
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—4
- रेखा उप्रेती
छोटे थे तो किसी भी बात पर सहज विश्वास कर लेते. हवा, पानी, पेड़, पहाड़- जैसे हमारे लिए साक्षात थे वैसे ही बड़ों से सुने हुए किस्से-कहानियाँ-कहावतें भी….
उन दिनों बाँस की कलम प्रयोग में लायी जाती थी और कलम मोटी, पतली, टेड़ी-मेड़ी भले ही हो पर गाँठ वाली न हो, इस बात का हम पूरा ध्यान रखते. क्योंकि कहावत थी-
“जिसकी कलम में गाँठ, उसकी बुद्धि नाश”.
तब हमें बुद्धि भले नहीं थी पर उसके नाश होने की कल्पना से हम घबराते थे. लिहाज़ा पुरानी कलम जब टूट जाती, तो बाँस के झुरमुटों में से सही नाप-तोल की सूखी टहनी टटोल कर लाना बड़ी लियाक़त माँगता था. दो गाँठों के बीच की साफ़-सुथरी टहनी खोजनी पड़ती. उसकी लम्बाई और मोटाई का अनुपात ठीक होना भी जरूरी था. बाँस न कच्चा हो न इतना सूखा कि दरार पड़ जाए.
कलम उतनी ही स्याही सोखे कि अक्षर को आकार मिले वरना स्याही की बूँद टपक कर शब्दों के अस्तित्व को निगल सकती थी. अब लिखे हुए पर धब्बा लग जाए तो सारा परिश्रम व्यर्थ है न.
कलम छीलना भी कम कलाकारी का काम न था. तेज़ धार वाली दराती से उसकी नोक बनाने में उँगली का कत्लेआम न हो जाए इस बात का बहुत ध्यान रखना पड़ता. ज़रा सी असावधानी से खूनखराबा हो जाता. नोक बन जाने पर उसकी जरा-सी तिरछी कटाई ज़रूर की जाती ताकि लिखावट सुन्दर बने. लिखने के लिए कलम की नोक को स्याही की दवात में डुबोया जाता. बड़ी नफासत से… इस अंदाज़ में कि सिर्फ नोक ही डुबकी खाए, हाथ स्याह न होने पाएँ … कलम उतनी ही स्याही सोखे कि अक्षर को आकार मिले वरना स्याही की बूँद टपक कर शब्दों के अस्तित्व को निगल सकती थी. अब लिखे हुए पर धब्बा लग जाए तो सारा परिश्रम व्यर्थ है न.

यह सारी प्रक्रिया तो ठीक समझ में आती है पर उस कहावत का क्या अर्थ ?
कलम में गाँठ न होना सहूलियत दे सकता है…उसका बुद्धि से क्या संबंध!! गाँठ और बुद्धि का नाश …इसमें तो तुक भी ठीक से नहीं बैठती..
…. और उसका प्रभाव ऐसा कि सामाजिक मानस में अनगिनत ग्रंथियाँ पनपने लगी हैं. कलम को बरतने का विवेक कुंठित हो रहा है. सब गाँठ पर गाँठ लगा रहे हैं और गुत्थियाँ सुलझने की बजाए उलझती जा रही हैं…
बित्ते भर की बाँस की कलम की क्या बिसात कि बुद्धि जैसी सूक्ष्म, जटिल, तेज़-तर्रार, मानव की सबसे बड़ी ताकत मानी जाने वाली महान उपलब्धि का नाश कर सके. आखिर उसका काम ही क्या ? स्याही लेकर विचारों को शब्द देने का माध्यम ही तो है…
…. माध्यम की इतनी महत्ता!!
जब कहावत बनी होगी तब न तो संचार माध्यमों का बोलबाला था न सोशल-मीडिया जैसे किसी मंच की परिकल्पना… पर कहावत जिसने भी कही, बात में दम तो है. ज़माने भर में देख ही रहे हैं कलम की सांठ-गाँठ …. और उसका प्रभाव ऐसा कि सामाजिक मानस में अनगिनत ग्रंथियाँ पनपने लगी हैं. कलम को बरतने का विवेक कुंठित हो रहा है. सब गाँठ पर गाँठ लगा रहे हैं और गुत्थियाँ सुलझने की बजाए उलझती जा रही हैं…
इस कठिन समय में हो सके तो हम भीतर-बाहर पनप रही बेशुमार गाँठों के प्रति सतर्क रहें, उन्हें खोलें, सुलझाएँ और जीवन-जगत के प्रति अधिक उदार और संवेदनशील दृष्टि विकसित कर सकें.
मेरी तो कच्चे-पक्के बाँस की अनगढ़ कलम है, कभी उसमें गाँठ नज़र आए तो आगाह ज़रूर करना…
(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ कॉलेज के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं)