हमारे हिस्से के प्रो. डीडी पंत

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सुप्रसिद्ध भौतिकशास्त्री और हिमालय के चिंतक प्रो. डीडी पंत की पुण्यतिथि (11 जून, 2008) पर विशेष

  • चारु तिवारी

मैं तब बहुत छोटा था. नौंवी कक्षा में पढ़ता था. यह 1979-80 की बात है. बाबू (पिताजी) ने बताया कि दुनिया के एक बहुत बड़े वैज्ञानिक आज बग्वालीपोखर में आ रहे हैं. बग्वालीपोखर में उन दिनों सड़क तो नहीं आई थी. हां, बिजली के पोल गढ़ गये थे, या कहीं बिजली आ भी गई थी. हमारे लिये वैसे भी अपने क्षेत्र के बाहर के आदमी को देखना ही कौतुहलपूर्ण था. वैज्ञानिकों और उनकी खोजों के बारे में किताबों में ही पढ़ते थे. हमें लगता था कि वैज्ञानिक आम आदमी से कुछ अलग होते होंगे. प्रतिभा और विद्वता में तो होते ही हैं, लेकिन हमें लगता था कि देखने में भी अलग होते होंगे.

प्रो. डीडी पंत जी को पहली बार दूर से देखने का सुख मात्र एक वैज्ञानिक को देखने की बालसुलभ जिज्ञासा थी. उस समय पृथक उत्तराखंड राज्य के लिये उन्होंने एक क्षेत्रीय राजनीतिक दल ‘उत्तराखंड क्रान्ति दल’ का गठन किया था. उसी सिलसिले में जनजागरण में निकले थे. उनके साथ प्रखर समाजवादी नेता जसवंत सिंह बिष्ट और विपिन त्रिपाठी थे.

प्रो. डीडी पंत जी को पहली बार दूर से देखने का सुख मात्र एक वैज्ञानिक को देखने की बालसुलभ जिज्ञासा थी. उस समय पृथक उत्तराखंड राज्य के लिये उन्होंने एक क्षेत्रीय राजनीतिक दल ‘उत्तराखंड क्रान्ति दल’ का गठन किया था. उसी सिलसिले में जनजागरण में निकले थे. उनके साथ प्रखर समाजवादी नेता जसवंत सिंह बिष्ट और विपिन त्रिपाठी थे. इन लोगों ने जो बोला वह तो उस उम्र में ज्यादा समझ में नहीं आने वाला हुआ. इतना जरूर समझ में आ रहा था कि वे जो कह रहे हैं वह सही बातें है. हमारा भविष्य को बनाने वाली.

हां, बाबू ने उनके बारे में कुछ जानकारियां दी थी जो मुझे आज भी याद हैं. एक तो यह बताया था कि जब बाबू 1958 में डीएसबी काॅलेज नैनीताल में पढ़ने गये तो उस समय प्रो. डीडी पंत यहां भौतिक विज्ञान के प्रमुख थे. दूसरा उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के कबाड़ को इकट्ठा कर डीएसबी परिसर में एक संपन्न भौतिक विज्ञान प्रयोगशाला (फोटो फिजिक्स लैब) बनाई जो एशिया की सबसे अच्छी प्रयोगशाला मानी जाती थी. तीसरा उन्होंने नोबेल पुरस्कार प्राप्त प्रो. सीवी रमन के साथ शोध किया. एक और जानकारी वे देते थे कि उन्होंने भौतिक विज्ञान में एक महत्वपूर्ण खोज की जिसे ‘पंत रे’ (अब पता चला कि यह मान्यता यूरेनियम लवणों पर उनके शोध का एक लोकप्रिय तर्जुमा कहना ही ठीक होगा.) के नाम से जाना जाता है.

वे जब ‘उत्तराखंड क्रान्ति दल’ के संरक्षक थे तो 1988 में उनसे पहली बार आमने-सामने द्वाराहाट में मुलाकात हुई. उन दिनों ‘उत्तराखंड क्रान्ति दल’ अपने पूरे उभार पर था. तमाम युवा और छात्र इससे जुड़ रहे थे. 30 अगस्त, 1988 को गढ़वाल विश्वविद्यालय परिसर, श्रीनगर में ‘उत्तराखंड स्टूडेंट फेडरेशन’ की स्थापना हुई. डॉ. नारायण सिंह जंतवाल संयोजक चुने गये.

