मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—9
- प्रकाश उप्रेती
हमारे खेतों के भी अलग-अलग नाम होते हैं. ‘खेतों’ को हम ‘पटौ’ और ‘हल चलाने’ को ‘हौ बहाना’ कहते हैं. हमारे लिए पटौपन हौ बहाना ही कृषि या खेती करना था. कृषि भी क्या बस खेत बंजर न हो इसी में लगे रहते थे. हर खेत के साथ पूरी मेहनत होती लेकिन अनाज वही पसेरी भर.हमारे हर पटौ की अपनी कहानी और पहचान थी. हमारे कुल मिलाकर 40 से 45 पटौ थे. हर एक का अलग नाम था. हर किसी में क्या बोया जाना है, वह पहले से तय होता था। कई खेतों में तो मिट्टी से ज्यादा पत्थर होते थे.
हर पत्थर और खेत अपनी पहचान रखता था. उनके नाम थे, जैसे – तेसंगड़ी पाटौ, बटौपाटौ, घरज्ञानणय पाटौ, ठुल पाटौ, रूचिखाअ पाटौ, बघोली पाटौ, किवांड़ीं पाटौ, कनहुंड़ीं पाटौ, मलस्यारी पाटौ, रतवाडो पाटौ, गौंपारअ पाटौ, बगड़अ पाटौ, इस तरह और भी नाम थे. पेड़, पत्थर या भौगोलिक स्थिति के अनुसार उनका नामकरण हुआ था. हर नाम के पीछे तर्क था जो कई पीढ़ियों से चला आ रहा था। हमने बचपन से ही खेतों में जाना शुरू कर दिया था। कभी हल के साथ तो कभी गेहूं, मंडुवा काटने ईजा के साथ चले जाते थे। इसलिए अपने सब पटौ को नाम से पहचानते थे।
ईजा जब पटौपन गई होती थीं तो घर से अम्मा कहती थीं कि ‘जा तेर ईज बघोली पटौपन जा रहे, चहा दी हा’ (तुम्हारी माँ खेत गयी है, जाओ चाय दे आओ). हम चाय- पानी और रोटी लेकर वहीं पहुँच जाते थे. बचपन से ही हर पटौ का नक्शा दिमाग में छपा हुआ था. ईजा के लिए जब भी चाय- पानी ले जाते थे तो जहाँ से ईजा दिख जाती थीं वहाँ से आवाज नहीं ‘धात’ लगाते थे. ‘ईजा, ईजा मैं चहा ली बे आमोयू’ (माँ, देखो मैं चाय ले आया), ईजा नीचे से आ आ, माठु- माठु (धीरे- धीरे) आ कहती थीं पर धीरे धीरे कौन दौड़ता था. हम और तेज गति से दौड़ लगाकर पहुंच जाते थे.
खेत में पहुंचने पर ईजा ‘स्यो’ मतलब छाया में बैठकर चाय – पानी और खाना खाती थीं. तब तक हम पटौ के ढुङ्ग ऊपर- नीचे फेंकते या कुदाल से गोड़ने लगते या घास काटने लगते जो भी हो रहा होता, उसे थोड़ी देर के लिए करते और फिर ख़ुद भी स्यो बैठ जाते. ईजा सुबह सूरज उगने से पहले निकल जातीं और कभी दोपहर या तो कभी सूरज डूबने पर ही घर लौटतीं. असूज के दिनों में तो यही दिनचर्या होती थी.
ईजा और पटौ एक दूसरे को बहुत पहचानते हैं. ईजा को पता होता है, कहाँ पत्थर है, कहाँ पेड़ की जड़ और कहाँ तक हमारा वड है. ईजा ने हर पटौ को बच्चों की तरह पाला, सँवारा है. उनके लिए वो केवल भूमि के टुकड़े मात्र नहीं हैं बल्कि उसमें भी वो जीवन देखती हैं.
खेतों में हौ बहाने के समय भी ईजा सुबह- सुबह चलीं जाती थीं. बुबू (दादा) सुबह होने से पहले अंधेरे में ही बैलों के सींगों पर तेल लगाते, उन्हें घास और आटा खिला देते थे. फिर सूरज की किरण से पहले हल चलाने निकल जाते थे. हमारा काम तब भी पटौ से ढुङ्ग फेंकने का होता था. कभी – कभी बुबू हल चलाने को भी दे देते, कभी ईजा थोड़ा बीज बोने के लिए भी दे देतीं थीं.
ईजा और पटौ एक दूसरे को बहुत पहचानते हैं. ईजा को पता होता है, कहाँ पत्थर है, कहाँ पेड़ की जड़ और कहाँ तक हमारा वड ( दो खेतों के विभाजन के लिए एक पत्थर खड़ा कर दिया जाता है. वही वड कहलाता है) है. ईजा ने हर पटौ को बच्चों की तरह पाला, सँवारा है. उनके लिए वो केवल भूमि के टुकड़े मात्र नहीं हैं बल्कि उसमें भी वो जीवन देखती हैं.
अब बहुत से पटौ बंजर हो गए है. ईजा जब भी उन बंजर पड़े पटौ के आस- पास से गुजरतीं हैं तो कुछ देर ठहरकर उनको देखने लगती हैं और कुछ मन ही मन में कहती हैं. उस मौन को ईजा और पटौ ही समझ पाते हैं। हम तो विकास के पथ पर भविष्य संवारने निकल पड़े हैं. मौन हमसे बहुत पीछे छूट गया है…
ईजा ने अभी भी 12- 13 पटौ “कमीन”(उपजाऊ) कर रखे हैं. उनके लिए अनाज से ज्यादा खेतों का उपजाऊ रहना जरूरी है. वह नहीं चाहती हैं कि उनके आँखों के सामने खेत बंजर हों. बंजर खेत ईजा को डराते हैं. ईजा ने हर खेत के अच्छे से सँवारा है. उनके लिए खेत से सिर्फ खेत नहीं है न. उसका बंजर होना सिर्फ खेत का बंजर होना नहीं है…
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं.)
मैं पहाड़ी नहीं हूँ लेकिन प्रकाश जी की ये कहानी एसा महसूस कराती है जैसे मैं बचपन से पहाड़ों में पला बड़ा हूँ।