जे पी मैठाणी
पीपलकोटी उत्तराखंड के चमोली जिले का सिर्फ कोई गाँव या कस्बा नहीं है. उत्तराखण्ड में ऐसे बहुत कम कस्बे या गाँव हैं जहां पर उत्तराखण्ड की दो प्रमुख विरासतें जो गढ़वाली और कुमांऊनी परंपराओं को संजोए रखती है. यहां पीपल के पेड़ भावनाओं के केन्द्र हैं. इस कसबे में भाषा , जाति और धरम को आप सार्वजनिक स्थान पर न तो देख सकते हैं और ना ही मह्सूस कर सकते हैं . पुराने बद्रीनाथ यात्रा मार्ग पर बसा और वर्तमान में श्री बद्रीनाथ यात्रा मार्ग का प्रमुख पडाव पीपलकोटी एक ऐतिहासिक क़स्बा है.
पुरातन समय में जब सड़क मार्ग नहीं था तब पैदल यात्रा मार्ग जो चमोली. मठ, छिनका, बांवला, सियासैण, हाट से अलकनन्दा को पार कर मंगरी गाड़ के बाद मुल्ला बाजार/शिवालय दुर्गा मंदिर से पीपलकोटी बस स्टेशन पर पहुंचता है, यही शिवालय से वर्तमान के प्रमुख बस अड्डे के बीच बसा ये ही पुराना पीपलकोटी क़स्बा है इसके बीच से ही पुराना बद्रीनाथ यात्रा मार्ग था जिसके चिन्ह आज भी जस के तस हैं . मुल्ला और पुराने बाजार के अधिकतर घरों के ग्राउंड फ्लोर पर उस समय – लकड़ी के तख्तों की दुकाने थी और पीपलकोटी का राजस्व ग्राम नौरख है जो अब नगर पंचायत पीपलकोटी बन गया है लेकिन राजस्व रिकोर्ड नहीं बदले हैं.
इस पीपलकोटी कसबे में पहले मंगरी गाड़, छिनमंगरा या शिवालय से हम दुर्गा- हनुमान मंदिर के पीपल के पेड़ के पास से ही होकर पहुंचते हैं, जिसके आखिरी छोर पर बद्रीनाथ की तरफ जाते हुए बाएं हाथ पर काली कमली धर्मशाला से पहले श्रीमती चंदा शाह या प्रेम से जाने जाने वाली चंदुली पुफु का घर था. उनकी दो बड़ी बेटियां- नंदी दीदी, उमा दीदी और दो बेटे बड़े पप्पू यानी प्रकाश भाईसाब और छोटे कन्नू भाईसाब यानी कन्हैय्या शाह हैं, कन्नू भाईसाब की ताई जी श्रीमती जीवंती शाह जी को भी हमने कक्षा 7 तक (यानी लगभग 1985-1986 के दौरान) देखा था.
लेकिन अब अगर हम नए राष्ट्रिय राजमार्ग पर स्थित पीपलकोटी के मुख्य बस अड्डे से मुल्ला बाजार को चलने लगे तो इंद्रलोक होटल के ठीक बगल की सड़क (ये पुराना बद्रीनाथ यात्रा मार्ग था.) से काली कमली धर्मशाला पहुंचते हैं तो उसके बाद भी ठीक बगल में चंदुली पुफु का घर मिलता है. उसके बाद जवाहर लाल शाह जी, फ़िर स्वर्गीय किशन लाल शाह ताऊ जी- अब प्रकाश भाईसाब और सज्जन दा का जंगले वाला लम्बा शानदार घर, इस गहर में ही- हमारी सायी की बौडी (यानी गौशाला की मालकिन ताई जी) यानी श्रीमती दोराई आमा शाह (उनका मायका शायद द्वाराहाट रहा होगा) ताई जी जो अक्सर मिश्री दिया करती थी उनका भी घर था, पानी की डिग्गी, तब का पोस्ट ऑफिस और स्वर्गीय भट्ट जी अब बद्री भाई साहब , लल्लू भाई साहब और मोहित भाई साहब का घर, फ़िर हमारी जूनियर हाई स्कूल अब ये स्थान काली कमली धर्मशाला के अंतर्गत हैं.
