आस्था का अनोख़ा अंदाज
– दिनेश रावत
देवलोक वासिनी दैदीप्यमान शक्तियों के दैवत्व से दीप्तिमान देवभूमि उत्तराखंड आदिकाल से ही धार्मिक, आध्यात्मिक, वैदिक एवं लौकिक विशष्टताओं के चलते सुविख्यात रही है। पर्व, त्यौहार, उत्सव, अनुष्ठान, मेले, थौलों की समृद्ध परम्पराओं को संजोय इस हिमालयी क्षेत्र में होने वाले धार्मिक, अनुष्ठान एवं लौकिक आयोजनों में वैदिक एवं लौकिक संस्कृति की जो साझी तस्वीर देखने को मिलती है वह अनायास ही आस्था व आकर्षण का केन्द्र बन जाती है। संबंधित लोक का वैशिष्टय है कि इस क्षेत्र में होने वाले तमाम आयोजनों में लोकवासियों तथा लोकदेवताओं के मध्य सहज संवाद, गीत—संगीत व नृत्य के कई नयनाभिराम दृश्य सहजता से सुलभ हो जाते हैं। श्रावण मास में मानो समूचा लोक शिवमय हो जाता है।
श्रावण मास में जब लोक के ये देवी-देवता कैलाश प्रस्थान को तैयार होते हैं तो क्षेत्रवासी खासे चिंतित व भयभीत हो उठते हैं। उनकी चिंता को समझते हुए देवता उन्हें ‘झिंझिरा’ की टहनियां तोड़ कर देते हैं और अपनी वापसी तक उन्हें घर के मुख्य द्वारों पर लगाये रखने की सलाह देकर सुरक्षा का वचन देते हैं।
जप-तप, पूजा-पाठ, दान-पुण्य के सम्बंधी आयोजनों के चलते श्रावण में हर छोटे-बड़ें देवालय से निकली शंख ध्वनि, घंटा-घड़ियालों की टंकार, लोकवाद्यों के सुमधुर तालों से वातावरण आह्लादित हो उठता है। वेद-पाठियों के श्रीमुख से उच्चारित वैदिक मंत्र तथा लोकगीतों के बोल अद्वितीयक आस्था व आनंद की प्रतीती करवाते हैं। देवात्माओं का अवतरण, जन-समूह के साथ देव-डोलियों का उन्मुक्त देखते ही बनता है। नौ गृह शांति, आदि-व्याधि निवार्णनार्थ शिव मंदिरों में होने वाले विशेष पूजा, वंदन से श्रावण के महत्व एवं महात्मय को सरलता से समझा जा सकता है।
जहां, आराध्य देवों के प्रति आस्था और परम्पराओं के प्रति विश्वास होने के कारण श्रावण मास में घरों में ‘झिंझिड़ा कांटा’ लगाने की है परम्परा
मध्य हिमालय की कंदराओं में निवास करने वाला ग्राम्य समुदाय जब आस्था की नाव पर सवार होकर शिवोपासना के निमित्त होने वाले आयोजनों में व्यस्त व मस्त रहता है, इसी हिमालयी क्षेत्र के एक छोर में अजीब-सा सन्नाटा पसरा रहता है। मंदिरों के कपाट बंद। पूजन, वंदन की परम्परा भी सिर्फ और सिर्फ घर की दीवा-बत्ती तक सिमट जाती है। किसी भी प्रकार की पूजा नहीं। सहसा आभास होता है मानो समूचे लोक ने आस्था के आवरण को उतार कहीं दूर फेंक दिया हो। सरसरे तौर पर देखने से तो यह पूर्णतया नास्तिक प्रतीत होता है किन्तु परम्परा के तह तक जाने से स्पष्ट होता है कि इसके मूल में भी आस्था का महाबिम्ब ही समाहित है। ‘केदार’, ‘हुष्कर’, ‘शुष्कर’, ‘हरदोल’, ‘झुरमल’, ‘नौला’, ‘महाकाली’, ‘बालिचन्न’ व ‘भगवती’ आदि इस क्षेत्र के आराध्य देव हैं। प्रचलित मान्यतानुसार श्रावण में लोक विशेष के ये सभी आराध्य देव अपने देवालयों को छोड़ महीने भर के लिए कैलाश यात्रा पर निकल पड़ते हैं। लोक आराध्य देवों के महीने भर के लिए लोकवासियों को छोड़ कर कैलाश गमन के चलते ही संबंधित लोकवासी खुद को बेसहारा, हताश, निराश एवं असहाय महसूस करते हैं। अपने आराध्य देवों से दूर होने की पीड़ा उन्हें इतनी व्यथीत कर देती है कि वे श्रावण मास को ‘काला महिना’ के रूप में मानने लगते हैं।
लोकास्था का यह नवीन कलेवर देवभूमि उत्तराखंड के कुमाऊं मण्डलान्तर्गत पंचाचूली हिम शिखरों के तलहटी में बसे छिपला केदार के आधिपत्य को स्वीकारने वाले गौरी गंगा के बाईं ओर धारचूला-मुनस्यारी क्षेत्रान्तर्गत प्रचलित है। इस क्षेत्र विशेष में श्रावण की प्रथम तिथि को गौधुली बेला में घरों, गौशालाओं के प्रवेश द्वारों, खिड़कियों, रोशनदानों यानी आवागमन के सभी मार्गों पर एक विशेष प्रकार की कांटिली झांड़ी ‘झिंझिड़ा कांडौ’ लगाने की परम्परा प्रचलित है, जिसके मूल में परिवारिक सुरक्षा एवं पशु-मवेशियों की रक्षा का भाव समाहित है। मान्यता है कि आरम्भिक काल में इस क्षेत्र में राक्षसों का राज हुआ करता था। लोक देवताओं ने ही इस क्षेत्र विशेष में आतंक मचाने वाले राक्षसों का वध करके राक्षसों के आतंक से मुक्त करवाया था। क्षेत्र राक्षसों के आतंक से मुक्त होने के बाद भी उनका भय संबंधित लोक में वर्षों तक विद्यमान रहा। श्रावण आगमन पर पहली बार जब लोक के ये देवी-देवता कैलाश प्रस्थान को तैयार होते हैं तो क्षेत्रवासी खासे चिंतित व भयभीत हो उठते हैं। उनकी चिंता को समझते हुए देवता उन्हें ‘झिंझिरा’ की टहनियां तोड़ कर देते हैं और अपनी वापसी तक उन्हें घर के मुख्य द्वारों पर लगाये रखने की सलाह देकर सुरक्षा का वचन देते हैं। आराध्य देवों के प्रति आस्था और परम्पराओं के प्रति विश्वास होने के कारण श्रावण मास में घरों में ‘झिंझिड़ा कांटा’ लगाने की परम्परा सम्बंधित लोक में सतत् प्रवाहमान बनी हुई है।
देवागमन की खुशी में ‘झोड़ा’ गायन शुरू होता है। संबंधित मंदिर के ‘थामी’ अर्थात पुजारी और ‘बौण्या’ यानी माली अर्थात् जिस व्यक्ति के शरीर में देवता अवतरित होती है, उसके द्वारा समस्त नर-नारियों की मौजूदगी में जयकारों के बीच मंदिरों के कपाट खोले जाते हैं। परम्परागत ढंग से मंदिर के अंदर पूजन—वंदन होता है। मंदिर कपाट खोलने की इस पर्व को ‘बाड़ उगढ़ाई’ कहा जाता है।
कैलाश भ्रमण पर गये देवता भाद्रपद संक्रांति को वापस पहुंचते हैं। इसी दिन लोग घरों से इन कांटों को भी निकाल फेंकते हैं। आराध्य देवों के स्वागत, सत्कार में आस-पास के मंदिरों में समस्त ग्राम्यजन हाथों में धूप, दीप, गंध, अक्षत, पत्र-पुष्प से सुसज्जित थाल, गौ—मूत्र, गौदुग्ध और आस-पास उगे ऋतु फलों यथा- आडू, अखरोट, माल्टा, मौसमी, नारंगी, अनार, दाड़ीम, मक्का, ककड़ी इत्यादि की टोकरियां भर कर पहुंचते हैं। मंदिरों की साफ-सफाई की जाती हैं। गौ—मूत्र, गौदुग्ध छिड़काव के साथ शुद्धिकरण की परम्परा सम्पन्न होती है। देवागमन की खुशी में ‘झोड़ा’ गायन शुरू होता है। संबंधित मंदिर के ‘धामी’ अर्थात पुजारी और ‘बौण्या’ यानी माली अर्थात् जिस व्यक्ति के शरीर में देवता अवतरित होती है, उसके द्वारा समस्त नर-नारियों की मौजूदगी में जयकारों के बीच मंदिरों के कपाट खोले जाते हैं। परम्परागत ढंग से मंदिर के अंदर पूजन—वंदन होता है। मंदिर कपाट खोलने की इस पर्व को ‘बाड़ उगढ़ाई’ कहा जाता है। कपाट खुलते ही लोग मंदिर में प्रवेश कर पूजा कर शीश नमाते हुए आशीष प्राप्त करते हैं। दमाऊ, भंकोरों की धुन तथा झोड़ों के बोल सुन कर देवता भी