Tag: #Kumaon

दुदबोलि के पहरू थे मथुरा दत्त मठपाल

दुदबोलि के पहरू थे मथुरा दत्त मठपाल

साहित्‍य-संस्कृति
कृष्ण चन्द्र मिश्रा कुमाउनी भाषा के कवि और दुदबोलि के पहरू(रक्षक) मथुरादत्त मठपाल 'मनख' का जन्म 29 जून 1941 ईस्वी को हुआ. इनकी जन्म स्थली अल्मोड़ा जिला के भिक्यासैंण ब्लॉक का नौला गांव था. यह गांव पश्चिमी रामगंगा because नदी के बाएं किनारे पर बसा हुआ है. इनके पिता स्व. हरिदत्त मठपाल स्वतन्त्रा संग्राम सेनानी थे. देश आजाद होने से पहले वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सक्रिय सदस्य थे. इनकी माँ कान्ति देवी कर्मठ महिला थीं. इनका परिवार संपन्न था. मथुरादत्त मठपाल मठपाल जी की पढ़ाई गांव के प्राइमरी स्कूल से शुरू हुई, सन् 1951 ई0 में प्राथमिक विद्यालय विनायक से दर्जा 5 पास किया, मानिला मिडिल स्कूल से 8 वीं कक्षा पास की. रानीखेत नेशनल हाईस्कूल से सन् 1956 ई0 में दसवीं और रानीखेत because मिशन इण्टर कॉलेज से इण्टरमीडिएट पास किया. लखनऊ विश्वविद्यालय में बी0एस0सी0 प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया कि...
आब कब आलै ईजा…

आब कब आलै ईजा…

किस्से-कहानियां
डॉ. रेखा उप्रेती  ‘‘भलि है रै छै आमाऽ...’’ गोठ के किवाड़ की चौखट पर आकर खड़ी आमा के पैरों में झुकते हुए हेम ने कहा. ‘‘को छै तु?’’ आँखें मिचमिचाते हुए पहचानने की कोशिश की आमा ने... ‘‘आमा मी’’ हेम... ‘‘को मी’’... ‘‘अरे मैं हेम... तुम्हारा नाती..’’ आमा कुछ कहती तभी बाहर घिरे अँधेरे से फिर आवाज आयी- ‘‘नमस्ते अम्मा जी!’’ उत्तराखंड ‘‘आब तु कौ छै?’’ आमा की खीझती-सी आवाज पर हेम को जोर से हँसी आ गयी. ‘‘भीतर तो आने दे आमा , बताता हूँ. हेम ने आमा को अपने अंकवार में ले गोठ की ओर ठेला. उत्तराखंड गोठ में जलते चूल्हे के प्रकाश में हेम ने देखा, तवा चढ़ा हुआ है और एक भदेली में हरी साग.. ‘‘अरे, तेरा खाना बन गया आमा... बहुत भूख लगी है.’’ उत्तराखंड ‘‘पैली ये बता अधरात में काँ बट आ रहा तू और य लौंड को छू त्येर दगड़?’’ आमा ने गोठ के फर्श पर दरी बिछाते हुए कहा... फिर कुछ सोचते हुए बोली  ‘‘ भीतेर ...
उत्तराखण्ड में जल-प्रबन्धन तथा जलवैज्ञानिकों की रिपोर्ट

उत्तराखण्ड में जल-प्रबन्धन तथा जलवैज्ञानिकों की रिपोर्ट

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-32 डॉ. मोहन चंद तिवारी उत्तराखण्ड में जल-प्रबन्धन-3 भारत के लगभग 5 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल में स्थित उत्तर पश्चिम से उत्तर पूर्व तक फैली हिमालय की पर्वत शृंखलाएं न केवल प्राकृतिक संसाधनों जैसे जल, वनस्पति‚ वन्यजीव, खनिज पदार्थ जड़ी-बूटियों का विशाल भंडार हैं, बल्कि देश में होने वाली मानसूनी वर्षा तथा तथा because विभिन्न ऋतुओं के मौसम को नियंत्रित करने में भी इनकी अहम भूमिका है. हिमालय पर्वत से प्रवाहित होने वाली नदियों एवं वहां के ग्लेशियरों से पिघलने वाले जलस्रोतों के द्वारा ही उत्तराखण्ड हिमालय के निवासियों की जलापूर्ति होती आई है. जनसंख्या की वृद्धि तथा समूचे क्षेत्र में अन्धाधुंध विकास की योजनाओं के कारण भी स्वतः स्फूर्त होने वाले हिमालय के ये प्राकृतिक जलस्रोत सूखते जा रहे हैं तथा भूगर्भीय जलस्तर में भी गिरावट आ रही है. पर्यावरण सम्बन्धी इसी पारिस्थितिकी ...
जागर, आस्था और सांस्कृतिक पहचान की परंपरा