ये सारी जानकारियां उस समय तो बहुत स्पष्ट नहीं थी, लेकिन बाद में प्रो. डीडी पंत को जानने-समझने के साथ इन जानकारियों का मतलब समझ में आया. हालांकि विज्ञान मेरा विषय नहीं है, लेकिन प्रो. डीडी पंत को हम एक वैज्ञानिक के आलोक में एक प्रतिबद्ध शिक्षक, कुशल प्रशासक, विद्वान शिक्षाविद, सामाजिक चिंतक, गहन अध्येता, हिमालय की संवेदनाओं से भरे बेहतर समाज का सपना देखने वाले मनीषी के रूप में जानते हैं. सबसे बड़ी बात यह थी कि वे हमारी दो-तीन पीढि़यों के प्रेरणा पुरुष रहे. हमारे चेतनापुंज रहे. आज उनकी ग्यारहवीं पुण्यतिथि है. उन्हें शत-शत नमन.

प्रो. डीडी पंत जी को बचपन से जानने-समझने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह बाद में उनका सान्निध्य मिलने की सुखद अनुभूति के साथ एक युग के साथ जीने जैसा था. हमें उनसे शिक्षा प्राप्त करने या उस तरह से किसी अकादमिक मंच पर जाने का सौभाग्य तो नहीं मिला, लेकिन उनके विराट व्यक्तित्व के वट वृक्ष की छांव के नीचे हमने लगभग डेढ दशक तक सामाजिक सरोकारों की यात्रा का रास्ता बड़ी सजगता के साथ बनाया. सच के साथ खड़ा होना सीखा. स्वाभिमान के साथ लड़ना सीखा. संवेदनाओं से चीजों को जानना आया. वे जब ‘उत्तराखंड क्रान्ति दल’ के संरक्षक थे तो 1988 में उनसे पहली बार आमने-सामने द्वाराहाट में मुलाकात हुई. उन दिनों ‘उत्तराखंड क्रान्ति दल’ अपने पूरे उभार पर था. तमाम युवा और छात्र इससे जुड़ रहे थे. 30 अगस्त, 1988 को गढ़वाल विश्वविद्यालय परिसर, श्रीनगर में ‘उत्तराखंड स्टूडेंट फेडरेशन’ की स्थापना हुई. डॉ. नारायण सिंह जंतवाल संयोजक चुने गये.

इस आयोजन का उद्घाटन प्रो. डीडी पंत जी को ही करना था. वे नैनीताल से द्वाराहाट आये. विपिन दा (विपिन त्रिपाठी) ने हमसे कहा था कि हम द्वाराहाट में सबको इकट्ठा करें. गाडि़यों में बैठायें. हम दो बसों में श्रीनगर जा रहे थे. सारे लड़के रमेश दा की दुकान पर इकट्ठा थे. वहीं बाहर लगी बैंच पर एक व्यक्ति बैठे थे. हम सब लड़के श्रीनगर जाने की उत्साह में थे. हमें पता ही नहीं था कि बैंच पर कौन बैठे हैं. हम लोग अपनी तरह से हंसी-ठिठौली कर रहे थे. हास-परिहास में विपिन दा के आने के बाद होने वाले ‘हमले’ की नकल भी कर रहे थे. उन दिनों फोन तो थे नहीं. विपिन दा को भी अपने गांव से द्वाराहाट तक दो किलोमीटर पैदल आना होता था. कंधे में झोला लटकाये विपिन दा जब दुकान में आये तो उन्होंने पंतजी को चरणस्पर्श किया.

प्रो. डीडी पंत का जन्म सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ के गंणाई गंगोली-बनकोट मार्ग के पास द्योराड़ी पंत गांव में 14 अगस्त, 1919 में हुआ था. उनके पिता का नाम अंबादत्त था. वे वैद्यकी का काम करते थे. घर की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी. किसी तरह व्यवस्था कर उन्होंने पंतजी को पढ़ाई के लिये कांडा भेज दिया. अल्मोड़ा से 1936 में हाईस्कूल और 1938 में इंटरमीडिएट किया.

विपिन दा ने बताया कि आप प्रो. डीडी पंत जी हैं. हम सब लोग खिसिया गये. लेकिन पंतजी ने जिस सहजता से हम सबको स्नेह दिया हमें लगा ही नहीं कि उनसे पहली बार मिल रहे हैं. यह भी आभास नहीं हुआ कि हम कितने विशाल व्यक्तित्व से मिल रहे हैं. हम उनके साथ श्रीनगर गये. शायद वे एक सफेद एम्बेसेडर कार में आये थे. उसके बाद लंबे समय तक किसी न किसी रूप में उनसे मुलाकात होती रही. 11 जून, 2008 में उनका निधन हुआ. हमने ‘क्रियेटिव उत्तराखंड-म्यर पहाड़’ की ओर से 2009 में उनका पोस्टर प्रकाशित किया. उनकी जन्म शताब्दी वर्ष पर पिछले वर्ष चौखुटिया, द्वाराहाट और बग्वालीपोखर के स्कूलों में लगभग 2500 छात्रों के साथ उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर बातचीत की.

प्रो. डीडी पंत उन तमाम लोगों के लिये भी प्रेरणा स्त्रोत हैं जो विषम परिस्थितियों में भी अपने लिये रास्ता निकाल लेते हैं. एक सूक्ति है- ‘नहरें बनाने वाले यह भूल जाते हैं कि नदियां अपना रास्ता खुद तलाश कर लेती हैं.’ प्रो. डीडी पंत का जन्म सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ के गंणाई गंगोली-बनकोट मार्ग के पास द्योराड़ी पंत गांव में 14 अगस्त, 1919 में हुआ था. उनके पिता का नाम अंबादत्त था. वे वैद्यकी का काम करते थे. घर की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी. किसी तरह व्यवस्था कर उन्होंने पंतजी को पढ़ाई के लिये कांडा भेज दिया. अल्मोड़ा से 1936 में हार्इस्कूल और 1938 में इंटरमीडिएट किया. आगे की शिक्षा का संकट था. उसी समय नेपाल के बैतड़ी जिले (नेपाल) के संपन्न परिवार की लड़की से उनकी शादी की बात चली. आगे पढ़ाई की आस में वे इंटरमीडिएट का परीक्षाफल आने से पहले दाम्पत्य जीवन में बंध गये.

प्रो. आसुंदी ने उन्हें बेंगलौर में महान वैज्ञानिक प्रो. सीवी रमन के पास जाकर शोध करने को कहा. इस प्रकार वे सर सीवी रमन के शिष्य बन गये. यहां से उन्होंने 1949 में Photo conductivity of Diamond and the Luminescence Spectra of Uranyl Salts शीर्षक से अपनी डीएससी पूरी की. उनके शोध निर्देशक प्रो. आसुंदी ही बने रहे. इसके बाद भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में उनकी सैकड़ों उपलब्धियां रही हैं. जीवनपर्यन्त वे शोध कार्य में लगे रहे और देश के लिये कई वैज्ञानिकों को तैयार किया.

इंटर करने के बाद वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय चले गये. वहां से 1940 में बीएससी और 1942 में भौतिक शास्त्र में एमएससी किया. सुप्रसिद्ध भौतिकशास्त्री प्रो. आसुंदी विभागाध्यक्ष थे. प्रो. पंतजी उन्हीं के निर्देशन में पीएचडी करना चाहते थे. उस समय विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. राधाकृष्णन थे. उन्होंने डीडी पंत जी को स्‍कॉलरशिप देने से मना कर दिया. यहीं से उनके जीवन में नया मोड़ आया. प्रो. आसुंदी ने उन्हें बेंगलौर में महान वैज्ञानिक प्रो. सीवी रमन के पास जाकर शोध करने को कहा. इस प्रकार वे सर सीवी रमन के शिष्य बन गये. यहां से उन्होंने 1949 में Photo conductivity of Diamond and the Luminescence Spectra of Uranyl Salts शीर्षक से अपनी डीएससी पूरी की. उनके शोध निर्देशक प्रो. आसुंदी ही बने रहे. इसके बाद भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में उनकी सैकड़ों उपलब्धियां रही हैं. जीवनपर्यन्त वे शोध कार्य में लगे रहे और देश के लिये कई वैज्ञानिकों को तैयार किया.

उनके कुलपति काल में कुलाधिपति और तत्कालीन राज्यपाल एम. चैन्ना रेड्डी के साथ उनकी भिडंत उनके स्वाभिमान और विश्वविद्यालय के प्रति समर्पण को बताती है. कुलाधिपति चाहते थे कि उनके खासमखास दक्षिण भारत के एक ज्योतिष को विश्वविद्यालय से मानद उपाधि दी जाये. प्रो. डीडी पंत के रहते यह संभव नहीं था. जब यह विवाद बहुत बढ़ गया तो पंतजी ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया. उनके इस्तीफे के विरोध में लोग सड़कों पर आ गये.

महान शिक्षाविद् प्रो. डीडी पंत नाम, सम्मान और पद प्रतिष्ठा की दौड़ से हमेशा दूर रहे. उन्होंने पूरा जीवन शिक्षा और विज्ञान को समर्पित कर दिया. उनकी पहली नियुक्ति आगरा विश्वविद्यालय में प्रवक्ता के रूप में हुई. इसके बाद आरवीएस काॅलेज आगरा में प्रोफेसर रहे. वर्ष 1952-62 तक वे डीएसबी कालेज में प्रोफेसर रहे और 1962 से 1971 तक प्राचार्य. 1971-72 में उत्तर प्रदेश शिक्षा विभाग के निदेशक रहे. 1972-73 में गोविन्दबल्लभ कृषि एवं प्रोद्यौगिकी विश्वविद्यालय पंतनगर में विज्ञान संकाय के डीन रहे. जब 1973 में कुमांऊ विश्वविद्यालय स्थापित हुआ तो वे यहां के पहले कुलपति बने. इसमें वे 1973-77 तक कुलपति रहे.

उनके कुलपति काल में कुलाधिपति और तत्कालीन राज्यपाल एम. चैन्ना रेड्डी के साथ उनकी भिडंत उनके स्वाभिमान और विश्वविद्यालय के प्रति समर्पण को बताती है. कुलाधिपति चाहते थे कि उनके खासमखास दक्षिण भारत के एक ज्योतिष को विश्वविद्यालय से मानद उपाधि दी जाये. प्रो. डीडी पंत के रहते यह संभव नहीं था. जब यह विवाद बहुत बढ़ गया तो पंतजी ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया. उनके इस्तीफे के विरोध में लोग सड़कों पर आ गये. सरकार को झुकना पड़ा और वे पुनः विश्वविद्यालय के कुलपति बने रहे. कुमाऊं विश्वविद्यालय का नाम राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय जगत में रोशन किया. उन्होंने कुमाऊं विश्वविद्यालय को शिक्षा और शोध का महत्वपूर्ण केन्द्र बनाने में भरपूर योगदान दिया. शोध जगत में अभूतपूर्व योगदान देते हुये उन्होंने बीस पीएचडी और 150 शोध पत्र प्रस्तुत किये. वे जीवन पर्यन्त देश की प्रतिष्ठित अनुसंधान संस्थानों एवं कर्इ परियोजनाओं से जुड़े रहे.

प्रो. पंत को हम एक रचनात्मक प्रशासक के रूप में भी जानते हैं. जब वे डीएसबी कॉलेज में भौतिक विज्ञान के विभागाध्यक्ष थे तो उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के टूटे-फूटे उपकरणों के टुकड़े कबाड़ी के यहां से लाकर 1952 में फोटोफिजिक्स लैब की स्थापना की. यह लैब ‘पीको सकेंड लेजर’ से संपन्न थी. इसमें आणविक संसार में सेकेंड के एक खरबवें हिस्से में होने वाली भौतिक और रसायनिक घटनाओं को रिकार्ड करने की सुविधा थी. इस प्रयोगशाला में पहली बार तैयार किये गये ‘टाइम डोमेन स्पेक्ट्रोमीटर’ की मदद से डॉ. पंत और उनके पहले शोध छात्र और सहयोगी डॉ. डीपी खंडेलवाल ने कर्इ महत्वपूर्ण शोध किये.

उन्होंने अमेरिका में अपना भविष्य तलाशने के बजाय अपने देश में रहकर काम करने को प्राथमिकता दी. उनकी पहली महिला शोध छात्रा डॉ. प्रीति गंगोला जोशी इस पर विस्तार से बताते हुये कहती हैं- ‘प्रतिदीप्ति’ (Fluorescence) पर दुनिया में पहला शोध प्रो. पंत जी ने ही किया. प्रतिदीप्ति किसी पदार्थ का वह गुण है जिसके कारण वह अन्य स्त्रोतों से निकले विकिरण को अवशोषित कर तत्काल उत्सर्जित कर देता है.

उन्होंने अमेरिका में अपना भविष्य तलाशने के बजाय अपने देश में रहकर काम करने को प्राथमिकता दी. उनकी पहली महिला शोध छात्रा डॉ. प्रीति गंगोला जोशी इस पर विस्तार से बताते हुये कहती हैं- ‘प्रतिदीप्ति’ (Fluorescence) पर दुनिया में पहला शोध प्रो. पंत जी ने ही किया. प्रतिदीप्ति किसी पदार्थ का वह गुण है जिसके कारण वह अन्य स्त्रोतों से निकले विकिरण को अवशोषित कर तत्काल उत्सर्जित कर देता है. इसके परीक्षण के लिये हमें मद्रास जाना पड़ा. इस कार्य को देखकर वहां के वैज्ञानिक आश्चर्यचकित रह गये. इस शोध ने वैज्ञानिक जगत में हलचल मचा दी. उसके तीन साल बाद तीन वैज्ञानिकों को इस पर नोबेल पुरस्कार मिला. ऐसे में यह विचारणीय है कि यदि पंत जी को भारत में ऐसी सुविधा मिल जाती या वे स्वयं अमेरिका चले गये होते तो निश्चित रूप से अपने गुरु प्रो. सीवी रमन के बाद यह पुरस्कार प्राप्त करने वाले डीडी पंत दूसरे भारतीय वैज्ञानिक होते.’

यूरेनियम के लवणों की स्पेक्ट्रोस्कोपी पर हुये शोध पर राबिनविच एवं वेल्डफोर्ड की सबसे चर्चित पुस्तक ‘फोटोकेमिस्ट्री ऑफ यूरेनाइल कंपाउंड’ जिसे भौतिकी की बाइबिल कहा जाता है में प्रो. डीडी पंत के काम का दर्जनों बार जिक्र है. यह उनके काम को समझने के लिये काफी है.

प्रो. डीडी पंत ने माइकल कासा और हर्जबर्ग जैसे दिग्गज नोबेल पुरास्कार प्राप्त वैज्ञानिकों के साथ काम किया. भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम करने के लिये उन्हें देश और देश से बाहर बहुत सारे सम्मान और पुरस्कार मिले. उन्हें देश का प्रतिष्ठित ‘शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया. इसके अलावा प्रो. सीवी रमन सेन्टेनरी स्वर्ण पदक, फैलो ऑफ इंडियन एकेडमी ऑफ साईस बैंग्लोर से फुल ब्राइट स्कॉलरशिप, पहला आसुंदी सेन्टेनरी सम्मान, अमेरिका की प्रतिष्ठित ‘सिग्मा-सार्इ फैलोशिप ’ समेत कई पुरस्कार व सम्मान से नवाजे गये थे. प्रो. डीडी पंत जी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, एनसीईआरटी और भारत सरकार के विज्ञान संबंधी कार्यक्रमों और अमेरिका में विज्ञान शिक्षा अध्ययन से जुड़े रहे. वर्ष 1976 में उन्होंने सीएनआरएस, पेरिस के सम्मेलन में ‘हिमालयी पारिस्थितिकी ’ पर शोध पत्र प्रस्तुत किया. वर्ष 1982-84 तक रॉकी विले, अमेरिका में फोगेटी शार्ट टाइम विजिटर रहे. कई अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में हिस्सेदारी करते रहे.

उनके अंतिम शोध छात्र रहे आशुतोष उपाध्याय बताते हैं- ‘प्रो. डीडी पंत विज्ञान और शोध के अध्येताओं से इसलिये अलग लगते हैं कि उन्होंने भौतिक विज्ञान जैसे गूढ़ विषय का अध्येता रहते हुये भी सामाजिक विषयों और विज्ञान के व्यावहारिक पक्षों को बहुत सहजता के साथ रखा. आमतौर पर इस तरह के वैज्ञानिकों की अपने समाज, संस्कृति और लोगों से दूरी बनी रहती है, लेकिन प्रो. पंत ने अपने को हमेशा अपने समाज के साथ जोड़े रखा.

डॉ. डीडी पंत एक वैज्ञानिक होने के अलावा संवेदनशील समाजशास्त्री और हिमालयी पारिस्थितिकी के अध्येता थे. उन्होंने विज्ञान और शोध के अलावा जीवन के विभिन्न आयामों को गहराई से समझने की कोशिश की. उन्हें संस्कृति, साहित्य, भाषा फिल्म और शतरंज में न केवल गहरी रुचि थी, बल्कि उन्होंने बहुत सारा साहित्य पढ़ा भी था. वे गांधीवादी विचार को मानने वाले थे. जब वे कुमाऊं विश्वविद्यालय के कुलपति थे तो उन्होंने गांधी साहित्य को पाठ्यक्रम में लगाया. शिक्षा, समाज, संस्कृति, पर्यावरण और विकास के बारे में उनके विचार गांधी से बहुत प्रभावित थे.

इसे और स्पष्ट करते हुये उनके अंतिम शोध छात्र रहे आशुतोष उपाध्याय बताते हैं- ‘प्रो. डीडी पंत विज्ञान और शोध के अध्येताओं से इसलिये अलग लगते हैं कि उन्होंने भौतिक विज्ञान जैसे गूढ़ विषय का अध्येता रहते हुये भी सामाजिक विषयों और विज्ञान के व्यावहारिक पक्षों को बहुत सहजता के साथ रखा. आमतौर पर इस तरह के वैज्ञानिकों की अपने समाज, संस्कृति और लोगों से दूरी बनी रहती है, लेकिन प्रो. पंत ने अपने को हमेशा अपने समाज के साथ जोड़े रखा. उनका मानना था कि सामुदायिकता, पहाड़ी शैली, सहकारिता के माध्यम से हम कम साधनों में सही नियोजन से बेहतर जीवन बना सकते हैं. वे कभी व्यवस्था के गुलाम नहीं रहे. एक शोध निर्देशक के रूप में भी उन्होंने अपने लोगों के साथ संवाद के इस गुण को बनाये रखा. वे बहुत गंभीरता के साथ हर छात्र के सवालों, जिज्ञासाओं को सुनते थे और फिर अपनी तरफ से उन्हें निर्देशित करते थे. जब वे अपने छात्रों को समझा रहे होते थे तो लगता था कि इलैक्ट्राॅन-प्रोटोन उन्हें दिखाई दे रहे हैं. वैज्ञानिक दृष्टि के बुनियादी मूल्य भाषणों की बजाय उनके व्यवहार में छात्रों को मिलते थे.’

वरिष्ठ पत्रकार और नैनीताल समाचार के संपादक राजीव लोचन साह कहते हैं- ‘एक बार हम दोनों न्यू क्लब में बैठे हुये थे. वक्त काटने की गरज से मैंने पूछा कि डाक्टर सहाब आज जरा स्पेस के बारे में बताइये. उन्होंने मुझे आंखें तरेर कर देखा. उन्हें पता नहीं कैसे लगा कि मैं हवा में ज्यादा उड़ रहा हूं. उन्होंने एक ही वाक्य बोला- ‘साइंस रोजमर्रा की जिन्दगी से जुड़ी बहुत सामान्य चीज है, उसमें किसी तरह का ग्लैमर नहीं होता.’

प्रो. डीडी पंत ने पारिस्थितिकी और विकास को बहुत सुन्दर तरीके से परिभाषित किया. उन्होंने प्रकृति को हमेशा सहेजकर रखने की वकालत की. उनका मानना था कि प्रकृति किसी को मुफ्त में कुछ नहीं देती. इसकी कीमत चुकानी पड़ती है. इसलिये वे प्रकृति के अवैज्ञानिक दोहन के खिलाफ थे. वे गांधी की विचारधारा से प्रभावित थे इसलिये उनके दर्शन में गांव और आम आदमी प्रमुख थे. विकास को भी इसी दृष्टि से देखते थे. पृथक उत्तराखंड राज्य की स्थापना के लिये 24-25 जुलार्इ, 1979 में मसूरी में ‘उत्तराखंड क्रांति दल’ की स्थापना हुई. उन्होंने इस राजनीतिक दल का संस्थापक अध्यक्ष बनना स्वीकार किया. जब वह अलग राज्य और हिमालय के विकास की बात कर रहे थे तो उनके विकास के पीछे भी व्यापक दृष्टि थी. इसके पीछे हिमालय के गांवों की चिंता थी. गांव के बसने और उनके बचे रहने का दर्शन भी था. वे सीमान्त हिमालयी क्षेत्रों के विकास के लिए दोहन नहीं, बल्कि वैज्ञानिक तरीके से यहां की जरूरतों के मुताबिक नीति बनाने की वकालत करते थे. विकास को देखने का उनका नजरिया बहुत अलग और जनपक्षीय था.

‘स्मार्टनैस का मतलब है, दूसरों को धकेलकर आगे बढ़ना. गांधी की शिक्षा विचारधारा ही एक विकल्प हो सकती है. आधुनिक शिक्षा एक विशेष यानि एलीट वर्ग तैयार करती है. गांवों से आया आदमी इस हौवे के कारण अपनी धरती से घृणा करता चला जा रहा है. उससे कटता चला जा रहा है. हमारी शिक्षा उसके परिवेश के अनुसार होनी चाहिये. शिक्षा आडंबर नहीं व्यावहारिक दृष्टि प्रदान करने वाली होनी चाहिये.’

उनके एक और छात्र और गाजियाबाद में प्राध्यापक डॉ. नीरज तिवारी कहते हैं कि प्रो. पंत कहते थे- ‘हम अमेरिका, जापान या जर्मनी की तरह समृद्ध नहीं हो सकते हैं और इससे हमें दुखी नहीं होना चाहिये. यदि हमारी मूलभूत जरूरतें पूरी होती हैं तो बिना अमेरिका, जापान या जर्मनी बने हम सुखी रह सकते हैं. इसी आधार पर दुनिया भी सुखी रह सकती है.’

हिन्दी के प्रख्यात साहित्यकार प्रो. लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’ को दिये एक साक्षात्कार में उन्होंने विकास और शिक्षा पर बहुत महत्वपूर्ण विचार दिये. शिक्षा पर उन्होंने कहा- ‘स्मार्टनैस का मतलब है, दूसरों को धकेलकर आगे बढ़ना. गांधी की शिक्षा विचारधारा ही एक विकल्प हो सकती है. आधुनिक शिक्षा एक विशेष यानि एलीट वर्ग तैयार करती है. गांवों से आया आदमी इस हौवे के कारण अपनी धरती से घृणा करता चला जा रहा है. उससे कटता चला जा रहा है. हमारी शिक्षा उसके परिवेश के अनुसार होनी चाहिये. शिक्षा आडंबर नहीं व्यावहारिक दृष्टि प्रदान करने वाली होनी चाहिये.’

विकास को देखने उनका नजरिया बिल्कुल अलग था- ‘सड़क, विद्यालय, विश्वविद्यालय बन जाना ही विकास नहीं है…. जिसे हम विकास कहते हैं, दरअसल वह ‘प्रस्टीजियस इंस्टीट्यूशन’ है. इसका विकास से कोई संबंध नहीं है….पहाड़ तोड़ने की कीमत पर यह नहीं होना चाहिये….

विकास को देखने उनका नजरिया बिल्कुल अलग था- ‘सड़क, विद्यालय, विश्वविद्यालय बन जाना ही विकास नहीं है…. जिसे हम विकास कहते हैं, दरअसल वह ‘प्रस्टीजियस इंस्टीट्यूशन’ है. इसका विकास से कोई संबंध नहीं है….पहाड़ तोड़ने की कीमत पर यह नहीं होना चाहिये….पहाड़ में उन्हीं लागों को रहना चाहिये जो उसमें रुचि रखते हों. जो उसे जिंदा रख सकते हैं. पहाड़ों को क्षति पहुंचाने वाले लोगों को यहां से निकल जाना चाहिये….जब भी पहाड़ के विकास की बात हो उसमें पहाड़वासी की बात जरूर होनी चाहिये. पहाड़ मानवता को जीवन शक्ति प्रदान करते हैं, अतः इनका रहना बहुत जरूरी है.’

प्रो. डीडी पंत के विचार ऐसे समय में और प्रासंगिक गये हैं, जब विकास के नाम पर उत्तराखंड में जल, जंगल और जमीनों को अपने हितों के लिये बेहताशा दोहन हो रहा है. लगातार जनता के खिलाफ नीतियां बन रही हैं. सरकारी स्कूल, तकनीकी संस्थान बंद किये जा रहे हैं. बड़े शोध संस्थानों के प्रति बेरुखी से दशकों से बनाये रिसर्च के ढ़ाचे को समाप्त किया जा रहा है. अस्पतालों को पीपी मोड पर दिया जा रहा है. जमीनों के बेचने के कानून पास किये जा रहे हैं. पंचेश्वर जैसे विनाशकारी बांध बनाने की योजना है. ऑल वेदर रोड के नाम पर पहाड़ों को छीला जा रहा है. घर-घर शराब पहुंचाने का काम व्यवस्था कर रही है. नौजवान बेरोजगार हैं. गैरसैंण को राजधानी बनाने की मांग को नकारा जा रहा है. प्रो. डीडी पंत ने जिस हिमालय को बचाने की बात कही थी, वहां की परिस्थितियों के अनुसार नीतियों के निर्माण की वकालत की थी, उन्हें नीति-नियंता एक-एक कर ध्वंस्त कर रहे हैं. ऐसे समय में प्रो. डीडी पंत के विचार और उनकी परिकल्पनाओं के हिमालय को बचाना समय की जरूरत है.

प्रो. डीडी पंत जी ने अपना पूरा जीवन सादगी में बिताया. जीवन के अंतिम दिनों में वे हल्द्वानी में रहने लगे. यहां उनका मकान ही उनकी जीवन भर की कमाई है. इसे भी कुछ सहयोगी शिक्षकों के सहयोग से कभी जमीन खरीद कर किसी तरह बनाया था. यहीं 11 जून 2008 को उनका निधन हुआ. उनकी पुण्यतिथि पर कृतज्ञातापूर्वक नमन.

संदर्भः
1. प्रो. डीडी पंत की जन्मशताब्दी वर्ष के अवसर ‘पहाड़’ द्वारा प्रकाशित स्मारिका, संपादकः आशुतोष उपाध्याय.
2. प्रो. डीडी पंत को जानने वाले लोगों से बातचीत.
3. ‘पहाड़’ द्वारा हल्द्वानी में आयोजित प्रो. डीडी पंत जन्म शताब्दी समारोह में दिये गये वक्तव्य.
4. क्रियेटिव उत्तराखंड-म्यर पहाड़ द्वारा द्वाराहाट, चौखुटिया और बग्वालीपोखर में प्रो. डीडी पंत के व्यक्तित्व और कृतित्व पर हुये आयोजन.
5. उनको जितना मैंने देखा-समझा.

(सोशल एक्टिविस्ट, स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक)

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