‘फुलकारी पुलाव’ पंजाब की लुप्त होती जा रही एक रेसीपी है…
मंजू दिल से… भाग-3
- मंजू काला
सोहने फुल्लां विच्चों फुल गुलाब नी सखि
सोहणे देशां विच्चों देश पंजाब नी सखियों
बगदी रावी ते झेलम चनाय नी सखियों
देंदा भुख्या ने रोटी पंजाब दी सखियों…
पंजाब यानी जिसके ह्रदय स्थल पर पांच नदियां- झेलम, चिनाब, रावी, सतलुज, व्यास नामक जलधाराऐं अठखेलियां करती हैं. इस प्रदेश के बारे में दावा किया जाता है कि यही वो धरती है
जहाँ वोल्गा से विहार करती हुई आर्य सभ्यता ने सिंधु नदी के तट को अपना आशियाना बनाया.प्यारे
पंजाब की माटी का परिचय उसकी जीवन को स्फूर्ति और गति देने वाली सभ्यता में छिपा है. सरिताओं के स्वच्छ जल से सिंचित लहलहाते अन्न की बालियों से हरे-भरे खेत, गिद्दा और भांगड़ा
की ताल पर थिरकते “मुटियार” और लहलहाती फसलें, दूध और दही की नदियों के साथ फिजाओं में तैरती “बुल्ले शाह” की स्वर लहरियों के मध्य अचानक अपने रंगीन फूंदने (परांदे) को हवा मे लहरा कर “साडा चीड़ियों दा चंबा वे बाबुल असा उड़ जाणा” को करूण स्वर में गाती घर की छत पर खड़ी पंजाब की मुटियारिनें, यही तो है साडा पंजाब…!!!प्यारे
यहां प्राचीन काल में नदियों के किनारे बसे गुरूकुलों के वटुक प्रातः सायं किनारे की विशाल एवं विशद शिलाओं पर बैठकर मण्डलियों में समागम किया करते थे. उन चट्टानों से टकराकर कल-कल छल-छल का निनाद करता नदियों का निर्मल जल छप-छप कर
मानों उनके साथ ताल देता था. उनका यह मंद एवं मधूप स्वर धरती-आकाश को एक सूत्र में पिरो देता था. सारा वातावरण मानों गाने लगता था. भारतीय संस्कृति के निर्माण में पंजाब का बडा़ महत्व है. इस बात को गुरूवर रवींद्र ठाकुर ने भी माना है कि वेद बने भले ही कहीं और हों, पर उनका सस्वर उच्चारण इसी प्रांत में हुआ है. कहते हैं कि पंजाब की आत्मा यहाँ की लोक संस्कृति में बसती है.प्यारे
कहते हैं कि पंजाब के चेनाब नामक दरिया के किनारे झंग नामक गाँव में, सियाल जनजाति में पैदा हुई एक अमीर परिवार की लड़की थी हीर. तब चिनाब नदी के किनारे तख्त हजारा, (अब पाकिस्तान में) नाम के गाँव में “रांझा” नाम का एक नौजवान रहता था. परिवार का सबसे छोटा बेटा होने के कारण वह सबका दुलारा था.
वह चिनाब के किनारे ढोर चराते हुए बांसुरी बजाता रहता था.एक दिन घने दरख्तों के साये में बैठी हीर को उसने देख लिया और पहली ही नजर में रांझा को हीर से प्रेम हो गया. हीर शाम के समय हरा सलवार कुर्ता पहन कर अपनी कानों की बालियां
झुलाते हुए आती थी. और तब दोनों दरिया के किनारे बैठ कर नील आसमान में उड़ते परिंदों को देखते और धीरे-धीरे पश्चिमगामी होते सूरज को देखकर रांझा अपनी बांसुरी पर कोई मधूर तान छेड़ देता था. कहते हैं कि हीर उसके लिए रोज खाने के लिए “फुलकारी पुलाव” लेकर आती थी और दोनों दरिया के किनारे बैठ कर प्रेम में पगे रंग-बिरंगी पुलाव को खाते थे.प्यारे
पंजाब के यह इस
परंपरागत पकवान को घर की बड़ी-बुढ़िया बड़े शौक और एतराम के साथ बनातीं थीं. यह व्यंजन यहां के कपड़ों पर की जाने वाली पारंपारिक कढाई “फुलकारी” से प्रेरित है. केसर, पनीर, और खस-खस से बने ये चावल फूलों के गुच्छे जैसै प्रतीत होते हैं, तभी इन चावलों को “फुलकारी पुलाव” भी कहा जाता है.
प्यारे
“फुलकारी पुलाव” पंजाब का एक लुप्त होता जा रहा पारंपरिक व्यंजन है. पंजाब के यह इस परंपरागत पकवान को घर की बड़ी-बुढ़िया बड़े शौक और एतराम के साथ बनातीं थीं.
यह व्यंजन यहां के कपड़ों पर की जाने वाली पारंपारिक कढाई “फुलकारी” से प्रेरित है. केसर, पनीर, और खस-खस से बने ये चावल फूलों के गुच्छे जैसै प्रतीत होते हैं, तभी इन चावलों को “फुलकारी पुलाव” भी कहा जाता है. इस पकवान को रंग-बिरंगे विभिन्न प्रकार के चावलों से बनाया जाता है. ऐसा माना जाता है कि प्राचीन समय में इस पकवान को मिट्टी के बरतनों और सांझे चूल्हों पर सामूहिक रूप से मिट्टी की हांडियों मे बनाया जाता था.प्यारे
“फूलकारी पुलाव” को खाने के बाद हीर, बचे हुए पुलाव को वहां दरिया किनारे चर रहे मवेशियों को खिला देती थी. इस दौरान पुलाव में डाले गए तरबूज के बीज भूमि पर
गिर कर मिट्टी में मिल जाते थे और जब वहां बादल बरसते, तब वहां पर तरबूज की बेलें उग जाती थीं. कहते हैं कि आज भी उस दरिया के किनारे बहुत सारे तरबूज होते हैं और हीर के “फूलकारी पुलाव” की याद दिलाते हैं.
प्यारे
फुलकारी पुलाव बनाने के लिए सबसे पहले धीमी आंच पर एक बर्तन में खस-खस, चावल, और 2-4 बूंद तेल या फिर नींबू का रस डालकर उबालने के लिए रखा जाता था,
फिर चावलों के अधपके होते ही आंच को बंद कर देते थे और छन्नी से छान कर चावल का पानी निकाल देते थे. तब चावलों मे पीले रंग का केसर और टेसू के फूलों का रंग मिलाकर एक बड़ी-सी परात मे उनको फैला दिया जाता था ताकि चावलों का पानी निथर सके. ऐसा करते हुए घर की बीजी एक पारंपरिक लोकगीत “वे ले दे मैनु… मखमल दी पक्खी… घुंघरुओं वाली…” भी गुन गुनाती रहतीं थीं.घर की बहूटियाँ पल्लू मुँह में
दबाये हुये शरमाते हुई मेवे कतरती रहती थी. तब “बीजी” आतीं और चूल्हे पर पतीला रखकर उसमें खूब सारा घी डालकर गरम करतीं और उस गरम घी में दालचीनी, इलाईची, काली मिर्च, लौंग और चक्र फूल डालकर भूनने के बाद गाजर, मटर, काजू, किशमिश, बादाम, चिरौंजी और तरबूज के बीज मिलाकर, फिर खस-खस वाले चावल, पनीर और केसर वाला दूध डालकर फूलों के गुच्छे जैसा सुंदर रंगीन “फूलकारी पुलाव” बनाती थीं.प्यारे
बताते हैं कि “हीर—रांझा” माँ,
दादी और भाभियों के बनाए इसी फूलकारी पुलाव को पीतल के कटोरदान में भरकर चिनाब नाम के दरिया के किनारे “रांझे” को खिलाने, माँ और भाभियों से छिपकर ले जाती थी. “फूलकारी पुलाव” को खाने के बाद हीर, बचे हुए पुलाव को वहां दरिया किनारे चर रहे मवेशियों को खिला देती थी. इस दौरान पुलाव में डाले गए तरबूज के बीज भूमि पर गिर कर मिट्टी में मिल जाते थे और जब वहां बादल बरसते, तब वहां पर तरबूज की बेलें उग जाती थीं. कहते हैं कि आज भी उस दरिया के किनारे बहुत सारे तरबूज होते हैं और हीर के “फूलकारी पुलाव” की याद दिलाते हैं. हालांकि प्यारे पंजाब का वह हिस्सा. जिसको “झंग” कहते हैं, अब पाकिस्तान में है, लेकिन “हीर” की बालियां, हीर का पराँदा, हीर का कटोरदान और हीर का “फूलकारी पुलाव” हमारे दिलों हमेशा राज करता रहेगा.प्यारे
(लेख-बातचीत पर आधारित)
(मंजू काला मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल से ताल्लुक रखती हैं. इनका बचपन प्रकृति के आंगन में गुजरा. पिता और पति दोनों महकमा-ए-जंगलात से जुड़े होने के कारण,
पेड़—पौधों, पशु—पक्षियों में आपकी गहन रूची है. आप हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं. आप ओडिसी की नृतयांगना होने के साथ रेडियो-टेलीविजन की वार्ताकार भी हैं. लोकगंगा पत्रिका की संयुक्त संपादक होने के साथ—साथ आप फूड ब्लागर, बर्ड लोरर, टी-टेलर, बच्चों की स्टोरी टेलर, ट्रेकर भी हैं. नेचर फोटोग्राफी में आपकी खासी दिलचस्पी और उस दायित्व को बखूबी निभा रही हैं. आपका लेखन मुख्यत: भारत की संस्कृति, कला, खान-पान, लोकगाथाओं, रिति-रिवाजों पर केंद्रित है.)