जागर, आस्था और सांस्कृतिक पहचान की परंपरा

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—18 प्रकाश उप्रेती आज बात बुबू (दादा) और हुडुक की. पहाड़ की आस्था जड़- चेतन दोनों में होती है . बुबू भी दोनों में विश्वास करते थे. बुबू 'जागेरी' (जागरी), 'मड़-मसाण', 'छाव' पूजते थे और किसान आदमी थे. उनके रहते घर में एक जोड़ी भाबेरी बल्द होते ही थे. खेती और पूजा उनकी आजीविका का साधन था. उनका व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था. तकरीबन 5 फुट 8 इंच का कद, ललाट पर चंदन, कानों में सोने के कुंडल, हाथ में चांदी के कड़े, सर पर सफेद टोपी जिसमें एक फूल, बदन पर कुर्ता- भोटु और धोती, हाथ में लाठी जिसमें ऊपर की तरफ एक छोटा सा घुँघरू रहता व नीचे लोहे का 'सम'(लोहे की नुकीली चीज) और आवाज इतनी कड़क की गाँव गूँजता था. इलाके भर में उनको सब जानते थे. जब भी जागेरी लगाने जाते थे तो कंधे पर एक झोला होता था जिसमें हुडुक, लाल वाला तौलिया, मुरली (बाँसुरी), 'थकुल बजेणी आंटु' (थाली बजाने वाल...
पुरखे निहार रहे मौन, गौं जाने के लिए तैयार है कौन?

पुरखे निहार रहे मौन, गौं जाने के लिए तैयार है कौन?

संस्मरण
ललित फुलारा सुबह-सुबह एक तस्वीर ने मुझे स्मृतियों में धकेल दिया. मन भर आया, तो सोशल मीडिया पर त्वरित भावनाओं को उढ़ेल दिया. ‘हिमॉंतर’ की नज़र पढ़ी, तो विस्तार में लिखने का आग्रह हुआ. पूरा संस्मरण ही एक तस्वीर से शुरू हुआ और विमर्श के केंद्र में भी तस्वीर ही रही. तस्वीर के बहाने ही गौं (गांव), होम स्टे और सड़क समेत कई मुद्दों पर टिप्पणियां हुई. कुसम जोशी जी और रतन सिंह असवाल जी ने सक्रियता दिखाते हुए, कई नई चीजों की तरफ ध्यान खींचा. ज्ञान पंत जी की कुमाऊंनी क्षणिका दर्ज शब्दों पर एकदम सटीक बैठी. बाकी, अन्य साथियों ने सराहा और गौं, पहाड़ और कुड़ी की बातचीत में अपने चंद सेकेंड खपाए. सभी का आभार. तस्वीर भेजने के लिए मोहन फुलारा जी का दिल से शुक्रिया.....!!!! प्रकाशित करने के लिए ‘हिमॉंतर’ को ढेरों प्यार. जिस तस्वीर को देखकर मन भर आया वो मेरी कुड़ी (मकान) है. तस्वीर आपको दिख ही रही होगी...
‘नाई’ और ‘तामी’ का पहाड़

‘नाई’ और ‘तामी’ का पहाड़

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—13 प्रकाश उप्रेती ये हैं- 'नाई' और 'तामी'. परिष्कृत बोलने वाले बड़े को 'नाली' कहते हैं. ईजा और गांव के निजी तथा सामाजिक जीवन में इनकी बड़ी भूमिका है. नाई और तामी दोनों पीतल और तांबे के बने होते हैं. गांव भर में ये अनाज मापक यंत्र का काम करते हैं. घर या गांव में कोई अनाज मापना हो तो नाई और तामी से ही मापा जाता था. हमारे यहां तो जमीन भी नाई के हिसाब से होती है. लोग यही पूछते हैं- अरे कतू नाई जमीन छु तूमेर...बुबू आठ नाई छु. मेरे गांव में तो 8 से 12- 13 नाई जमीन ही लोगों के पास है. नाई घरेलू अर्थव्यवस्था का केंद्रीय मापक था. आज की विधि के अनुसार एक नाई को दो किलो और एक तामी को आधा किलो माना जाता है. नाई का नियम भी होता था कि उसे 'छलछलान' (एकदम ऊपर तक) भरना है. कम नाई भरना अपशकुन माना जाता था. गांव में शादी से लेकर जागरी तक में आटा, चावल , दाल सब ना...
ये हमारा इस्कूल

ये हमारा इस्कूल

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—10 प्रकाश उप्रेती ये हमारा इस्कूल- 'राजकीय प्राथमिक पाठशाला बिनोली स्टेट' है. मौसम के हिसाब से हमारे इस्कूल का समय तय होता था. जाड़ों में 10 से 3 बजे तक चलता था और गर्मियों में 7 से 1 बजे तक. एक ही मासाब थे जिनके भरोसे पूरा इस्कूल चलता था. कभी वो बीमार, निमंत्रण, ब्याह- बरेती, हौ बहाण, घा- पात ल्याण के लिए जाते तो इस्कूल का समय बदल जाता था. मासाब कंधे में लाठी और उसी पर एक झोला लटकाए आते थे. हम उनको दूर से देखकर ही मैदान में एक-एक हाथ का गैप लेकर लाइन बना लेते और खुद से ही प्रार्थना शुरू कर देते थे. इस्कूल में पाँच साल पूरा होने पर ही दाखिला मिलता था लेकिन ईजा हमें तीन- चार साल से ही भेज देतीं थीं. पढ़ने के लिए नहीं बल्कि 'घर पन कल- बिल नि होल कबे' (मतलब घर पर हल्ला- गुल्ला नहीं होगा) भेज देती थीं. हर किसी की दीदी या भाई इस्कूल में पढ़ ही रहे होते थ...
रामलीला पहाड़ की

