पुरखे निहार रहे मौन, गौं जाने के लिए तैयार है कौन?

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  • ललित फुलारा

सुबह-सुबह एक तस्वीर ने मुझे स्मृतियों में धकेल दिया. मन भर आया, तो सोशल मीडिया पर त्वरित भावनाओं को उढ़ेल दिया. ‘हिमॉंतर’ की नज़र पढ़ी, तो विस्तार में लिखने का आग्रह हुआ. पूरा संस्मरण ही एक तस्वीर से शुरू हुआ और विमर्श के केंद्र में भी तस्वीर ही रही. तस्वीर के बहाने ही गौं (गांव), होम स्टे और सड़क समेत कई मुद्दों पर टिप्पणियां हुई. कुसम जोशी जी और रतन सिंह असवाल जी ने सक्रियता दिखाते हुए, कई नई चीजों की तरफ ध्यान खींचा. ज्ञान पंत जी की कुमाऊंनी क्षणिका दर्ज शब्दों पर एकदम सटीक बैठी. बाकी, अन्य साथियों ने सराहा और गौं, पहाड़ और कुड़ी की बातचीत में अपने चंद सेकेंड खपाए. सभी का आभार. तस्वीर भेजने के लिए मोहन फुलारा जी का दिल से शुक्रिया…..!!!! प्रकाशित करने के लिए ‘हिमॉंतर’ को ढेरों प्यार.

जिस तस्वीर को देखकर मन भर आया वो मेरी कुड़ी (मकान) है. तस्वीर आपको दिख ही रही होगी.

धैली, जिसके दरवाज़े मटमैले हो गए हैं, उसकी सीढ़ियों पर कितनी बार मैं लोटपोट हुआ, गिरा और उठा. चाक में लेटे-लेटे करवट बदली. ज्येष्ठ (जेठ) महीने में नीचे के गोठ में ईजा के हाथों से बना खाना खाते-खाते बड़ा हुआ. अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन माह में मलखन में चूल्हें के पास बैठकर मडुवे की रोटी और दही खाई, पटौर (दीवार के भीतर बनी खिड़की) से चुरा-चुराकर घी का लुत्फ उठाया.

पहला मकान बड़े बूबू रामदत्त और दूसरा लोकमणि की स्मृतियों का केंद्र है. यहां से पुरखे हमको मौन निहार रहे हैं. अदृश्य रूप में मौन निहारना ही उनकी अवस्था है, क्योंकि यादें ही बची हैं, काया तो कब-की राख हो गई. बाएं ओर के आखिरी कोने वाली खिड़की, और उसके बाहर के झाड़-झंखाड़ वाले चौथर में मेरा बचपन बिता.

दूसरी तरफ की धैली, जिसके दरवाज़े मटमैले हो गए हैं, उसकी सीढ़ियों पर कितनी बार मैं लोटपोट हुआ, गिरा और उठा. चाक में लेटे-लेटे करवट बदली. ज्येष्ठ (जेठ) महीने में नीचे के गोठ में ईजा के हाथों से बना खाना खाते-खाते बड़ा हुआ. अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन माह में मलखन में चूल्हें के पास बैठकर मडुवे की रोटी और दही खाई, पटौर (दीवार के भीतर बनी खिड़की) से चुरा-चुराकर घी का लुत्फ उठाया. पहाड़ों में गर्मी में खाना नीचे के गोठ में बनाया जाता है और सर्दियों में ऊपर चाक के भीतर वाले खन में बनाया जाता है. जोड़ों में तुषारपात की वजह से अंदर के गोठ में ही चूल्हा लगता है. मई और जून में ही नीचे के गोठ में खाना बनता है. बाकी अगस्त-सितंबर के महीने में तौरई, लौकी, ककड़ी और गद्दू एवं चिचन समेत कई सब्जियों की बेले बड़ी हो जाती हैं और चौथर के सामने वाले पटो में सब्जियों एवं बेलों की वजह से डरावना-सा दृश्य बन जाता है. इसी वजह से नीचे के गोठ की जगह, इस वक्त भी मलखन में ही खाना बनाया जाता है.

