चौमासेक गाड़ जैसी…

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—29

  • प्रकाश उप्रेती

आज बात- ‘सडुक’ (सड़क) और ‘गाड़’ (नदी) की.

हमारा गाँव न सड़क और न ही नदी के किनारे है. सड़क और नदी से मिलने के मौके तब ही मिलते थे जब हम दुकान, ‘ताहे होअ बहाने'(नदी के करीब के खेतों में हल चलाने) और ‘मकोट (नानी के घर) जाते थे. हमारे कुछ खेत जरूर सड़क और नदी के पास थे लेकिन ईजा ने शुरू से ही इन दोनों के प्रति मन में भय बैठा रखा था. बाकी रहा-सहा भय उन कहानियों ने पैदा कर दिया जो हमने गांवों वालों के साथ-साथ ईजा व ‘अम्मा’ से सुनी थीं. कुछ नदी में डूबने और डुबाने के किस्से तो कुछ नदी के ऊपर बने पुल में बच्चों की बलि देने के थे.

सड़क हमको आकर्षित जरूर करती थी लेकिन गाडियाँ डराती भी थीं. खासकर भयंकर आकार वाले ‘ठेल्य’ (ट्रक). उनका आगे का हिस्सा बहुत ही डरावना होता था. साथ ही तेज निकलती कार और झूलती हुई जीप से भी डर लगता था. सड़क पर सिर्फ बस ही थी जो अच्छी लगती थी.

सड़क हमको आकर्षित जरूर करती थी लेकिन गाडियाँ डराती भी थीं. खासकर भयंकर आकार वाले ‘ठेल्य’ (ट्रक). उनका आगे का हिस्सा बहुत ही डरावना होता था. साथ ही तेज निकलती कार और झूलती हुई जीप से भी डर लगता था. सड़क पर सिर्फ बस ही थी जो अच्छी लगती थी. बस का हॉर्न कान में पड़ते ही उमंग सी छा जाती थी. वहीं ट्रक के हॉर्न से डर पैदा होता था. हम जब भी ट्रक को आते देखते थे तो सड़क से नीचे या ऊपर चले जाते थे ताकि वो हमको न देखे. ईजा डराती रहती थीं कि- “ठेल्य” वा पकड़ ली जानि फिर रामनगर पन छोड़ दीनि” (ट्रक वाले पकड़कर ले जाते हैं फिर रामनगर की तरफ छोड़ देते हैं). जब भी सड़क पर जाते थे यह बात दिमाग में रहती थी.

ईजा जब भी दुकान में सामान लेने भेजती थीं या अपने साथ ले जाती तो सड़क पर चलने के सारे नियम बताती थीं- “बीच सडुकम झन चलिए हां, गाड़ी आलि तो ढीका- निसा लागि जाए,  सडुक में झन बैठिए हां” (बीच सड़क में मत चलना, गाड़ी आएगी तो दाएँ-बाएँ हो जाना, सड़क पर मत बैठना). ईजा के बताए इन नियमों का हम अकेले में तो पालन करते थे. परन्तु जब कोई दूसरा साथी साथ में होता तो थोड़ा सड़क पर बैठने का सुख भी ले लेते थे. तब सड़क पर बैठना सुख ही था.

‘मकोट’ जाने के लिए हम भाई-बहनों के बीच ‘रव्वा-रो’ (रोना-धोना) होती थी. ईजा कुछ न कुछ लालच देकर उनको घर पर रोक देती थीं. मैं छोटा था और रोता कम जमीन पर सर ज्यादा पटकता था तो मुझे साथ ले जाती थीं. कहती थीं-“हिट तू हिट, पैदल जड़म जब थाकेले न तब पोत लागल”.

ईजा के साथ जब ‘मकोट’ (ननिहाल) जाते थे तो उसका रास्ता सड़क -सड़क ही था. मकोट जाने के लिए हम बड़े उत्साहित रहते थे. ईजा भी सुबह-सुबह सब काम निपटा के टिकुल -बिंदुली करती थीं. उनको भी “मैत” (माँ का घर) जाने की ‘हौंस’ लगी रहती थी. सर में ‘कंडी’, जिसमें दूध, दही और कुछ सब्जी होती थी. दाथुल के बिना ईजा घर से निकलती नहीं थीं. कहीं जाए तो दाथुल कमर पर होता ही था.

‘मकोट’ जाने के लिए हम भाई-बहनों के बीच ‘रव्वा-रो’ (रोना-धोना) होती थी. ईजा कुछ न कुछ लालच देकर उनको घर पर रोक देती थीं. मैं छोटा था और रोता कम जमीन पर सर ज्यादा पटकता था तो मुझे साथ ले जाती थीं. कहती थीं-“हिट तू हिट, पैदल जड़म जब थाकेले न तब पोत लागल” (चल तू चल लेकिन पैदल चलने में जब थकेगा न तब पता चलेगा). आँसू पोंछकर मैं तैयार हो जाता था. कपड़े तय ही होते बस मुँह धोना होता था. ईजा कहती थीं- “हिट तू आघिन, मैं आनु” (चल तू आगे, मैं बस आ ही रही हूँ). मैं चल देता था.

ईजा ‘छनपन’ (गाय-भैंस को बांधने वाली जगह) गाय-भैंस को देख-दाख कर आती थीं. तब तक मैं आधे रास्ते में पहुँच जाता था. जहाँ से सड़क नज़र आती थी, वहाँ पर बैठकर ईजा का इंतजार करता था. ईजा जब पीछे से आती तो फिर हम साथ-साथ चलते थे. सड़क के किनारे-किनारे हम चलते थे. जब भी सड़क से कोई गाड़ी गुजरती तो हम दोनों खड़े हो जाते थे. मैं डर के मारे ईजा की साड़ी का किनारा पकड़ लेता था. ईजा कहती थीं- ” गाड़ी खाण जे क्ये में तिकें” (गाड़ी खा थोड़ी रही है तुझे). फिर भी ट्रक के गुजरने से डर लगता था. ‘भ्योव’ (जंगल), गध्यर सब जगह अकेले जा सकता था लेकिन सड़क पर अकेले जाने से डर लगता था. डर मुझे ही नहीं ईजा को भी लगता था.

नदी में जाने के लिए ईजा हमेशा डाँटती थीं. हमारे गाँव के एक ‘बुबू’ (दादा) नदी में डूब गए थे. उसके बाद तो ईजा नदी में हमें अकेले कभी भेजती ही नहीं थी. हमको डराने के लिए ईजा बताती थीं कि  “पूऊ में ननुक भैराड़ दीनि”(नदी के ऊपर बने हुए पुल में बच्चों को मारकर दबा दिया जाता है). यह बात गाँव में हर कोई कहता था. इससे हम और डरे रहते थे. नदी और पुल दोनों डराने लगे थे. इस कारण कभी नदी में जाते ही नहीं थे.

चौमास के दिनों में ईजा के साथ घास काटने जाते थे. कभी-कभी उस ‘भ्योव’ भी जाते थे जहां से ‘गाड़’ दिखाई देती थी. चौमास में हर रोज ही ‘गाड़ आती’ (बाढ़ आना) थी. जब भी हम ‘गाड़’ के उस रूप को देखते थे तो डर जाते थे. एकदम साफ पानी अचानक मिट्टी के पानी में तब्दील हो जाता था. ईजा कहती थीं देख-“के जोरेक गाड़ आ रहे, य फाट बति ऊ फाट तक” (कितनी भयंकर नदी आई हुई है, इस छोर से उस छोर तक). ईजा फिर ‘घा’ (घास) काटने लग जाती और हम नदी को देखते रहते थे. नदी में कुछ न कुछ बह के आता रहता था. हम उसी के अनुमान में कि क्या होगा, खोए रहते थे.

…ईजा को लगता है- “सड़क आई बे तो सब नन- तिन तिरायपन बही गई”. कभी-कभी सोच कर लगता है कि ईजा सही तो कहती हैं. फिर “पहाड़ का पानी और जवानी कब वहाँ ठहरा है”. दोनों को बहकर शहरों में ही तो आना है.

ईजा को आज भी सड़क और गाड़ियों से डर लगता है. उनको गाड़ियों की आवाज़ पसंद नहीं है. कहती हैं- “कान खा दीनि” (कानों में दर्द होने लगता हैं)’. साथ ही  ईजा को लगता है- “सड़क आई बे तो सब नन- तिन तिरायपन बही गई” (सड़क आने से सारे बच्चे दिल्ली की तरफ चले गए). कभी-कभी सोच कर लगता है कि ईजा सही तो कहती हैं. फिर “पहाड़ का पानी और जवानी कब वहाँ ठहरा है”. दोनों को बहकर शहरों में ही तो आना है.

यह ‘बहाव’ ही तो ईजा के दुःख का कारण है. आज जब सड़क ही ‘विकास’ है तो सोचता हूँ, ईजा ‘सड़क’ से डरती हैं या ‘विकास’…

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं।)

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