अवतरित हो जाते हैं। महीने भर से मंदिर में पसरा सन्नाटा भी अचानाक टूट जाता है। देव अवतरण की प्रक्रिया को ‘कांपना’ कहा जाता है। अवतरित देवता कैलाश यात्रा का पूरा वृतांत जनता को सुनाता है। मान्यता है कि यात्रा अवधि में देव व दानवों के मध्य आज भी क्षेत्र की खुशहाली को लेकर एक अलौकिक युद्ध होता है, जिसे ‘जुआ-पासा’ खेलना कहा जाता है। जुआ-पासा हार-जीत का परिणाम ही क्षेत्र की खुशहाली व समृद्धि का आधार बनता है। अवतरित देवता अपने-अपने श्रीमुखों से पूरा वृतांत सुनाते हुए लोकवासियों को जन-मानस, पशु—मवेशी, फसल चक्र, उत्पादन, जंगली जानवरों के प्रकोप से परिचित करवाते हैं। इतना ही नहीं फसलों को किस प्रजाति के जानवरों से अधिक खतरा हो सकता है, उसके प्रति भी आगाह करते हैं।
यात्रा वृतांत पूरा होने के पश्चात ग्राम्यजनों द्वारा लाये गये फलों का भोग देवताओं को लगाया जाता है। शेष फलों को देवता शुभाशीष के रूप में जनता में बांट देते हैं। फलों बांटने का अंदाज भी निराला होता है। समस्त फलों को एक चादर के ऊपर रखते हैं। देवताओं के बौण्या चादर के कौनों को पकड़ कर सभी फलों को एक साथ आकाश की ओर उछाल देते हैं। देवताओं द्वारा उछाले गये फलों को हवा में ही पकड़ने के लिए जन-समुदाय टूट पड़ता है क्योंकि इन्हें अधिक शुभफलदायी एवं मंगलकारी माना गया है। इसके साथ ही महिलाओं द्वारा चांचड़ी शुरू कर दी जाती है, जो देर रात तक चलता रहता है। दशाएं धूमिल होते-होते लोग अपने घरों लौट आते हैं। इस प्रकार से आराध्य देवों की अगुवाई और मंदिरों के कपाट खोले जाने को यह क्रम एक के बाद एक करते हुए सभी मंदिरों के कपाट खोलने के साथ पूर्णता को प्राप्त होता है।
देवताओं द्वारा उछाले गये फलों को हवा में ही पकड़ने के लिए जन-समुदाय टूट पड़ता है क्योंकि इन्हें अधिक शुभफलदायी एवं मंगलकारी माना गया है। इसके साथ ही महिलाओं द्वारा चांचड़ी शुरू कर दी जाती है, जो देर रात तक चलता रहता है। दशाएं धूमिल होते-होते लोग अपने घरों लौट आते हैं।
श्रावण में क्षेत्र विशेष के देवालयों के बंद होने या पूजा न होने का एक पक्ष यह भी हो सकता है कि श्रावण मास में मूलतः शिव पूजा का विद्यान है और शिव हमारे वैदिक देवताओं में शामिल होने के कारण उनके पूजा, अनुष्ठान की परम्परा भी वैदिक मंत्रोचारण के साथ ही सम्पन्न होती है। जिसमें मांस-मदिरा को पूरी तरह निशिद्ध माना गया है। संभवतः इसी वैदिक परम्परा का अनुशरण करते हुए इस क्षेत्र विशेष के मंदिरों में भी पूजा बंद रहती होगी क्योंकि यह क्षेत्र मूलतः क्षत्रिय बाहुल्य क्षेत्र है और मंदिरों की पूजा भी ब्राह्माणों के स्थान पर वैदिक मंत्रों के अभाव में लौकिक परम्परानुसार इन्हीं के द्वारा सम्पन्न की जाती है। सभी मंदिरों में होने वाली पूजा में बलि प्रथा का विषेश महत्व है। श्रावण में बलि के सामंजस्य को नकारते हुए ही संभवतः मंदिरों में पूजा बंद रखने की परम्परा प्रचलित हुइ हो। बहरहाल जो भी हो लोक वैशिष्टय एवं वैविध्य युक्त परम्पराओं को जीवन्त होना सुखद एहसास दिलाता है।
(हिमालय क्षेत्र की सांस्कृति विविधता को उद्घाटित करता दिनेश रावत का एक और लेख। दिनेश रावत साहित्यकार एवं वर्तमान में अध्यापक के रूप कार्यरत हैं।)