हमारे जूनियर हाई स्कूल के अहाते में श्री भुवन भाई साहब का घर, बीच में पानी की गोल टंकी उसके सामने लता बहन जी और प्रमोद भाई साहब का घर बगल में भुवन भाई साहब का घर आगे दुर्गा-हनुमान मंदिर, यहां पर हनुमान जी की मूर्ती घर की दीवार पर थी, जिस पर प्रकाश भाईसाब मंगलवार को सिन्दूर और तेल की बनी सिन्दूरी लेप लगाते थी और लड्डू भी बांटते थे इसके बगल वाले मंदिर के ऊपर विशाल पीपल का पेड़, फिर श्री सतीश भाई साहब अब समीर और सुधीर का घर था, सतीश भाईसाब की बुवा जी मघुली बुवा ने ही हमको दो गाय की बछिया दी थी- जिनका नाम बाद में- पूंडी और लाली रखा गया था. सिद्धि दीदी लगों की गाय की देखभाल गानेरी बोडी किया करती थी और अब हमारी गाय उन्ही की ताई जी की गौशाला में ही रहती है.
पीपलकोटी नाम के इस कसबे के लास्ट कोने पर श्री ओमगिरी, शिव-शंकर भाई साहब के घर, उनके लुकाठ और आम और बड़े नीम्बू के पेड़ घर के सामने एक दो गौशालाएं नीचे की तरफ प्राथमिक विद्यालय और पीपलकोटी का शिवालय स्थित है. हां एक जरूरी जानकारी ये भी है कि, पुराने यात्रामार्ग का सबसे पुराना डाटपुल शंकर भाईसाब के घर से आगे वाले गधेरे यानी वल्ला मंगरी गाड़ पर है, वल्ला मंगरी गाड़ में- कैल्पीर, बामणी मंगरा, पदानु घट और अखौड गोई का पानी बहकर आता है, लेकिन इस डाट पुल से और थोडा आगे बद्री भाईसाब और अतुल भाईसाब लोगों की गौशालाओं के साथ साथ छिनमंगरा का सबसे पुराना जल श्रोत आज भी है, पल्ला मंगरी गाड़ का पुल सुना दो तीन बार बह गया, उस पुल के उस पार शीला दीदी और प्रमोद भाईसाब की गौशाला भी है – अखरोट के पेड़ों के साथ.
दूसरी ओर ओमगिरी भाईसाब के घर के पीछे से ही शिवालय पहुंचा जाता है इस शिवालय के ठीक सामने शानदार कटुवा पत्थर के नंदी विराजमान है और ऊपर छोटी-छोटी दो गुफाएं हैं और उन गुफाओं के पानी के लगातार टपकते रहने से जहां भी पानी की बूंदे गिरती वहां के पत्थर चिकने, गोल और रत्न जैसे दिखते थे. यहीं आसपास सबसे पहले लैगेस्टोमियां और बेलपत्र के पेड़ों से मुलाकात भी हुई और साथ ही प्रमोद भाई साहब के घर के पीछे मालू के पत्तों की बेल से पहचान हुई.
मालू के पेड़ पर चप्पल के आकार के कॉफी कलर के फल भी लगते, शादी बारात पूजा में मालू के पत्तों का प्रयोग दोने-पत्तल बनाने में किया जाता. फिर वापसी में ओमगिरी भाई साहब के घर के सामने कई परिवारों की गौशाला मिलती,थोडा वापसी में पेट्रोलपंप का शोर्टकट रास्ता और बगल में राजन भाई साहब का घर, इस घर में ही मैंने अपने जीवन में सबसे पहले नीब करौली बाबा जी बड़ी तस्वीर देखी थी उसके बगालेमिन तबला और हारमोनियम भी था और उनके घर के ऊपर कैलाश भाई साहब, वापस नीचे मुकुल भाई साहब का घर, विनोद भाई साहब के घर के ऊपर ही बचपन के दोस्त हरी, दिल्लू और तिल्लू लोग रहते थे, बगलमें दारा सिंह/सुनील भाई साहबबीच में बारीक सुन्दर पत्थरों की चिनाई वाला एक खंडहर भी था फिर आगे स्वर्गीय नाथी लाल शाह चाचा जी, हैप्पी भाई साहब (अतुल शाह), संजय भाई, स्वर्गीय मनोहर लाल शाह जी, जगदीश लाल शाह यानी रेशम के पिताजी, मदन लाल शाह, श्री भगवान लाल शाह जी के घर के बाद हम गुन्नु और गिरीश भाई साहब के घर पहुंचते. कभी कभी हमको नीरज यानी नीरू के पिताजी स्वर्गीय उदय लाल शाह जी अंग्रेजों की कई कहानियां सुनाते फिर लिप्टन चाय की बात, यही पर हमारी बाल सखा बिंदु का घर भी बगल में था, लेकिन गुन्नू भाईसाब के घर के ही ठीक सामने हम फ़िर से चंदुली पुफु के घर पर पहुंच जाते. अब चंदुली पुफु के घर पहुंचने से पहले- पूरे के पूरे मुल्ला बाजार के सभी घरों की चर्चा इसलिए जरूरी थी ताकि, ये पता लग सके कि, इस कहानी की हमारी याद में चंदुली पुफु का घर कितना महत्वपूर्ण था हमारे लिए- उनके स्नेह और अमरूदों की वजह से. अब अगर उनके घर की तरफ अगर आपका मुंह हो तो पहले हमको लकड़ी के तख़्तों वाली बड़ी लम्बी चौड़ी पंसारी/जड़ी-बूटियों की दुकान दिखती थी (ये इस क्षेत्र की सबसे पहली और आखिरी जडी बूटी और पंसारी जनरल स्टोर जैसी दूकान का स्वरुप था) . जहां कन्नु भाई साहब (कन्हैया लाल शाह) लोग रहते थे वो चंदुली पुफु के छोटे बेटे हैं, और इस घर के बांयी तरफ से पीछे रांगल डीप की ओर एक रास्ता जाता था. जैसे ही हम गली पार करते दाहिनी तरफ चंदुली पुफु के घर का बड़ा सा आंगन था. इस आंगन में छोटी-छोटी गाय-बछिया भी बंधी दिखाई देती थी और घर के अगल-बगल कुछ अमरूद के पेड़ थे.
हालांकि अब अगर हम आंगन में खड़े होके नौरख गाँव या कैल्पीर की तरफ देखें तो पीछे की तरफ थोड़ी दूरी पर दाहिने हाथ पर भग्गु दीदी का आंगन दिखने लगता था. वहां भी कुछ-कुछ पेड़ थे और जहां तक मुझे याद है अमरूद, आड़ू और संतरे के एक-दो पेड़ और शायद कुछ गुलाब भी . चंदुली और जीवन्ति पुफु का आंगन हमेशा लिपा-पुता रहता और लिपाई-पुताई के निशान अमरूद के पेड़ों पर भी दिखते थे. उन दिनों रांगल डीप के खेतों में धान की फसल पक रही होती, जिन दिनों दाड़िम के पेड़ पर दाड़िम फटने लगते, ककड़ियां चोरी जाती, कंजूस अमरूद के पेड़ वालों के पेड़ पर पीपलकोटी के आसपास अमरूद बुरी तरह पक कर जमीन में गिरते ही बिखर जाते थे. फ़िर इन जमीन पर गिरे अमरूदों पे किसी का ध्यान नहीं जाता, क्यूंकि इनमे आपस में बांटे जाने की खुशबू होती ही नहीं थी , उन पर कीड़े पड जाते थे. कई अमरूद तो पेड़ पर ही पक्षी या बंदर खा जाते और या तो कुछ आधे खाए हुए लटके रहते. हमारे कुछ दोस्त तो ऐसे थे जो पक्षियों द्वारा आधे खाए गये अमरूदों को सफाई से काटकर दूसरी तरफ से बांट कर खा देते ऐसी ही दोस्ती के लिए पीपलकोटी जाना जाता ,लेकिन चंदुली पुफु के घर के अमरूद कभी भी सड़-गल कर जमीन पर गिरते ही नहीं क्योंकि वो समय पर ही उन अमरूदों को निकाल कर नीचे रांगल डीप, धान की लवाई मंडाई करती हुई महिलाओं या बच्चों में और जूनियर हाई स्कूल के बच्चों को बांट देती थीं. या फिर नीचे रांगल डीप (डीप- जमीन का बिलकुल किनारा ) की तरफ खेतों काम करती उनकी दोस्त या नौरख गाँव की अपनी साथियों, हल लगाने वाले हल्या , बंदरवाया बोडी को पुफु बाँट देती थी. हम भी कक्षा छठी से आठवीं तक मुल्ला बाजार जूनियर हाई स्कूल में पढ़े, इस स्कूल के कमरों के फर्श और चंदुली पुफु के आंगन में एक समानता थी. वह यह थी कि दोनों को गोबर और मिट्टी से लिपते थे. स्कूल के सभी क्लासरूम की दीवारें आधे गोबर मिट्टी और आधे कमेड़े ( लोकल चूने ) से लिपी होती थी. लेकिन चंदुली पुफु का आंगन सिर्फ गोबर और मिट्टी से लिपा पुता रहता था एक बेहद शानदार मिटटी की खुशबू के साथ . इसी आंगन के कोने में एक ओखली भी थी जिसमें धान और चूड़े कूटे जाते थे. उनके घर पर आने वाले हर बच्चे को चूड़े भी दिये जाते और पीले-हरे अमरूद भी. सच में उस जैसे अमरूद का स्वाद हमने आज तक कहीं नहीं चखा. क्योंकि जिस स्नेह से हाथ पकड़कर अपनेपन के साथ वो पुफु अमरूद पकड़ाती थी या डांटकर खा लेने को कहती थी शायद उसी स्नेह से उनकी मिठास भी कई गुना बढ़ जाती होगी , ये बात सिर्फ चूड़े या अमरुद तक ही नहीं बल्कि कभी जाड़े की चाय, मिश्री के टूकडे और गाय के दूध और छांछ को बाँटते हुए आगे बढ़ती थी.
इधर दशहरा, दिवाली और रामलीला के आयोजनों के वक्त भी पीपलकोटी कसबे जो अब नगर पंचायत बन गया है के, सभी लोग अपने अपने घरों के जो भी फल फूल हों उनको इकट्ठा करते और आपस में बाँट दिया करते थे . मैं , अपने घर तब डाक बंगला को ही घर समझते थे- वहां से दौड़ते हुए- सायी ( यानि गढ़वाली शब्द – गौशाला ) के बगल से – वैध्य सुरेन्द्र सिंह सजवाण की दूकान से रावत पान भंडार को पार करते ही स्टेशन पर पहुंच जाता, जहां पर श्री रामेश्वर बिश्नोई जी की विशाल दूकान या जनरल स्टोर हुआ करता था ठीक सामने, सबसे पुराना और विश्वसनीय इन्द्रलोक होटल, तब का प्रशांत होटल, नौरख पदानों की होटल जहां इस यात्रा मार्ग का शानदार खाना श्री रंजीत सिंह मामा जी आनंदी मामा जी बनाते थे- बगल में स्वर्गीय हरीश भाईसाब और मोहित भाईसाब की छोले चावल, पकौड़ी की दूकान, बगल में बीरू काका की पान की दूकान , अजंता होटल और ठीक बगल में विक्रांत होटल- उनसे ही लगा हुआ था यहां इस बात का भी जिक्र करना उचित होगा कि, जहां पर अब का विक्रांत होटल है वहां पर नौरख के स्वर्गीय नारायण सिंह भंडारी जी की घंटी वाली मिठाई की दूकान थी, बगल में पुलिस का चेक पोस्ट- ऊपर की तरफ पर्यावरण मित्र वाल्मीकियों का डेरा बाद में ऊपर की तरफ जोशी की सब्जी की दूकान, प्रमोद भाईसाब की पान की दूकान और नाई के बगल में तब सुरेश मोची की दूकान थी जो बाद में फल बेचने लगे थे. इसके पीछे की तरफ रावत पान भंडार के ऊपर करन ड्राईक्लीनर्स की दूकान भी हुआ करती थी. उसके बगल सही बंगले को शोर्टकट रास्ता भी जाता है, हमारी गौशाला भी उधर ही ऊपर को है, पीपलकोटी का सबसे पुराना पीपल का भी यही पर था जो शायद जून 2004 में तेज हवा से टूट गया था.