मेरी कुड़ी प्रकृति के गोद से मुझे वैसे ही निहार रही है, जैसे मैं उसे. द्वाराहट तक लगभग सब आबाद है, और उससे आगे धीरे-धीरे बढ़ते हुए आबादी की रौनक फीकी होती चलती है. पटास से खड़ी चढ़ाई चढ़ने के बाद आठ-दस किलोमीटर की दूरी पर जंगल में जीप के लिए सड़क नसीब होती है.

तस्वीर जो आपको दिख रही है इसने पूरा बचपन ही आंखों के आगे जीवंत कर दिया. यह तस्वीर अल्मोड़ा जिले के पटास गांव स्थिति मेरे पुस्तैनी मकान की है. यह मकान अब सूना है. इसका सुनापन दिल के भीतर खलता है. खुशी इतनी-सी है कि अभी खंडहर होते-होते बचा है. जैसे ही मुझे व्हॉट्सएप पर यह तस्वीर मिली मैंने झट से घर में ईजा और बाज्यू को दिखाई, वो एकटक देखते रहे, फिर आपस में ही इसके उजाड़ होने को लेकर बहस करने लगे.

मुझे लगता है कि ऐसी बहसें हर घर में होती होंगी, ‘जाओ फिर घर को आबाद करो. क्या कमी है वहां? ‘ ये थोड़ी देर का आवेग और बहसें होती हैं, और उसके बाद शांति छा जाती है. वैसे ही बहसें जैसे मंचों से पहाड़ का पलायन रोकने, और पहाड़ को दिशा-दशा देने वाली होती हैं. खैर!! मेरी कुड़ी प्रकृति के गोद से मुझे वैसे ही निहार रही है, जैसे मैं उसे. द्वाराहट तक लगभग सब आबाद है, और उससे आगे धीरे-धीरे बढ़ते हुए आबादी की रौनक फीकी होती चलती है. पटास से खड़ी चढ़ाई चढ़ने के बाद आठ-दस किलोमीटर की दूरी पर जंगल में जीप के लिए सड़क नसीब होती है.

वहां तक सामान लेकर पहुंचते-पहुंचते आदमी सात-आठ बार विश्राम करता है, और सड़क किनारे पहुंचकर आगे बढ़ने से पहले आधा घंटा सुस्ताता है. सड़क को लेकर लंबा प्रयास दिल्ली से हो रहा है, क्योंकि पूरा गांव दिल्ली में सालों से सिमट चुका है. गांव को तल्ला और मल्ला पटास में एक पहाड़ी बांटती है जिसका नाम ढमधारैढेह है. इसी चोटी पर स्कूल है, जहां मैंने पांचवीं तक पढ़ा. बचपन में स्थिति कुछ और थी, तब गांव खुशहाल था और अच्छी खासी खेती होती थी. दिल्ली में बसे लोग भी असोज में काम करने गांवों की तरफ आते और उसके बाद फिर बड़ को निकल पड़ते.

पर अब की स्थिति यह है कि मल्ला पटास में कुछ ही परिवार गांव में बचे हैं. मलबाखई में रावत लोग रहते हैं और तलबाखई में फुलारा. तल्ला पटास में ज्यादातर नेगी रहते हैं और एक-दो परिवार पाठक. तल्ला पटास वाले अपने गौं से चिपके हुए हैं, प्रकृति के बीच संघर्ष कर रहे हैं, मल्ला पटास की आबादी दिल्ली में सिमट चुकी है. हर महीने दिल्ली में गांव की दशा और दिशा को लेकर बैठक होती है, और उसमें सबसे पहला मुद्दा सड़क का ही उठता है. गौं के सयानों का कहना होता है कि सड़क गांव तक आए, तो घर-बड़ आना जाना लगे रहेगा. कुछ किया जाएगा. वापस लौटा जाएगा. यह कहां तक सच है, मुझे नहीं पता, पर सुनने के बाद मैं खुद को इस बात की तसल्ली देता हूं कि चलो जल्द बन जाए, वापस लौटाने वाली सड़क. पर वो सड़क भी फाइलों में अटकी हुई है. कहां तक पहुंची पता नहीं, पर सालों से उसका इंतजार है. विधायक महेश नेगी से इस विषय पर दुर्गा दा, विजय और मोहन दा समेत गांव वाले लगातार संपर्क में रहते हैं. विधायक जी की कितनी रुचि है और कहां तक प्रगति हुई, इस बात की मुझे जानकारी नहीं. लेकिन बिच-बिच में सुनते रहता हूं कि इसने टांग अड़ा दी, उसने टांग अड़ा दी. अभी कुछ दिन पहले एक वीडियो वायरल हो रहा था जिसमें लॉकडाउन के दौरान पहाड़ों की तरफ पलायन किए लोगों ने खुद ही अपने गांव तक सड़क बना डाली. उसने देखकर मैं अपने गांव की रुपरेखा तय कर रहा था पर मुझे लगा बहुत मुश्किल है- दशरथ मांझी बनना पड़ेगा!

मेरी आंखें जहां टिकी हुई हैं और दिल जिसे देखकर भरा हुआ है, वहां तल्लाबाखली में सब फुलारा हैं . उनके यहां बसने की कहानी से पहले ज्ञान पंत जी की ये लाइनें जरूर पढ़ें.

गौं में
गयूं
होटल में
रयूं
एक कूँची बल..
बखिया कैं
काव’ कि
नजर लागी!
कभै
घर जाणैकि
सोची ले त
नानतिन
होटल सर्च करनी.

हरिबगड़ बीच गाड़ (नदी) किनारे था. कहते हैं जब उन्होंने वहां मकान बनाया, तो रातें हराम रहने लगी. भिसौड़ परेशान करने लगे. सामने श्मशान था और वो वहां से थोड़ा-सा आगे खिसकते हुए तालखरीक की तरफ आ गये. खानर अभी भी शेष हैं. एक-दो पत्थर इसकी गवाही देते हैं.

घर वाले बताते हैं कि पुरखे बाबन से पटास विस्थापित हुए. बाबन से भैंस चराने के लिए इधर की तरफ बढ़े और जंगल देखकर यहीं रहने की ठान ली. खूब सारी जगह, हरी-भरी घास और खाली स्थान. गाय, भैसों और बकरियों के लिए घास की कमी न हो, ये ही मन में रहा होगा. बाबन से एक भाई, पटास का ही होकर रह गया. यह दो -तीन सौ साल से ज्यादा पुरानी बात रही होगी.

लॉकडाउन से पहले बीमार होकर वो दिल्ली आ गईं. उम्र भी बहुत हो गई ठहरी. कमर पड़ गई. ठुलईज जैसा दिलेर मैंने कोई नहीं देखा- जो कहती गौं में ही रहूंगी, यहीं मरूंगी अपन गौरु और भैसों के साथ….

पहले वो हरिबगड़ बसे. उसके बाद तालखरीख आए और फिर यह जगह सबसे ज्यादा मुफीद रही. हरिबगड़ बीच गाड़ (नदी) किनारे था. कहते हैं जब उन्होंने वहां मकान बनाया, तो रातें हराम रहने लगी. भिसौड़ परेशान करने लगे. सामने श्मशान था और वो वहां से थोड़ा-सा आगे खिसकते हुए तालखरीक की तरफ आ गये. खानर अभी भी शेष हैं. एक-दो पत्थर इसकी गवाही देते हैं. यह भी कहते हैं बाबन से दूसरा भाई अपने भाई को लौटा ले जाने के लिए ढोल-नगाड़ और निसाण लेकर आया, और जब भाई नहीं माना तो उल्टा ढोलक लेकर गया. पुरखों के पटास बसने के निर्णय में घास और भैंसों की बेहद भूमिका रही. भैसों के लिए घास की कमी न हो, इसलिए लिए वो पटास बसे.

गौं में घास की अब कोई कमी नहीं है! अभी तक ठुलईज रेवती देवी ने इस कुड़ी को संवार रखा था, लॉकडाउन से पहले बीमार होकर वो दिल्ली आ गईं. उम्र भी बहुत हो गई ठहरी. कमर पड़ गई. ठुलईज जैसा दिलेर मैंने कोई नहीं देखा- जो कहती गौं में ही रहूंगी, यहीं मरूंगी अपन गौरु और भैसों के साथ….

(पत्रकारिता में स्नातकोत्तर ललित फुलारा ‘अमर उजाला’ में चीफ सब एडिटर हैं. दैनिक भास्कर, ज़ी न्यूज, राजस्थान पत्रिका और न्यूज़ 18 समेत कई संस्थानों में काम कर चुके हैं. व्यंग्य के जरिए अपनी बात कहने में माहिर हैं.)

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