Month: May 2020

साईबो को पाप

साईबो को पाप

उत्तराखंड हलचल, किस्से-कहानियां
सुभाष तराण 1815 के बाद जब जौनसार-बावर और देवघार फिरंगी सरकार के अधीन आया तो उन्होने सबसे पहले पडौस की शिमला रेजीडेंसी को देहरादून से जोडने के लिये एक नए अश्व मार्ग का निर्माण किया. यह रास्ता मसूरी, यमुना पुल नागथात चकराता त्यूनी मुन्धोल से मुराच़, छाज़पुर, खड़ा पत्थर, कोटखाई होते हुए शिमला तक जाता था. कारी-किश्ते के अलावा इस रास्ते पर घोड़े पालकियों पर सफर करने वाले अंग्रेजी हाकिमों ने बरे-बेगार की जिम्मेदारी स्थानीय स्याणों को दे रखी थी. अंग्रेजी साहिबों के आवागमन के दौरान गाँव व सदर (क्षेत्र) स्याणे बड़ी मुस्तैदी के साथ अपने अपने इलाकों में उनकी खिदमत का प्रबंध करते और हारी बेगारी करवाने के लिये अपने गाँव और क्षेत्र के भोले भाले लोगों को उनकी सेवा में पठाते. बोझा ढोने को अपनी नियती मानने वाले इस क्षेत्र के लोग भी बिना किसी हिला हवाली के ईमानदारी के साथ खुद को प्रस्तुत करते और इंग्लिश बह...
वो कोचिंग वाला लड़का

वो कोचिंग वाला लड़का

किस्से-कहानियां
अनीता मैठाणी रोज सुबह हड़बड़ाहट में कोचिंग क्लास के लिए तैयार होती. पाण्ड्स ड्रीमफ्लॉवर पाउडर को हाथों में लेकर चेहरे पर ऐसे मलती कि बस जैसे उसके लगाते ही चेहरा दमकने लगेगा. पर सच में ऐसा होता था, चेहरा दमकने के साथ-साथ चमकने भी लगता था. अपनी लाल रंग की साइकिल निकालती और 5 किमी. दूर कोचिंग सेन्टर पहुँच जाती. रास्ते में आते-जाते हुए अक्सर एक साइकिल वाला लड़का दिखता जो लगभग रोज दिखता था. हालांकि मैंने कभी उसके चेहरे की तरफ नहीं देखा पर मुझे पता था कि वही एक लड़का है जो रोज दिखता है. एक दिन उसकी ब्राइट यैलो शर्ट कोचिंग सेन्टर में भी दिखी तो पता चला वो भी वहीं जाता था. वो शायद एम.ए. कर रहा था क्योंकि मैंने उसे एम.ए. वालों के रूम में जाते देखा था. किन्हीं अपिहार्य कारणों की वजह से मुझे बारहवीं की व्यक्तिगत परीक्षा देनी पड़ रही थी. अगले दिन जब मैं स्टैण्ड पर पहुँची मैं क्या देखती हूँ, आज बिन...
माकोट की आमा   

माकोट की आमा   

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—5 रेखा उप्रेती माकोट की आमा (नानी) को मैनें कभी नहीं देखा. देखती कैसे!! जब मेरी माँ मात्र दो-ढाई बरस की थी तभी आमा चल बसी. नानाजी ने दूसरा विवाह किया नहीं…. पर फिर भी माकोट में मेरी एक आमा थी जिसे मैंने कभी नहीं देखा… मेरा माकोट बहुत दूर था और पहाड़ों में तब आवागमन के साधन न के बराबर थे. मेरे होने तक माँ का मायके से रिश्ता बस चिट्ठी-पत्री तक सिमट कर रह गया था. जब तक मैं इस लायक हुई कि माँ को लेकर अपने ननिहाल जा सकी तब तक आमा दुनिया से विदा ले चुकी थी. मेरी माँ की चाची थी वह, माँ काखी कहती थी और अपनी काखी के किस्से अक्सर हमें सुनाया करती. आमा नि:संतान थी, यह कहना बहुत बड़ा झूठ होगा क्योंकि जिस प्रेम और अपनत्व से माँ अपनी काखी को याद करती, कौन कहेगा कि काखी की कोख जाई नहीं थी. माँ की यादों और बातों में बसी अपनी उस अनदेखी आमा को मैंने अपने इतने करीब पाया कि...
बंजर होते खेतों के बीच ईजा का दुःख

बंजर होते खेतों के बीच ईजा का दुःख

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—9 प्रकाश उप्रेती हमारे खेतों के भी अलग-अलग नाम होते हैं. 'खेतों' को हम 'पटौ' और 'हल चलाने' को 'हौ बहाना' कहते हैं. हमारे लिए पटौपन हौ बहाना ही कृषि या खेती करना था. कृषि भी क्या बस खेत बंजर न हो इसी में लगे रहते थे. हर खेत के साथ पूरी मेहनत होती लेकिन अनाज वही पसेरी भर.हमारे हर पटौ की अपनी कहानी और पहचान थी. हमारे कुल मिलाकर 40 से 45 पटौ थे. हर एक का अलग नाम था. हर किसी में क्या बोया जाना है, वह पहले से तय होता था। कई खेतों में तो मिट्टी से ज्यादा पत्थर होते थे. हर पत्थर और खेत अपनी पहचान रखता था. उनके नाम थे, जैसे - तेसंगड़ी पाटौ, बटौपाटौ, घरज्ञानणय पाटौ, ठुल पाटौ, रूचिखाअ पाटौ, बघोली पाटौ, किवांड़ीं पाटौ, कनहुंड़ीं पाटौ, मलस्यारी पाटौ, रतवाडो पाटौ, गौंपारअ पाटौ, बगड़अ पाटौ, इस तरह और भी नाम थे. पेड़, पत्थर या भौगोलिक स्थिति के अनुसार उनका नामकरण हुआ...
यमुना घाटी: कफनौल गांव- रिंगदू पाणी

यमुना घाटी: कफनौल गांव- रिंगदू पाणी

उत्तराखंड हलचल
यमुना—टौंस घाटी की अपनी एक जल संस्कृति है. यहां लोग स्रोतों से निकलने वाले पानी को देवताओं की देन मानते है. इन नदी—घाटियों में जल स्रोतों के कई कुंड स्थापित हैं.​ विभिन्न गांवों में उपस्थित इन पानी के कुंडों की अपनी—अपनी कहानी है. इस घाटी के लोग इन कुंडों से निकलने वाले जल को बहुत ही पवित्रत मानते हैं और उनकी बखूबी देखरेख करते हैं. जल संस्कृति में आज हम ऐसे ही कुंडों से आपको रू—ब—रू करवा रहे हैं. यमुना घाटी के ऐसे ही कुछ जल कुंडों बारे में बता रहे हैं वरिष्ठ प​त्रकार प्रेम पंचोली— जल संस्कृति भाग—3 कफनौल कहने व सुनने से लगता है कि यहां काफी नौले होंगे और इस गांव में निश्चित तौर पर बहुत सारे जल स्रोत भी है जो कुण्ड नुमा तथा 'नौले' के आकार के थे. पिछले दस वर्षों अन्तराल में इस गांव में सम्पूर्ण जल स्रोत सूख गए. अब मात्र एक ही कुण्ड शेष है जिसे देवता का पानी कहते है. लोग इस पानी क...
पितरों की घर-कुड़ी आबाद रहे

पितरों की घर-कुड़ी आबाद रहे

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—8 प्रकाश उप्रेती ये हमारी ‘कुड़ी’ (घर)  है. घर को हम कुड़ी बोलते हैं. इसका निर्माण पत्थर, लकड़ी, मिट्टी और गोबर से हुआ है. पहले गाँव पूरी तरह से प्रकृति पे ही आश्रित होते थे इसीलिए संरक्षण के लिए योजनाओं की जरूरत नहीं थी. जिसपर इंसान आश्रित हो उसे तो बचाता ही है. पहाड़ों में परम्परागत रूप से एक घर दो हिस्सों में बंटा रहता है. एक को गोठ कहते हैं और दूसरे को भतेर. गोठ नीचे का और भतेर ऊपर का हिस्सा  होता है. इन दो हिस्सों को भी फिर दो भागों में बांट दिया जाता है: तल्खन और मल्खन . तल्खन बाहर का हिस्सा और मल्खन अंदर का हिस्सा कहलाता है. अक्सर भतेर में तल्खन बैठने के लिए इस्तेमाल किया जाता है तो वहीं मल्खन में सामान रखा जाता है. गोठ में खाना बनता है. मल्खन में चूल्हा लगा रहता और खाना बनता है. तल्खन में लोग बैठकर खाना खाते हैं. हम मल्खन से सारी चीजें च...
गांव की रामलीला से ही आरंभ हुआ रंगकर्म का सफर

गांव की रामलीला से ही आरंभ हुआ रंगकर्म का सफर

संस्मरण
रंग यात्रा भाग—2 महावीर रवांल्टा अपने दोनों गांवों में नाटक एवं रामलीला की प्रस्तुति,लेखन, अभिनय, उद्घोषणा के साथ ही पार्श्व में अनेक जिम्मेदारियों के निर्वाहन के बाद पढ़ाई के लिए उत्तरकाशी में होने के कारण मैंने वहां रंगकर्म के क्षेत्र में उतरने का मन बना लिया और पूरे आत्मविश्वास के साथ शुरुआत भी की. जिससे मैंने कुछ नाटकों में अभिनय व निर्देशन के माध्यम से उत्तरकाशी के रंग इतिहास में अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी थी. उत्तरकाशी में मैंने मुनारबन्दी (1985, महावीर रवांल्टा) बालपर्व (1985,डा अरविंद गौड़) समानांतर रेखाएं (1987, सत्येन्द्र शरत) दो कलाकार (1987, डा भगवती चरण वर्मा) नाटकों में अभिनय के साथ ही उनका निर्देशन भी किया तथा माघ मेला 1987 में वीरेंद्र गुप्ता के निर्देशन में मंचित संजोग(सतीश डे) में मुख्य भूमिका निभाने का अवसर भी मिला. इसके बाद काला मुंह (डा. गोविन्द चातक) हेमलेट(...
जिसकी कलम में गाँठ….

जिसकी कलम में गाँठ….

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—4 रेखा उप्रेती छोटे थे तो किसी भी बात पर सहज विश्वास कर लेते. हवा, पानी, पेड़, पहाड़- जैसे हमारे लिए साक्षात थे वैसे ही बड़ों से सुने हुए किस्से-कहानियाँ-कहावतें भी…. उन दिनों बाँस की कलम प्रयोग में लायी जाती थी और कलम मोटी, पतली, टेड़ी-मेड़ी भले ही हो पर गाँठ वाली न हो, इस बात का हम पूरा ध्यान रखते. क्योंकि कहावत थी- “जिसकी कलम में गाँठ, उसकी बुद्धि नाश”. तब हमें बुद्धि भले नहीं थी पर उसके नाश होने की कल्पना से हम घबराते थे. लिहाज़ा पुरानी कलम जब टूट जाती, तो बाँस के झुरमुटों में से सही नाप-तोल की सूखी टहनी टटोल कर लाना बड़ी लियाक़त माँगता था. दो गाँठों के बीच की साफ़-सुथरी टहनी खोजनी पड़ती. उसकी लम्बाई और मोटाई का अनुपात ठीक होना भी जरूरी था. बाँस न कच्चा हो न इतना सूखा कि दरार पड़ जाए. कलम उतनी ही स्याही सोखे कि अक्षर को आकार मिले वरना स्याही की बूँद टपक ...
गांव की रामलीला से ही आरंभ हुआ रंगकर्म का सफर

गांव की रामलीला से ही आरंभ हुआ रंगकर्म का सफर

संस्मरण, साहित्‍य-संस्कृति
रंग यात्रा भाग—1 महावीर रवांल्टा जीवन में पहली बार कब मुझे रामलीला या पौराणिक नाटक देखने का अवसर मिला होगा, कैसे मुझे उनमें रुचि होने लगी, इस समय यह बता पाना मुश्किल है लेकिन मेरी स्मृति में इतना जरूर दर्ज है कि महरगांव में अपने घर के बरांडे के नीचे ओबरों से बाहर की जगह पर हमने रामलीला की शुरुआत की थी. इसमें हमारे पड़ोस में रहने वाले भट्ट परिवार के बच्चे भी शामिल हुए थे. निश्चित तौर पर यह रामलीला हमारे अपनी समझ से उपजे संवाद एवं अभिनय के सहारे आगे बढ़ी होगी मुझे ऐसा लगता है. इस रामलीला की इतनी चर्चा हो पड़ी थी कि हमारे व आसपास के गांव के किशोर भी इसमें शामिल हुए. हमारे घर के बाहर के आंगन मे इसे खेला गया था. घर में उपलब्ध माता जी की धोतियों का पर्दे के रूप में इस्तेमाल हुआ था. घर में उपलब्ध सामग्री व वेशभूषा के साथ ही गत्ते से बनाए गए मुकुट, लकड़ी के धनुष बाण और तलवार सभी ने अपनी स...
दैंणी द्वार भरे भकार

दैंणी द्वार भरे भकार

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—7 प्रकाश उप्रेती मिट्टी और गोबर से लीपा, लकड़ी के फट्टों से बना ये- 'भकार' है. भकार (कोठार) के अंदर अमूमन मोटा अनाज रखा जाता था. इसमें तकरीबन 200 से 300 किलो अनाज आ जाता था. गाँव में अनाज का भंडारण, भकार में ही किया जाता था. साथ ही भकार कमरे के पार्टीशन का काम भी करता था. पहाड़ के घरों के अंदर का एस्थेटिक्स भकार से भी बनता था. भकार का होना समृद्धि का सूचक भी था. तब खूब खेती होती थी और इतने जंगली जानवर भी नहीं थे. खूब सारा अनाज हुआ करता था. इतना सारा अनाज खुले में रख नहीं सकते थे इसलिए हर घर में भकार रखना आवश्यक वस्तु थी. हमारे घर में दो भकार थे: एक में धान और दूसरे में मंडुवा रखा रहता था. ईजा धान और मंडुवा साफ करने के बाद, 'सुखा-पका' कर भकार में रख देती थीं. जब धान और मंडुवा कम हुआ तो फिर बाजार से गेहूं लाकर वो रखा जाने लगा. अब तो जो लोग खेती कर भी...