हालांकि अभी आधा बाजार पेट्रोल पम्प की तरफ- जैसे- राजन भाईसाब का वस्त्र भण्डार और गिफ्ट हाउस इसके बाईं तरफ से नौरख के खेतों को जाने रास्ता भी था, बगल में अब भुवन भाईसाब का शाह इलेक्ट्रिकल्स और पहले शन्नू भाई के पिताजी की पान की दूकान, बन्नी भाईसाब की फल सब्जी की दूकान, सुनील भाईसाब की दाल की पकौड़ियाँ, उस समय त्रिलोक अग्रवाल जी की दूकान सुना वो मूलतः कीर्तिनगर के थे अब वहां पर तन्नु इलेक्ट्रिकल्स की दूकान, पानी की नीली- गोल जलसंस्थान की टंकी, पीछे पुलिस के वायरलेस का स्टेशन और ठीक सामने स्टेट बैंक था, स्टेट बैंक से पहले उससे पहले काली कमली धर्मशाला जाने- आने के लिए सीढ़ी नुमा रास्ता है पर स्टेट बैंक के उपर की तरफ मेरे मित्र बालसखा- जयदीप पुंडीर के पिताजी की पुंडीर टैलर्स और बगल में श्री हरसिंह कंडेरी जी का फेमस टी स्टाल, बगल में सरकारी अस्पताल, उसके आगे शहतूत का पेड़ भी था, बिलकुल सामने आटे की चक्की जिसको अक्सर श्री मणि लाल शाह चाचा जी चलाते थे, तब सड़क पार प्रशांत रेस्टोरेंट या अतुल लाज नहीं बना था क्यूंकि तब वहां पर पुराना अस्पताल था और गडोरा के बालकृष्ण भाईसाब और डिमरी चाचा जी वहां सेवा देते थे और उसके पीछे पुजारी गुरु जी रहते थे उनका एक बहुत बड़ा भोटिया कुत्ता था जिसका नाम जम्बू था, लेकिन अस्पताल के सामने ताऊ जी स्वर्गीय आनंद लाल शाह जी या श्री कैलाश भाईसाब लोगों की बड़े कपडे की दूकान और एक तरह का बड़ा जनरल स्टोर था उसके ठीक सामने उस समय गढ़वाल मंडल विकास निगम के बाहर से सफ़ेद कैंनवास और भीतर से पीले अस्तर पर फूल छपे टेंट लगे थे उन के अगल बगल- रंगबिरंगे खूब कोसमोस के फूल खिले रहते, पेट्रोल पम्प बहुत पुराना था उसके कोने में डॉ, पाठक और उनकी बहन गीता दीदी ने पथिक होटल खोला था ये बात शायद वर्ष 1984 से वर्ष 1987 की होगी . इस क्षेत्र में पहली येज्दी मोटर साइकिल इनके पास ही देखि थी और यहां मोटर साइकिल चलाने वाली गीता दीदी पहली महिला या लड़की थी . अब यहां पथिक के किनारे बाजार ख़तम हो जाता है नीचे की तरफ नंदी फूफू जी और कान्हा भाईसाब, सुनील और मुकुल भाईसाब लोगों की गौशाला थी . अब ये जगह होटल और दुकानों में बदल सी गयी है. सुना है अब विकास के साथ पीपलकोटी के मुख्य मार्ग पर ही वर्ष 2024 में शराब का सरकारी ठेका भी खुल गया है .
पीपलकोटी के आधा बाजार – पल्ला बाजार और डीजीबीआर को जानना बाकी है, तो चलते हैं पुलिस चैक पोस्ट से आगे जिसके पीछे अगथला के श्री चैत सिंह काका का लाज, पीछे की तरफ सतपुली लाल की दूकान और नीचे की तरफ पंचम जमादार और सार्वजनिक शौचालय होता था वापसी में बीच में GMOU का टिकट स्टेशन (अब खंडहर हो गया है) ,यहां पर ही मंगलू लाटी, अकाल दास लोग ही रहते थे नीचे की तरफ समिति से लगभग लगा हुआ पाखी के यद्बीर भाईसाब का ऐतिहासिक मकान- बगल में पशु सेवा केंद्र, फिर सुरेन्द्र देवेन्द्र जनरल स्टोर , यहीं पर सबसे पहले होटल हैवन खुला था, पर इन दोनों के बीच में मेरे बचपन के दोस्त बद्री बिष्ट का घर था – उसके बगल में श्री बद्रीनाथ केदारनाथ मंदिर समिति की धर्मशाला और उससे लगा रांगलडीप का 6-8 फीट चौड़ा रास्ता और धर्मशाला के ठीक सामने श्री दीन दयाल भाईसाब की उस समय पान की दूकान, कान्हा भाईसाब और उनका लकड़ी के जंगले का मकान नीचे गाँधी आश्रम बगल में शाह ज्वेलर्स, फिर आगे खादी ग्रामोद्योग के साथ साथ सत्यप्रसाद जनरल स्टोर, नीचे की तरफ मेरे मित्र बद्री बिष्ट के पिताजी की मिठाई की दूकान बाद में दाडिमी वालों का शिवलोक होटल, बीच बीच में उद्यान विभाग का ऑफिस और फिर लोकनिर्माण विभाग के दो बड़े बड़े टिन शेड स्टोर थे, उनके बीच में गोल नीले रंग की जल संस्थान की गोल पानी की टंकी और पास में बड़ा सा डैकन (पहाड़ी नीम) का पेड़ था. इनके ठीक सामने से पुलिस चौकी के आगे से बंगले की रोड जाती जो हमारे घर के आगे खतम हो जाती थी, लेकिन पैदल रास्ता नौरख गाँव और कैल्पीर तक जाता है, लेकिन नीचे सड़क के किनारे वाली पानी की टंकी के सामने ही नौरख गाँव के पानसिंह मामा जी की सेल पकौड़ी और जलेबी के साथ साथ चाय की दुकान भी थी, इसके अलावा उस डैकन के पेड़ अब आज के न्यू विक्रांत होटल के ही सामने मठ गाँव के मोहन दा के साथ साथ अब गुनियाला के अणसी भाईसाब की दूकान और लास्ट में मुन्ना लाला की दूकान पर जाकर पल्ला बाजार ख़तम हो जाता, हालाँकि बीच में अब मेहरा और नंदादेवी स्टोर भी खुल गए हैं इस बाजार की आखिरी मुन्ना लाला की दूकान से आगे सीमा सड़क संगठन (डीजीबीआर) का ऑफिस शुरू हो जाता था और फिर बाजार ख़तम.
डीजीबीआर से आगे पल्छ्ला मठ – बेमरू का पैदल मार्ग भी जाता है, अब सड़क बन गयी है. लेकिन ठीक उत्तर- पूर्व में गुदगड गधेरे से आगे पीपलकोटी बाजार ख़तम हो जाता है. ये जो परिदृश्य है ये लगभग आज से (2024 से) लगभग 40 साल पहले के पीपलकोटी का है अब बहुत कुछ बदल चूका है.
बस बाजार घुमाते घुमाते हुए मैं, असली बात जो अमरुद की थी उसको ही भूल गया हाँ तो अरे मैं, तो अपनी चंदुली पुफु की बात कर रहा था या यहां मैं, अपनी चंदुली पुफु के घर के अमरुद के फलों की बात करने के लिए ही आज ये बातें या पीपलकोटी की ये कहानी लिख रहा था. तो- चलते हैं पीपलकोटी के बंगले से (जिसके बगल के टिन शेडों में हम रहते थे) मैं, हरीश, जगदम्बा नौटियाल और कभी कभी नीरू दीदी के साथ दौड़कर स्टेशन पार कर इन्द्रलोक होटल के बगल से आगे बढ़ते काली कमली धर्मशाला पार करते तो ठीक सामने कभी कभी चन्दुली पुफु दिख जाती- जोर से और पूरे अधिकार से आवाज देती- हे नानतिन (हे छोटे बच्चों- कुमौनी भाषा में- नानतिन का मतलब छोटे- छोटे बच्चे होता है र) ह्यां आओ हो- और हम चुपचाप चंदुली पुफु के पीछे- वापसी में हमारे हाथों में या खाकी पेंट के खीसों (जेब) में होते पुफु के दिए हुए थोड़े थोड़े सुखनंदी धान के चूड़े और अधपके- अधकच्चे सुन्दर और स्वादिष्ट अमरुद – वैसे जैसे मैंने जीवन में दुबारा नहीं खाए और आज भी जब भी देहरादून की फलों की ठेलियों और फलों के दूकान में अमरुद के फल देखता हूँ तो चंदुली पुफु और उनके द्वारा प्यार से दिए जाते अमरुद हर बार याद आते हैं- अब कन्नू दा ने मुझे 8 दिसंबर को उनकी एक फोटो इस कहानी के लिए दी है – जिसमे उनकी हल्की मुस्कान आज भी जीवंत है. ढेर सारी याद बाकी – बात बाकी!