रामलीला पहाड़ की

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—6 रेखा उप्रेती रंगमंच की दुनिया से पहला परिचय रामलीला के माध्यम से हुआ. हमारे गाँव ‘माला’ की रामलीला बहुत प्रसिद्ध थी उस इलाके में. अश्विन माह में जब धान कट जाते, पराव के गट्ठर महिलाओं के सिर पर लद कर ‘लुटौं’ में चढ़ बैठते तो खाली खेतों पर रंगमंच खड़ा हो जाता. उससे कुछ दिन पहले ही रामलीला की तालीम शुरू हो चुकी होती. देविथान में एक छोटी-सी रंगशाला जमती. सोमेश्वर से उस्ताद जी हारमोनियम लेकर आते और गीतों का रियाज़ चलता. सभी भूमिकाएँ पुरुष ही निभाते… डील-डौल के साथ-साथ अच्छा गाने की प्रतिभा तय करती कि कौन किसका ‘पार्ट खेलेगा’. छोटी छोटी लडकियाँ सिर्फ सखियों की भूमिका निभातीं. मेरी दीदियाँ अपने-अपने समय में कभी राधा, कभी कृष्ण, कभी गोपी बनकर रामलीला के पूर्वरंग का सक्रिय हिस्सा बन चुकी थीं. मैं सिर्फ दर्शक की भूमिका में रही. पूर्वरंग के अलावा दो अन्य स्थलों पर स...
कब लौटेगा पाई में लूण…

कब लौटेगा पाई में लूण…

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—3 प्रकाश उप्रेती आज बात- ‘पाई’ की. पहाड़ के हर घर की शान ‘पाई’ होती थी. पाई के बिना खाना बनने वाले गोठ की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. पाई दरअसल लकड़ी की बनी वह चीज थी जिसमें पिसा हुआ लूण और चटनी रखते थे. मोटी लकड़ी को तराश कर उसको एक या दो खाँचों का बनाया जाता था. इन खाँचों में ही लूण और चटनी रखी जाती थी. इस पूरे ढाँचे को बोला जाता था-पाई. ईजा हमेशा पाई में लूण और चटनी पीसकर रख देती थीं. हमारे घर में एक बड़ी और दो छोटी पाई थीं. छोटी पाई पर हम बच्चों का अधिकार होता था. हम अपनी-अपनी पाई को छुपाकर रख देते थे. जो बडी पाई थी वह जूठी न हो इसलिए ईजा हमारी पाई में चटनी और नमक अलग से रख देती थीं. ईजा कहती थीं- "ये ले आपणी पाई हां धर ले" (अपनी पाई में (नमक, चटनी) रख ले). हम बड़ी उत्सुकता से रखकर पाई को फिर गोठ में कहीं छुपा देते थे ताकि कोई और न खा ले. ई...
सुरक्षा कवच के रूप में द्वार लगाई जाती है कांटिली झांड़ी

सुरक्षा कवच के रूप में द्वार लगाई जाती है कांटिली झांड़ी

उत्तराखंड हलचल, धर्मस्थल, साहित्‍य-संस्कृति
आस्था का अनोख़ा अंदाज  - दिनेश रावत देवलोक वासिनी दैदीप्यमान शक्तियों के दैवत्व से दीप्तिमान देवभूमि उत्तराखंड आदिकाल से ही धार्मिक, आध्यात्मिक, वैदिक एवं लौकिक विशष्टताओं के चलते सुविख्यात रही है। पर्व, त्यौहार, उत्सव, अनुष्ठान, मेले, थौलों की समृद्ध परम्पराओं को संजोय इस हिमालयी क्षेत्र में होने वाले धार्मिक, अनुष्ठान एवं लौकिक आयोजनों में वैदिक एवं लौकिक संस्कृति की जो साझी तस्वीर देखने को मिलती है वह अनायास ही आस्था व आकर्षण का केन्द्र बन जाती है। संबंधित लोक का वैशिष्टय है कि इस क्षेत्र में होने वाले तमाम आयोजनों में लोकवासियों तथा लोकदेवताओं के मध्य सहज संवाद, गीत—संगीत व नृत्य के कई नयनाभिराम दृश्य सहजता से सुलभ हो जाते हैं। श्रावण मास में मानो समूचा लोक शिवमय हो जाता है। श्रावण मास में जब लोक के ये देवी-देवता कैलाश प्रस्थान को तैयार होते हैं तो क्षेत्रवासी खासे चिंतित व भयभी...