- डॉ. अरुण कुकसाल
‘दिवास्वप्नों के मूल में वास्तविक अनुभव हों, तो वे कभी मिथ्या नहीं होते. यह दिवास्वप्न जीवन्त अनुभवों में से उपजा है और मुझको विश्वास है कि प्राणवान, क्रियावान और निष्ठावान शिक्षक इसको वास्तविक स्वरूप में ग्रहण कर सकेंगे.’ -गिजुभाई
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(गांधी जी का जो योगदान भारतीय
राजनीति में है, वही योगदान गिजुभाई का भारतीय शिक्षा जगत में है. गिजुभाई ने अपने अध्यापकीय अनुभवों की डायरी ‘दिवास्वप्न’ की प्रस्तावना में उक्त पक्तियां लिखी थी. बाल मनोविज्ञान एवं शिक्षण के क्षेत्र में ‘दिवास्वप्न’ पुस्तक को एक अनमोल कृति माना जाता है.)पहाड़
शिक्षिका एवं कवियत्री रेखा चमोली की
‘मेरी स्कूल डायरी’ को गहनता से पढ़ने के बाद इस पुस्तक पर मेरे मन-मस्तिष्क की पहली अभिव्यक्ति गिजुभाई की उक्त पक्तियां ही हैं. इस शैक्षिक डायरी को पढ़ते हुए एक साथ कई किताबों और विषयों को पढने का आनंद़ मिला है. अनायास ही ‘बालसखा’ हेमराज भट्ट की याद आयी तो उनकी लिखी ‘एक अध्यापक की डायरी के कुछ पन्ने’ फिर से पढ़ ली. रेखा चमोली को साधुवाद कि उसने प्रिय हेमराज भट्ट की परम्परा को आगे बढ़ाया है. उक्त दोनों किताबों के बेहतरीन प्रकाशन के लिए अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, बैंगलूरू का आत्मीय धन्यवाद तो है ही.पहाड़
घर में अभिभावक और
स्कूल में शिक्षक अपने बच्चों के लिए देखे ‘दिवास्वप्नों’ को सच करने में ही तो खोये रहते हैं. रेखा चमोली की यह स्कूल डायरी रसोई और स्कूल की अन्तरंग कथा-व्यथा को बड़ी खूबसूरती और जिम्मेदारी से उद्घाटित करती है. इसमें श्रीगणेश उत्तरकाशी के प्राथमिक विद्यालय, गणेशपुर में हुआ जरूर है, परन्तु इसमें देश-दुनिया के सरकारी स्कूलों की एक जैसी अतरंग आवाज की प्रतिध्वनि हर पन्ने पर सुनाई देती है.
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किसी भी समुदाय में ‘स्कूल’
और घर में ‘रसोई’ की सुगंध एक जैसे ही महकती है. घर में अभिभावक और स्कूल में शिक्षक अपने बच्चों के लिए देखे ‘दिवास्वप्नों’ को सच करने में ही तो खोये रहते हैं. रेखा चमोली की यह स्कूल डायरी रसोई और स्कूल की अन्तरंग कथा-व्यथा को बड़ी खूबसूरती और जिम्मेदारी से उद्घाटित करती है. इसमें श्रीगणेश उत्तरकाशी के प्राथमिक विद्यालय, गणेशपुर में हुआ जरूर है, परन्तु इसमें देश-दुनिया के सरकारी स्कूलों की एक जैसी अतरंग आवाज की प्रतिध्वनि हर पन्ने पर सुनाई देती है. बच्चा, शिक्षक, अभिभावक, समाज और व्यवस्था की सूरत और सीरत के प्रतिबिम्ब इस डायरी में जगह-जगह मौजूद हैं. ये प्रतिबिम्ब हमारी हमारे ही समाज के प्रति संवेदनशीलता और दायित्वशीलता का स्तरबोध कराते हैं. अब यह हम पर निर्भर हैं कि चिन्तन-मनन कर समाधानों की ओर आगे बढ़ें या फिर सामान्य व्यवहार की तरह मुंह फेर कर तटस्थता का स्वांग करें.चलो मैं, आपको ‘मेरी स्कूल डायरी’ पुस्तक की सैर कराता हूं-
यह डायरी 3 अगस्त, 2011 से
शुरू होकर 13 सितम्बर, 2014 (लगभग 3 साल) के विराम बिन्दु पर ठहरती है. ‘प्राथमिक शाला में रचनात्मक लेखन का आशय’ विचार से यह शैक्षिक यात्रा प्रारम्भ होती है. आगे दो पड़ाव क्रमशः ‘अवलोकन, खोजबीन और अभिव्यक्त्ति’ एवं ‘प्राथमिक शाला में शिक्षिका/शिक्षक होने के अर्थ’ के बाद ‘मैंने जो सीखा’ के आत्म-विश्लेषण में ठहरती है. तब इस डायरी के पन्ने जरूर बंद हो जाते हैं पर पाठक के मन-मस्तिष्क के पन्ने फड़फडाने लगते हैं.पहाड़
पढ़ें— हिंदी का श्राद्ध अर्थात ‘हिंदी दिवस’
वास्तव में यह डायरी मात्र प्राथमिक शिक्षा की
तस्वीर न होकर व्यक्ति और सामाजिक संस्थाओं के आपसी सहज और असहज रिश्तों की परत दर परत खोलते दस्तावेज में तब्दील हो जाती है. असल में यह डायरी समाज में ‘जो होना चाहिए’ और ‘जो है’ के अन्तराल के द्वन्द की यात्रा है. एक शिक्षक वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में किन परस्थितियों और किस प्रकार अपने कार्य दायित्वों का निर्वहन कर पा रहा है इसकी बानगी आप इस डायरी में महसूस कर सकते हैं.पहाड़
ये बात तो है आज का प्राथमिक शिक्षक खुद अपने कार्य के प्रति उत्साहित नहीं है. उसका नैराश्य डायरी में इस प्रकार दर्ज हुआ है
‘भारत में शिक्षक खासतौर पर प्राथमिक शिक्षक को एक अनुत्पादक व्यक्ति के रूप में देखा जाता है. वो लाख जतन करे, न तो कोई उसके काम को प्रोत्साहित करने वाला है, न ही उसकी मानसिक और शारीरिक थकान महसूस करने वाला’(पृष्ठ-202). स्कूल के प्रति शिक्षक की सामान्य धारणा है कि ‘आमतौर पर सरकारी विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चे वंचित समुदाय से आते हैं. उनके पास पढ़ने-लिखने की सामाग्री का अभाव रहता है.पहाड़
पाठ्य पुस्तकों की छपाई और विषयवस्तु
कई बार बच्चों को पढ़ने के लिए आकर्षित नहीं कर पाती. जबकि पूरा मसला विद्यालय में एक ऐसी संस्कृति के निर्माण से जुड़ा है जो बच्चों में किताबों के प्रति उत्साह पैदा करे और उन्हें अपनी बात कहने व दूसरों की बात सुनने व समझने की दिशा में ले जाए’(पृष्ठ-5). शैक्षिक प्रशासकों का शिक्षकों विशेषकर महिला शिक्षिकाओं के प्रति आम धारणा इस संवाद से सामने आ जाती है. ‘उन्होने मुझसे पूछा, ‘आप इन्हें गणित पढ़ाती हैं ? हां, कहने पर बोले, ‘इनको 20 तक पहाड़े याद नहीं हैं, देखिए मैडम आमतौर पर माना जाता है कि जिन विद्यालयों में अध्यापिकाएं होती हैं, वहां के बच्चे गणित में कमजोर होते हैं’(पृष्ठ-119).पहाड़
पढ़ें— अहिंदी का श्राद्ध अर्थात ‘हिंदी दिवस’
दूसरी ओर शिक्षकों का मानना है कि
‘कोई भी अधिकारी या मंत्री विद्यालय में आकर ये नहीं पूछता आपके विद्यालय की विशेषता क्या है ? बच्चे इन दिनों क्या सीख रहे हैं ? कोई परेशानी या किसी चीज़ की जरूरत है क्या? न ही वे थोड़ी देर बच्चों से सहज बातचीत कर उन्हें प्रोत्साहित कर पाते हैं. सिर्फ पहाड़े कब तक विद्यालय का मूल्यांकन करते रहेंगे?’ (पृष्ठ-120). डायरी में स्थानीय समाज की तटस्थता और नकारात्मकता भी जगह-जगह पर परिलक्षित हुई है. स्कूल में बच्चों को और अधिक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल सके इस ओर सहयोग करने की अपेक्षा स्थानीय जनप्रतिनिधिों का ध्यान स्कूल रोजगार और आय प्राप्त करने का जरिया बने इस ओर रहता है.पहाड़
इस डायरी का सबसे मजबूत और रोचक पक्ष यह है कि स्कूल में शिक्षिका और बच्चों के आपसी संबध एवं संवाद की आत्मीयता और नाजुकता इसमें बड़ी खूबसूरती से आयी है.
इसके लिए रेखा चमोली ने बाल शिक्षण के इस मूल तत्त्व को बखूबी अपनाया कि ‘अध्यापक को बच्चों की पहुंच से कभी बाहर नहीं होना चाहिए’. डायरी के ऐसे ही कुछ अंशों की बानगी देखिए-‘मैंने कहा, ‘सब बारी-बारी से मेरे पास बैठेंगे.’ बाद में जब शगुन पानी पीने गयी तो वे जल्दी से मेरे बगल में आ गयी और मेरा हाथ पकड़कर मेरी गोद में झुककर बैठ गयी, मैं चुप रही. शगुन आयी तो उसकी बगल मैं बैठ गयी. वास्तव में बच्चे शिक्षिका का स्पर्श चाहते हैं. ठीक उसी तरह जैसे वे अपनी मां के स्पर्श को महसूस करते हैं. मुझे लगता है कि शिक्षक को बच्चों के इस भावनात्मक पक्ष की समझ होनी चाहिए’(पृष्ठ-281).पहाड़
‘हर बच्चा चाहता है कि
मैडम उस पर लगातार व विशेष ध्यान दें. फटाफट उसकी बात सुनें व उसकी समस्या का हल करने को तत्पर हों. लेकिन कक्षा में कई बार बच्चों की प्रत्येक बात पर ध्यान नहीं दिया जा सकता. कई बातें व हरकतें नज़रअन्दाज़ करनी होती हैं. ऐसे में बच्चों को लगता है कि उनको पर्याप्त महत्त्व नहीं दिया जा रहा है और वे रूठ जाते हैं.
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‘हर बच्चा चाहता है कि मैडम उस पर
लगातार व विशेष ध्यान दें. फटाफट उसकी बात सुनें व उसकी समस्या का हल करने को तत्पर हों. लेकिन कक्षा में कई बार बच्चों की प्रत्येक बात पर ध्यान नहीं दिया जा सकता. कई बातें व हरकतें नज़रअन्दाज़ करनी होती हैं. ऐसे में बच्चों को लगता है कि उनको पर्याप्त महत्त्व नहीं दिया जा रहा है और वे रूठ जाते हैं. वे तभी मानते हैं जब उनकी बात सुनी जाय और उनकी समस्या का निदान किया जाय. तब तक वे अनमने ही बने रहते हैं’(पृष्ठ-197).पहाड़
‘एक बच्चे की
ओर मुंह करके बातें सुनने लगो तो दूसरा बच्चा अपने नन्हे हाथ से मेरा मुंह अपनी ओर करके अपनी बात सुनाना चाहता है. बच्चे याद कर-करके अपनी बात बताना चाहते हैं ताकि उनकी बात दूसरों की बात से ज्यादा महत्वपूर्ण लगे. बच्चों के खेलों में न जाने कितने अर्थ छिपे होते हैं. नज़दीक से देखो तो पता चलता है कितनी बड़ी और सच्ची है बच्चों की दुनिया. जब खुद के बच्चे छोटे थे, तो फुर्सत ही नहीं होती थी, घर के काम ही नहीं निबटते थे. उनसे थोड़ी प्यार से बात की नहीं कि घरवाले कहते थे, ऐसे तो बच्चे बिगड़ जाएंगे. कई बार सोचती हूं, काष मैं अब मां बनती तो अपने बच्चों की ज्यादा बढ़िया देखभाल कर पाती’(पृष्ठ-83).पहाड़
यह डायरी लौट-लौट कर अपने बचपन
की चौखट में पहुंचती है और वहां से सबक लेकर आज की कार्ययोजना बनाती नजर आती है. ‘अगर मैं अपने स्कूली अनुभवों को याद करूं तो मैंने भी खूब मार खायी है और उससे भी ज्यादा शाब्दिक प्रताड़ना सही है. स्मृति में शाबासी देने वाले शिक्षक कम व सज़ा देने वाले ज्यादा हैं. मुझे नहीं लगता किसी भी मार से मैंने कुछ सीखा हो. हां, शायद थोड़ी देर के लिए कुछ याद ज़रूर कर लिया होगा’(पृष्ठ-89).पहाड़
पढ़ें— स्कूली शिक्षा की वैकल्पिक राहें
यह रेखा चमोली जैसी जागरूक शिक्षिका का
ही आत्मबल है कि वह अपनी कमजोरियों को खुलेआम सार्वजनिक करती हैं और सुधार के लिए ईमानदारी से प्रयत्नशील रहती है- ‘मेरी अपनी सीमाएं हैं, मैं जितना सोच-विचार हिन्दी भाषा शिक्षण में कर पाती हूं उतना सम्भवतः अन्य विषयों में नहीं कर पाती. और अंग्रेजी भाषा पर तो मेंरी खुद की पकड काफी कमज़ोर है’(पृष्ठ-153). ‘जब बच्चों को सवाल नहीं आते हैं तो मुझे बुरा तो लगता ही है साथ ही अपनी दक्षताओं व तरीकों पर भी शंका होने लगती है. क्या मैं अच्छी शिक्षिका नहीं हूं ? क्या मुझे अच्छी गणित पढ़ाना नहीं आता. गणित मेरी रुचि का विषय है. मुझे खुद गणित की बहुत सी अवधारणाएं बहुत बाद में पता चलीं. इस कारण मैं चाहती हूं कि मेरे बच्चे अवधारणाओं को समझते हुए आगे बढ़ें’(पृष्ठ-166).पहाड़
यह डायरी हमें यह समझाती है
कि बच्चों की कल्पनाओं की कोई सीमा नहीं होती है. हम सयाने ही बच्चे को किसी विशिष्ट खांचे में ढ़ालने की अनावश्यक पहल करते हैं. बच्चे की कल्पनाशीलता को सिकोड़ने का यह हमारा सर्वप्रथम प्रयास होता है. ‘अक्सर हम बच्चों की कल्पना शक्त्ति को जान नहीं पाते और इस कारण उनके सीखने की प्रक्रिया के एक मजबूत अवसर से उन्हें वंचित कर देते हैं’(पृष्ठ-40). ‘…..अपने बच्चों को बड़ा करने और आने वाले जीवन के लिए तैयार करने में अभी हमें बहुत काम करना है. खुद को ज्यादा संवदेनशील व खुली समझ का बनाना अभी शेष है’(पृष्ठ-76).पहाड़
हम सब रसोईघर में गये.
अभी भात का पानी उबालने रखा था. मैने बच्चों को दिखाया किस तरह पानी उबल रहा है. उसकी भाप उठ रही है, वो भाप ढ़क्कन पर इकठ्ठी हो रही है और जब हम ढक्कन को थोड़ी देर अलग रख रहे हैं तो भाप की नन्हीं बूंदें पानी बन कर टपक रही हैं. इस प्रक्रिया से बातचीत शुरू कर मैंने उन्हें ‘बादलों का बनना व बारिश का होना’ प्रक्रिया को समझाने का प्रयास किया’
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मैडम जी के साथ बच्चों की बातचीत के इन अशों का माधुर्य और सीखने-सिखाने की ललक पर गौर करें- ‘मैडम जी, ये चांद जहां जाने के लिए चला होगा वहां पहुंचने में
इसे देर हो गयी होगी तब तक सूरज के आने का टाइम भी हो गया था इसलिए इस समय आसमान में सूरज और चांद दोनों दिखाई दे रहे हैं……किसी अमेरिका वाले को फोन करके पूछना पडे़गा कि जब ये सूरज और चांद दोनों ही हमारे यहां है तो वहां क्या हो रहा है ? (सभी बच्चे हंसते हैं)…….मुझे भी ठीक-ठीक नहीं पता कि कभी-कभी चांद दिन में क्यों दिखाई देता है……आज घर जाकर पता करने की कोशिश करूंगी’(पृष्ठ-68 एवं 69).पढ़ें— पहाड़ में बालिका शिक्षा की दशा एवं दिशा: नई शिक्षा नीति के संदर्भ
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‘बच्चे अपनी कल्पना से बादल का बनना, उसमें पानी आना व पानी का बरसना आदि बता रहे थे. इतने में मुझे सूझा- ‘क्यों न इन्हें रसोईघर में ले जाकर भाप का बनना,
ठण्डा होकर उसका पानी की बूंद में बदल जाना, बूंदों का भारी होकर टपक जाना दिखाऊं और इसी बहाने बादलों के बंद रहस्यों पर बात करूं. हम सब रसोईघर में गये. अभी भात का पानी उबालने रखा था. मैने बच्चों को दिखाया किस तरह पानी उबल रहा है. उसकी भाप उठ रही है, वो भाप ढ़क्कन पर इकठ्ठी हो रही है और जब हम ढक्कन को थोड़ी देर अलग रख रहे हैं तो भाप की नन्हीं बूंदें पानी बन कर टपक रही हैं. इस प्रक्रिया से बातचीत शुरू कर मैंने उन्हें ‘बादलों का बनना व बारिश का होना’ प्रक्रिया को समझाने का प्रयास किया’(पृष्ठ-53). बच्चों को सीखने और उनकी शिक्षिका को सिखाने का ऐसा सर्वोत्तम संयोग दुर्लभ ही है.पहाड़
स्कूल की जीवंतता
बच्चा है. लिहाजा बच्चे का सजीव अस्तित्व ही स्कूल संचालन को सार्थकता प्रदान कर सकता है. इस डायरी ने यही बात आगे बडाई है- ‘जब हम बच्चों के निजी अनुभवों को कक्षा में जगह दे रहे होते हैं तो हम उनके अस्तित्व को स्वीकार कर रहे होते हैं. उनके आगे बढ़ने में जाने-अनजाने ही उनकी सीखी चीज़ों की मदद ले रहे होते हैं’
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स्कूल की जीवंतता बच्चा है. लिहाजा बच्चे का सजीव अस्तित्व ही स्कूल संचालन को सार्थकता प्रदान कर सकता है. इस डायरी ने यही बात आगे बडाई है- ‘जब हम बच्चों के निजी अनुभवों को
कक्षा में जगह दे रहे होते हैं तो हम उनके अस्तित्व को स्वीकार कर रहे होते हैं. उनके आगे बढ़ने में जाने-अनजाने ही उनकी सीखी चीज़ों की मदद ले रहे होते हैं’(पृष्ठ-28). ‘यदि बच्चों को यह अहसास हो कि उन्हें प्रातःकालीन सभा में अपनी बात रखनी है तो वे पढ़ने-लिखने में अधिक रुचि लेने लगते हैं. उनके सामने एक लक्ष्य होता है. मुझे लगता है कि हमारी व्यवस्था में प्रातःकालीन सभा एक तरह का कर्मकाण्ड है. हम इसके महत्व को समझ नहीं पाये हैं’(पृष्ठ-12).पहाड़
जातीय विभेद की जडें हमारे समाज में इस कदर गहरी हैं कि हम चाहते हुए भी उससे बाहर नहीं निकल पा रहे हैं. समाज की निष्ठुरता देखिए कि वह बच्चों को इसके पालन करने की
सलाह देने में कोई देरी नहीं करता है. ‘विद्यालय में आज सिर्फ़ नेपाली मूल के और अनुसूचित जाति के बच्चे उपस्थित थे. सवर्ण जाति के बच्चों में कोई भी बच्चा या बच्ची विद्यालय नहीं आये थे. बच्चों से पूछने पर पता चला वे कलश यात्रा व हवन में भाग लेंगे. ‘तुम क्यों नहीं गये ?’ पूछने पर बच्चों ने बताया ‘हमें वहां नहीं जाना था, इसलिए मां ने कहा विद्यालय जाओ.’ अच्छा किया मैंने बोला पर अन्दर से ये जानकर बहुत बुरा लगा’(पृष्ठ-183). हद तो तब है कि जिन शिक्षकों को एक समतामूलक समाज की ओर बढ़ने की हमने जिम्मेदारी दी है वही इस लाइलाज़ रोग पीड़ित दिखाई देता है-‘…एक शिक्षिका ने इसलिए सब्जी नहीं खाई क्योंकि सब्ज़ी की प्लेट से पहले अनुसूचित जाति की अध्यापिका द्वारा सब्जी ली गयी थी….मुझे कारण भी बहुत देर में समझ में आया क्योंकि इस तरह का व्यवहार मेरे व्यवहार का हिस्सा नहीं है’(पृष्ठ-128).मैं एकल अध्यापक होने को एक समस्या मान लूं तो फिर बेहतर शिक्षण कार्य नहीं कर सकती’. तभी तो रेखा चमोली खुले आम ऐलान करती है- ‘मुझे अपने शिक्षिका होने पर गर्व है, बच्चों की आंखों में जीवनभर की खुशियों की चमक वही पैदा कर सकता है.’
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इस डायरी की समीक्षा की
शुरुवाती बात शिक्षकों के खुद के प्रति और उनसे जुड़ी व्यवस्था की उनके प्रति नैराश्य की भावना से हुई थी. और यह किसी हद तक सच भी है. पर बित्तेभर के इस सच को रेखा चमोली जैसे अनेकों शिक्षक/शिक्षिकायें ‘परे हट’ का भाव देते हुए समस्याओं को ही समाधान का जरिय़ा बनाने में जुटे हैं. ‘कक्षा-1 के बच्चे श्यामपट पर काम कर रहे थे. कक्षा-2 वाले काॅपी पर शब्द चित्र बना रहे थे. 3, 4, व 5 के बच्चे अपने-अपने समूहों में पढ़ रहे थे. मैं इधर-उधर घूमते हुए पांचों क्लास की निगरानी कर रही थी. मैं एकल अध्यापक होने को एक समस्या मान लूं तो फिर बेहतर शिक्षण कार्य नहीं कर सकती’(पृष्ठ-243). तभी तो रेखा चमोली खुले आम ऐलान करती है- ‘मुझे अपने शिक्षिका होने पर गर्व है, बच्चों की आंखों में जीवनभर की खुशियों की चमक वही पैदा कर सकता है.’(पृष्ठ-130).पहाड़
शिक्षा कार्य से जुडे तमाम
मित्रों से अनुरोध है कि इस पुस्तक को जरूर पढ़े. विशेषकर शैक्षिक प्रशासकों के लिए तो यह स्कूल डायरी उनकी सचमुच की ‘गोपनीय आख्या’ है, जिससे उनको अवगत होना ही चाहिए. पुनः रेखा चमोली जी को बधाई और शुभ-आशीष. अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय प्रकाशन को इस अमूल्य कृति को पाठकों तक पहुंचाने के लिए तहेदिल से आभार.(लेखक एवं प्रशिक्षक)