्ट करके नये बद्रीनाथ मार्ग से संचालित करना प्रारंभ किया था. तबसे आज तक 52 वर्ष हो गए हैं.’

विगत 62 सालों से कंडारी भाईयों की आपसी व्यावसायिक साझेदारी और समझदारी से इसका संयुक्त रूप में निर्बाध संचालन किया जाना दिल को छप-छपी का अहसास देता है. गढ़वाली-कुमाऊंनी परिवारों में ऐसी व्यावसायिक साझेदारी कम ही देखने को मिलती है. निःसंदेह यह काबिले-तारीफ है. संयुक्त परिवार में आपसी अपनेपन की ऐसी मिसाल अब विरल ही है.

मेरे लिए ‘कंडारी टी स्टाल’ से आत्मीय जुड़ाव और लगाव होना स्वाभाविक है. पिछले तकरीबन 4 दशकों से जीवन यात्रा का साथी जो है, वो. पर एक कारण और है जिससे इस दुकान के प्रति आत्मीयता का भाव गौरव में बदल जाता है.

विगत 62 सालों से कंडारी भाईयों की आपसी व्यावसायिक साझेदारी और समझदारी से इसका संयुक्त रूप में निर्बाध संचालन किया जाना दिल को छप-छपी का अहसास देता है. गढ़वाली-कुमाऊंनी परिवारों में ऐसी व्यावसायिक साझेदारी कम ही देखने को मिलती है. निःसंदेह यह काबिले-तारीफ है. संयुक्त परिवार में आपसी अपनेपन की ऐसी मिसाल अब विरल ही है.

आज भी बडे़ भाई जितार सिंह कंडारी (76 वर्ष) और उनके छोटे भाई प्रताप सिंह कंडारी (68 वर्ष) की आत्मीय मुस्कराहट में वही 70 के दशक का आर्कषण और ताजगी बरकरार है. बढ़ती उम्र की झुर्रियां जरूर उनके चेहरों पर उभर आयी हैं पर ग्राहकों से संबधों के अपनेपन में कोई शिथिलता नहीं आई है.

मेरी तरह तबके सभी मित्र कहते होंगे कि हमने बिड़ला कैम्पस, श्रीनगर (गढ़वाल) से उच्च शिक्षा हासिल की है. लेकिन मित्रों, उस युवाकाल के अभावों और उमंगों के दौर में जो अपनेपन की मिठास, आत्मीय सहयोग और सीखने-सिखाने की सीख हमने ‘कंडारी टी स्टाल’ से प्राप्त की है उसका नर्म अहसास आज भी ज्यों का त्यों है.

हम पहाड़ के तब के युवा लोगों को यह जरूर याद रखना चाहिए कि हमारे अभिभावकों और शिक्षकों से इतर जीवनीय शिक्षा का असली – बेहतरीन पाठ हमें ‘कंडारी बंधुओं’ जैसे खामोश नायकों ने ही पढ़ाया-समझाया है.

हर शहर में ऐसे अड्डे अब सिमटे नजर आते हैं. परन्तु आज भले ही हम उसे बंया नहीं करते होंगे पर हमारे युवाकाल की दोस्ताना चालाकियां, बेफिक्री और जीवंतता, ‘कंडारी टी स्टाल’ जैसे दिली अड्डों के इर्द-गिर्द ही यादों की याद में आज भी तरोताजा बिखरी हुई रहती हैं.

अच्छा हो कि आधी शताब्दी पूर्व गढ़वाल-कुमाऊं के अपने-अपने शैक्षिक शहरों के ऐसे महानुभावों के प्रति विश्वविद्यालयी स्तर पर सार्वजनिक सम्मान आयोजित किए जांए. ई- पोर्टल उन पर विशेषांक निकालें.

हम पहाड़ के तब के युवा लोगों को यह जरूर याद रखना चाहिए कि हमारे अभिभावकों और शिक्षकों से इतर जीवनीय शिक्षा का असली – बेहतरीन पाठ हमें ‘कंडारी बंधुओं’ जैसे खामोश नायकों ने ही पढ़ाया-समझाया है.

 (लेखक शिक्षाविद् एवं वरिष्ठ साहित्यकार हैं)

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