संस्मरण

रामलीला पहाड़ की

रामलीला पहाड़ की

‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—6

  • रेखा उप्रेती

रंगमंच की दुनिया से पहला परिचय रामलीला के माध्यम से हुआ. हमारे गाँव ‘माला’ की रामलीला बहुत प्रसिद्ध थी उस इलाके में. अश्विन माह में जब धान कट जाते, पराव के गट्ठर महिलाओं के सिर पर लद कर ‘लुटौं’ में चढ़ बैठते तो खाली खेतों पर रंगमंच खड़ा हो जाता.

उससे कुछ दिन पहले ही रामलीला की तालीम शुरू हो चुकी होती. देविथान में एक छोटी-सी रंगशाला जमती. सोमेश्वर से उस्ताद जी हारमोनियम लेकर आते और गीतों का रियाज़ चलता. सभी भूमिकाएँ पुरुष ही निभाते… डील-डौल के साथ-साथ अच्छा गाने की प्रतिभा तय करती कि कौन किसका ‘पार्ट खेलेगा’. छोटी छोटी लडकियाँ सिर्फ सखियों की भूमिका निभातीं. मेरी दीदियाँ अपने-अपने समय में कभी राधा, कभी कृष्ण, कभी गोपी बनकर रामलीला के पूर्वरंग का सक्रिय हिस्सा बन चुकी थीं. मैं सिर्फ दर्शक की भूमिका में रही. पूर्वरंग के अलावा दो अन्य स्थलों पर सखियों की भूमिका रहती, वनवास में सीता से उसका परिचय पूछती वन-देवियाँ जो ठुमक-ठुमक कर गाती “अरी तुम कौन हो हो री…” फिर रावण के दरवार में “लंका के राजा महाराजा…” का विरुद गातीं…

हम यथासंभव मंच के ठीक सामने आगे की ज़मीन पर अपनी दरी या चटाई बिछा देते और उतने हिस्से पर हमारा मालिकाना हक़ हो जाता. माँ, चाचियाँ, दीदियाँ वी.आई.पी. की तरह बाद में आकर विराज लेती. हमारे लिए रोटी के भीतर सूखी सब्जी लपेटकर लाई जाती और हम ठाठ से वहीं पर ‘डिनर’ कर लेते.

तो इस तालीम को देखने भी जाते थे हम… सबसे पहले ‘सखियों’ को ही सिखाया जाता. ‘‘जय गणेश गण नाथ पियारे..” से शुरू होकर “कन्हय्या तेरी मुरली बैरन भई..” “मोहे दे दे दधि का दान गुजरिया..”, और “ले ले बिहारी नंदलाला दहिया मोरा ले ले” आदि पर ठुमकती-गाती सखियों के बाद अन्य पात्रों की तालीम शुरू होती तब हमें घर जाने को कह दिया जाता … हम बेमन से घर लौट आते और बेसब्री से प्रतीक्षा करने की कब नवरात्रियाँ शुरू होगी और कब रामलीला देखने को मिलेगी…

देवीथान, जिसके पीछे बनी धर्मशाला में रामलीला की ता​मील चलती.

रामलीला शुरू होती तो मुझ जैसी छोटी बच्चियों को एक बड़ी भूमिका मिलती. घर के बाकी  सदस्य तो काम-धंधा निबटा कर ही जा सकते थे. हमें दिन ढलने से पहले ही दरी, चटाई, बोरी आदि देकर भेज दिया जाता कि जाकर जगह घेर लेना. हम यथासंभव मंच के ठीक सामने आगे की ज़मीन पर अपनी दरी या चटाई बिछा देते और उतने हिस्से पर हमारा मालिकाना हक़ हो जाता. माँ, चाचियाँ, दीदियाँ वी.आई.पी. की तरह बाद में आकर विराज लेती. हमारे लिए रोटी के भीतर सूखी सब्जी लपेटकर लाई जाती और हम ठाठ से वहीं पर ‘डिनर’ कर लेते.

सीता स्वयंवर के दिन तो पूरी भीड़ उमड़ी रहती देखने को.. उस दिन आसपास जनक का बाज़ार भी सजता. मंच पर जनक दरबार में “द्वीप-द्वीप के भूपति..” आए रहते. विचित्र वेशभूषा में सजे हास्य के आलंबन भी… “ओ जनक राजा, तुम सीता मिकी दिदियो हो..” गाने वाला स्थानीय दूल्हा भी होता और “मी डोटी डोटीयाल छों मां, मी डोटी को राजा हो” गाकर अपना परिचय देने वाला नेपाली राजा भी.

स्टेज पर पर्दा उठता और एक अद्भुत अनुभव में खो जाते हम… हर साल वही अभिनेता, वही दृश्य, वही गीत, वही संवाद… इतने जाने-पहचाने कि शब्दश: याद होते हर दर्शक को… पर जादू ऐसा कि “नयो नयो लागत ज्यों ज्यों निहारिए” की तरह सब उसमें डूब जाते. सीता स्वयंवर के दिन तो पूरी भीड़ उमड़ी रहती देखने को.. उस दिन आसपास जनक का बाज़ार भी सजता. मंच पर जनक दरबार में “द्वीप-द्वीप के भूपति..” आए रहते. विचित्र वेशभूषा में सजे हास्य के आलंबन भी… “ओ जनक राजा, तुम सीता मिकी दिदियो हो..” गाने वाला स्थानीय दूल्हा भी होता और “मी डोटी डोटीयाल छों मां, मी डोटी को राजा हो” गाकर अपना परिचय देने वाला नेपाली राजा भी. धनुष हर साल राम द्वारा ही तोड़ा जाता पर ज्यों ही वे धनुष तोड़ने के लिए उठते सीता के साथ-साथ हमारा दिल भी आशंकाओं से बैठ जाता…

माला के खेत. जहां रामलीला का मंच बनात था।

बनवास वाले दिन तो आँखें भीगना तय ही होता. “..धरूँ अब वेश मुनियों का..” गाते हुए जब राम अपना मुकुट उतारते तो सबकी आँखों में सैलाब उतर आता… वन में पानी खोजते हुए लक्ष्मण का गीत- “…उलट गयी तकदीर, सिया प्यासी है” सुनकर तो पाषण-हृदय भी पिघल उठते…

बचपन से कुमाऊँ की संगीतमय रामलीला देखने के बाद ‘देसी रामलीला’ कभी रास नहीं आयी. जब सुभाष मौहल्ला की कुमाउनी बसावट में रहने आए तो वह टूटा हुआ तंतु फिर जुड़ गया. हाँ, शहरी परिवेश और तामझाम का फर्क होने के बावजूद इस रामलीला की भी अनेक सुखद स्मृतियाँ हैं.

शरद की शांत शीतल रातें होतीं तब.. स्वच्छ आकाश में असंख्य तारे टिमटिमाते… दर्शक-दीर्घा उसी रोशनी में अपने होने का आभास देती. मंच के दोनों तरफ़ जगमगाते पैट्रोमैक्स के प्रकाश में आधी रात तक रामलीला चलती. फिर हम अपना बोरिया बिस्तर समेटकर घर की ओर चल देते. ज्युनाली रातों के दूधिया प्रकाश में पगडंडी तो साफ़ दिखती पर हवा से हिलते पेड़ों की श्यामल परछाई हमें भयभीत करती. झुण्ड के साथ चलते हुए हमारी कोशिश रहती कि हम बीचों बीच चलें…  ‘आगे चलने वाले को सबसे पहले भूत दिखाई देगा और पीछे चलने वाले को पकड़ कर गायब ही कर देगा’ हम सोचते .

कुमाऊँनी रामलीला का एक दृश्य.

दिल्ली आने के बाद बहुत समय तक रामलीला से नाता टूटा रहा. बचपन से कुमाऊँ की संगीतमय रामलीला देखने के बाद ‘देसी रामलीला’ कभी रास नहीं आयी. जब सुभाष मौहल्ला की कुमाउनी बसावट में रहने आए तो वह टूटा हुआ तंतु फिर जुड़ गया. हाँ, शहरी परिवेश और तामझाम का फर्क होने के बावजूद इस रामलीला की भी अनेक सुखद स्मृतियाँ हैं. राम की भूमिका में नवीन (खुल्वे) भाईसाहब, लक्ष्मण बनते अतुल जोशी, सीता के रूप में प्रमोद पांडेय, दशरथ का पार्ट करते महेश पाण्डेय जी … सभी का अभिनय और मधुर आवाज़ वही जादू जगाते… और हम फिर से जी लेते अपने पहाड़ की रामलीला…

(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ कॉलेज के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं) 

Share this:
About Author

Himantar

हिमालय की धरोहर को समेटने का लघु प्रयास

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *