संस्मरण

ये हमारा इस्कूल

ये हमारा इस्कूल

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—10

  • प्रकाश उप्रेती

ये हमारा इस्कूल- ‘राजकीय प्राथमिक पाठशाला बिनोली स्टेट’ है. मौसम के हिसाब से हमारे इस्कूल का समय तय होता था. जाड़ों में 10 से 3 बजे तक चलता था और गर्मियों में 7 से 1 बजे तक. एक ही मासाब थे जिनके भरोसे पूरा इस्कूल चलता था. कभी वो बीमार, निमंत्रण, ब्याह- बरेती, हौ बहाण, घा- पात ल्याण के लिए जाते तो इस्कूल का समय बदल जाता था. मासाब कंधे में लाठी और उसी पर एक झोला लटकाए आते थे. हम उनको दूर से देखकर ही मैदान में एक-एक हाथ का गैप लेकर लाइन बना लेते और खुद से ही प्रार्थना शुरू कर देते थे.

इस्कूल में पाँच साल पूरा होने पर ही दाखिला मिलता था लेकिन ईजा हमें तीन- चार साल से ही भेज देतीं थीं. पढ़ने के लिए नहीं बल्कि ‘घर पन कल- बिल नि होल कबे’ (मतलब घर पर हल्ला- गुल्ला नहीं होगा) भेज देती थीं. हर किसी की दीदी या भाई इस्कूल में पढ़ ही रहे होते थे तो उनका हाथ पकड़कर भुल्ली/भुल्ला भी चल देती थी/था….

मासाब प्रार्थना, पी.टी. के बाद सबको एक साथ ग्राउंड में बैठा देते थे. बैठने के लिए हर कोई अपने घर से बोरा लाता था जिसे मासाब ‘टाट पट्टी’ कहते थे. हमको लगता था कि यह बोरे का अंग्रेजी नाम है.  

मासाब प्रार्थना, पी.टी. के बाद सबको एक साथ ग्राउंड में बैठा देते थे. बैठने के लिए हर कोई अपने घर से बोरा लाता था जिसे मासाब ‘टाट पट्टी’ कहते थे. हमको लगता था कि यह बोरे का अंग्रेजी नाम है. बाद के दिनों में सरकारी चटाई आ गई लेकिन वह भी सिर्फ चौथी और पांचवीं कक्षा को मिलती थी बाकी वही बोरा. पहली से लेकर पांचवीं कक्षा तक को ग्राउंड में बिठाकर मासाब लकड़ी की कुर्सी में ग्राउंड के बीचों- बीच लगे पेड़ से टेक लगाकर बैठ जाते थे. उनके आगे एक टेबल, उस पर बड़ा-सा रजिस्टर, पतली छड़ी और चॉक के टुकड़े होते थे. रजिस्टर छोड़ बाकी का इस्तेमाल वो समय-असमय करते रहते थे.

जब पहले दर्जे में गया तो ईजा सुबह- सुबह ‘पाटी’ को लीप कर, दवात में ‘कमेटु’ ( मिट्टी का घोल) और बांस की कलम तैयार कर देती थीं. पाटी को झोले में और दवात को हाथ में लिए, ख़ाकी पैंट व आसमानी शर्ट पहनकर निकल जाते थे.

हर कक्षा को अलग-अलग काम मिल जाता था. जैसे- पहली कक्षा के बच्चे ‘पाटी’ (तख्ती) में अ, आ लिखेंगे, दूसरी कक्षा के खड़े होकर क से क़बूतर, ख से खरगोश पढ़ेंगे, तीसरी कक्षा वाले, 1 से 100 तक सीधी और उल्टी गिनती खड़े होकर पढ़ेंगे, चौथी वाले 2 से 20 तक पहाड़े याद करेंगे और पांचवीं दर्जे वाले कोई पाठ पढ़ेंगे. अब बारी थी उन छोटे बच्चों की जो दाखिले के बिना ही इस्कूल में टहल रहे होते थे. उनको देखकर मासाब बस इतना ही बोलते थे- अरे रमेश जा अपने भाई की नाक साफ कर, अरे गीता जा अपनी बहन की नाक साफ कर…

पहला दर्जा- जब पहले दर्जे में गया तो ईजा सुबह- सुबह ‘पाटी’ को लीप कर, दवात में ‘कमेटु’ ( मिट्टी का घोल) और बांस की कलम तैयार कर देती थीं. पाटी को झोले में और दवात को हाथ में लिए, ख़ाकी पैंट व आसमानी शर्ट पहनकर निकल जाते थे. इस्कूल में दिन भर कपड़े गंदे करके घर लौट आते थे.

दूसरा दर्जा-  ईजा मुँह धोती और एक थैले में घर में पड़ी कोई पुरानी कॉपी, कलम, होल्डर और स्याही की दवात डाल देती थीं. वही चिरपरिचित पोशाक होती थी. फिर हाथ पर थैला सर पर बैठने के लिए बोरा लेकर निकल जाते थे.

ईजा जाड़ों में इतवार की सुबह- सुबह धूप आने से पहले गर्म पानी से नहलाकर मुँह पर मिर्च लगने वाले सरसों का तेल मलकर कहतीं थीं -जा पार भ्यो पन घाम आ गो, घाम ले तापी लिए और लकड़ ले चाहे लिए.

तीसरे दर्जे में आते -आते हम मासाब के लिए ‘नहो’ से पानी  और चाय के लिए लकड़ी लाने के काम में लग गए थे. चाय वो लड़कियों से ही बनवाते थे. तीन बार कहते थे हाथ धोकर बनाना. चौथी और पांचवीं में थोड़ा पढ़ लिया तो इस मल्ली इस्कूल से तल्ली, बड़े बच्चों के इस्कूल में जाने का उत्साह बढ़ गया.

जिस ईजा ने हमें इस्कूल पढ़ाया, उन्हें कभी- कभी हम ही पढ़ाने लगते हैं. ईजा चुप- चाप सुनती हैं और कभी- कभी मुस्कुरा देती हैं. इस्कूल और ईजा विकास और भविष्य की तेजी में कहीं पीछे, बहुत दूर छूट गए हैं… 

नहाना इतवार से इतवार ही होता था. तभी इस्कूल के कपड़े धुले जाते थे. ईजा जाड़ों में इतवार की सुबह- सुबह धूप आने से पहले गर्म पानी से नहलाकर मुँह पर मिर्च लगने वाले सरसों का तेल मलकर कहतीं थीं -जा पार भ्यो पन घाम आ गो, घाम ले तापी लिए और लकड़ ले चाहे लिए. बस हम चल देते थे . कभी- कभी गाय-बैल भी साथ ले लेते थे.

अब इस्कूल भी 7- 8 बच्चों के साथ बंद होने के दिन गिन रहा है. जिस ईजा ने हमें इस्कूल पढ़ाया, उन्हें कभी- कभी हम ही पढ़ाने लगते हैं. ईजा चुप- चाप सुनती हैं और कभी- कभी मुस्कुरा देती हैं. इस्कूल और ईजा विकास और भविष्य की तेजी में कहीं पीछे, बहुत दूर छूट गए हैं…

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं.)

Share this:
About Author

Himantar

हिमालय की धरोहर को समेटने का लघु प्रयास

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *