जागरी, बुबू और मैं (धामी लगा म्येरी चाल) अंतिम भाग

जागरी, बुबू और मैं (धामी लगा म्येरी चाल) अंतिम भाग

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—51 प्रकाश उप्रेती नरसिंह देवता थोड़ा हिले लेकिन नाचे नहीं. बुबू कुछ समझ रहे थे क्योंकि वो उनके पुराने जगरी थे. उनके घर में पहली बार ‘नौतार’ (पहली-पहली बार) भी बुबू ने अवतरित किया था. becauseउस समय becauseनरसिंह ने गुरु के तौर पर ‘हाथ मार’ (वचन दिया) रखा था […]

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 जागरी, बूबू और मैं (घात-मघता, बोली-टोली) भाग-2

जागरी, बूबू और मैं (घात-मघता, बोली-टोली) भाग-2

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—50 प्रकाश उप्रेती हुडुक बुबू ने नीचे ही टांग रखा था लेकिन किसी ने उसे उठा कर ऊपर रख दिया था. बुबू ने हुडुक झोले से निकाला और हल्के से उसमें हाथ फेरा, वह ठीक था. उसके बाद वापस झोले में रख दिया. so हुडुक रखने के लिए एक […]

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 जागर, बूबू और मैं

जागर, बूबू और मैं

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—49 प्रकाश उप्रेती आस्था, विश्वास का केंद्र बिंदु है. पहाड़ के लोगों की आस्था कई तरह के विश्वासों पर टिकी रहती है. ये विश्वास जीवन में नमक की तरह घुले होते हैं. ऐसा ही “जागर” को लेकर भी है. because “जागर” आस्था के साथ-साथ सांस्कृतिक धरोहर भी है. ‘हुडुक’ […]

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 ‘वड’ झगडै जड़

‘वड’ झगडै जड़

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—43 प्रकाश उप्रेती आज बात “वड” की. एक सामान्य सा पत्थर जब दो खेतों की सीमा निर्धारित करता है तो विशिष्ट हो जाता है. ‘सीमा’ का पत्थर हर भूगोल में खास होता है. ईजा तो पहले से कहती थीं कि-because “वड झगडै जड़” (वड झगड़े का कारण). ‘वड’ उस […]

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 ईजा को ‘पाख’ चाहिए ‘छत’ नहीं

ईजा को ‘पाख’ चाहिए ‘छत’ नहीं

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—39 प्रकाश उप्रेती पहाड़ के घरों की संरचना में ‘पाख’ की बड़ी अहम भूमिका होती थी. “पाख” मतलब छत. इसकी पूरी संरचना में धूप, बरसात और एस्थेटिक का बड़ा ध्यान रखा जाता था. because पाख सुंदर भी लगे और टिकाऊ भी हो इसके लिए रामनगर से स्पेशल पत्थर मँगा […]

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 “खाव” जब आबाद थे

“खाव” जब आबाद थे

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—37 प्रकाश उप्रेती पहाड़ में पानी समस्या भी है और समाधान भी. एक समय में हमारे यहाँ पानी ही पानी था. इतना पानी कि सरकार ने जगह-जगह सीमेंट की बड़ी-बड़ी टंकियाँ बना डाली थी. जब हमारी पीढ़ी सीमेंट की टंकियाँ देख रही थी तो ठीक उससे पहले वाली पीढ़ी […]

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 अम्मा का वो रेडियो

अम्मा का वो रेडियो

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—31 प्रकाश उप्रेती आज बात- “आम्क- रेडू” (दादी का रेडियो) की. तब शहरों से गाँव की तरफ रेडियो कदम रख ही रहा था. अभी कुछ गाँव और घरों तक पहुँचा ही था. परन्तु इसकी गूँज और गुण पहाड़ की फ़िज़ाओं में फैल चुके थे. इसकी रुमानियत ‘रूडी महिनेक पौन […]

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 चौमासेक गाड़ जैसी…

चौमासेक गाड़ जैसी…

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—29 प्रकाश उप्रेती आज बात- ‘सडुक’ (सड़क) और ‘गाड़’ (नदी) की. हमारा गाँव न सड़क और न ही नदी के किनारे है. सड़क और नदी से मिलने के मौके तब ही मिलते थे जब हम दुकान, ‘ताहे होअ बहाने'(नदी के करीब के खेतों में हल चलाने) और ‘मकोट (नानी […]

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 जागर, आस्था और सांस्कृतिक पहचान की परंपरा

जागर, आस्था और सांस्कृतिक पहचान की परंपरा

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—18 प्रकाश उप्रेती आज बात बुबू (दादा) और हुडुक की. पहाड़ की आस्था जड़- चेतन दोनों में होती है . बुबू भी दोनों में विश्वास करते थे. बुबू ‘जागेरी’ (जागरी), ‘मड़-मसाण’, ‘छाव’ पूजते थे और किसान आदमी थे. उनके रहते घर में एक जोड़ी भाबेरी बल्द होते ही थे. […]

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 पहाड़ों में गुठ्यार वीरान पड़े…

पहाड़ों में गुठ्यार वीरान पड़े…

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—16 प्रकाश उप्रेती ये है हमारा- छन और गुठ्यार. इस गुठ्यार में दिखाई देने वाली छोटी, ‘रूपा’ और बड़ी, ‘शशि’ है. गाय-भैंस का घर छन और उनका आँगन गुठ्यार कहलाता है. गाय- भैंस को जिनपर बांधा जाता है वो ‘किल’. किल जमीन के अंदर घेंटा जाता है. हमारी एक […]

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