पहाड़ में बालिका शिक्षा की दशा एवं दिशा: नई शिक्षा नीति के संदर्भ

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राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 भाग-7

  • डॉ. अमिता प्रकाश

शिक्षा, वह व्यवस्था जिसे मनुष्य ने अपने कल्याण के लिए, अपनी दिनचर्या में शामिल किया . मनुष्य की निरंतर बढ़ती मानसिक शक्तियों ने स्वयं को अपने परिवेश को, अपने सुख-दुख, आशाओं–आकांक्षाओं को व्यक्त और अनुभूत करने के लिए जो कुछ किया, वह जब दूसरों के द्वारा अनुकृत किया गया या अपने जीवन में उतारा गया तो वह सीख या शिक्षा कहलाया. धीरे-धीरे बदलते मानव समाज के साथ यह स्वाभाविक प्रक्रिया अस्वाभाविक और यांत्रिक होती चली गयी.

भारत में शिक्षा को लेकर आजादी के समय से ही दोहरा रवैया रहा है. एक ओर राजा राममोहन राय जैसे विद्वान थे जो पश्चिमी शिक्षा से ही भारतवासियों की उन्नति को संभव देख रहे थे, तो वहीं दूसरी ओर महात्मा गांधीजी का विचार था कि भारतीय जीवन पद्धति के अनुसार यहां   की परंपरागत शिक्षा को बढ़ावा दिया जाय, और ग्रामीण स्तर से भारत को मजबूत किया जाय. खैर इतिहास सभी को पता है कि शिक्षा के क्षेत्र में क्या कुछ घटित हुआ? प्रारम्भिक रूप से भारत की साक्षारता दर बढ़ाना ही सरकारों का मूल उद्देश्य बना रहा. 1968, 1986 और 34 वर्षों बाद 2020 की नयी शिक्षा नीति, कुल मिलकर तीन शिक्षा नीतियाँ अब तक देश की शैक्षिक  स्तिथि में सुधार लाने के लिए लाई गईं. इन नीतियों के बीच –बीच में भी 2000, 2005 तथा शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 द्वारा शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार तथा प्रसार लाने के लिए निरंतर प्रयास होते रहे हैं. प्रयासों की सफलता एक अलग विषय है, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि इन प्रयासों से देश की साक्षरता  दर में बढ़ोतरी हुई है. छोटे छोटे पर्वतीय समाजों में भी शिक्षा को लेकर अलख जगी तथा इसका सीधा प्रभाव  यहाँ की बालिका शिक्षा पर सुखद रूप से पड़ा.

वर्तमान में उत्तराखंड की महिला साक्षरता दर (70.7%) देश की महिला साक्षारता दर (65.5%) से 5% अधिक है. लेकिन यहाँ यह भी दृष्टव्य है  कि जहां महिला साक्षारता में देहारादून जिला 78.5% के साथ अग्रणी स्थान पर बना हुआ है, वहीं अधिकांश पहाड़ी क्षेत्र वाले उत्तरकाशी (62.4%), टिहरी (64.3%) तथा बागेश्वर ( 68%) सबसे कम महिला साक्षरता वाले पर्वतीय जनपद हैं. लेकिन महिला साक्षारता या बालिका शिक्षा का एक कड़वा और भयानक सच यह भी है कि राज्य के मैदानी जनपद हरिद्वार तथा ऊधमसिंहनगर की स्थिति इस क्षेत्र में, समस्त सुलभ संसाधनों के बावजूद बहुत बुरी है.

उत्तराखंड में एक पीढ़ी पूर्व की महिलाओं की साक्षरता दर और वर्तमान साक्षरता दर में जो अंतर दृष्टिगत होता है वह इन्ही प्रयासों का नतीजा है. उत्तराखंड बनने से पूर्व यहाँ की बालिकाओं में विशेषकर पर्वतीय दुर्गम क्षेत्रों में जहां उच्च शिक्षा हेतु अपने घरों से बाहर निकलना पड़ता था, उच्च शिक्षा के प्रति रुझान ‘ना’ के बराबर था. केवल कुछ चुनिन्दा परिवार जो या तो स्वयं शिक्षा के व्यवसाय से जुड़े थे या जिनके पास उन स्थानों पर लड़कियों को भेजने के सुरक्षित साधन थे वही उच्च शिक्षा ग्रहण कर पातीं  थीं, वह भी उस अवधि तक ही जब तक कोई सुयोग्य वर नहीं मिल जाता था. 2004-05 तक यह स्थिति कमोवेश ऐसी ही थी. उसके पश्चात बालिका शिक्षा में थोड़ा-सा उछाल इन पर्वतीय क्षेत्रों में तब आया जब राज्य बनने के बाद होने वाली नियुक्तियों में महिलाएं आगे आने लगीं. तत्पश्चात सरकारी नौकरियों मे महिलाओं के लिए 30% आरक्षण के प्रावधान ने बालिका  शिक्षा के क्षेत्र में एक लंबी छलांग लगाने में बड़ी मदद की. वर्तमान में उत्तराखंड की महिला साक्षरता दर (70.7%) देश की महिला साक्षारता दर (65.5%) से 5% अधिक है. लेकिन यहाँ यह भी दृष्टव्य है  कि जहां महिला साक्षारता में देहारादून जिला 78.5% के साथ अग्रणी स्थान पर बना हुआ है, वहीं अधिकांश पहाड़ी क्षेत्र वाले उत्तरकाशी (62.4%), टिहरी (64.3%) तथा बागेश्वर ( 68%) सबसे कम महिला साक्षरता वाले पर्वतीय जनपद हैं. लेकिन महिला साक्षारता या बालिका शिक्षा का एक कड़वा और भयानक सच यह भी है कि राज्य के मैदानी जनपद हरिद्वार तथा ऊधमसिंहनगर की स्थिति इस क्षेत्र में, समस्त सुलभ संसाधनों के बावजूद बहुत बुरी है. इसका एक बड़ा कारण वहां का संकुचित समाज तथा निम्न मध्यमवर्गीय वह आबादी है जिसमे आज भी शिक्षा से अधिक ज़ोर आजीविका कमाने पर दिया जाता है.

पहाड़ में बालिका शिक्षा की दशा एवं दिशा. सांकेतिक फोटो: गूगल से साभार

खैर बात यहाँ पर पहाड़ी जनपदों की हो रही है. इस बात में कोई दो राय नहीं कि पर्वतीय जनपदों में पिछले एक-डेढ़  दशक में ही काफी सुधार बालिका शिक्षा के क्षेत्र में देखने को मिला है, जिसे मैंने स्वयं देखा और अनुभूत किया है. 2003 में जब मैंने रुद्रप्रयाग जनपद के दूरस्थ जखोली ब्लॉक के एक छोटे से कस्बे मयाली में ज्वाइन किया था, तब वहाँ लगभग 5 से 6 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़ कर आने वाली अधिकांश लड़कियों को कक्षा दस के बाद ससुराल विदा कर दिया जाता था. इंटरमीडिएट कि पढ़ाई करने उन्हें लगभग 3 किलोमीटर की चढ़ाई और पार कर रामाश्रम इंटर कॉलेज़ जखोली तक जाना पड़ता था. इंटर किसी प्रकार यदि हो भी गया तो उच्च शिक्षा हेतु या तो 40 किमी दूर अगस्त्यमुनि में महाविद्यालय था या फिर 65 किमी की दूरी पर स्थित गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर. किन्तु आज लौंगा, जयति आदि गांवों में न सिर्फ हाईस्कूल खुल गए हैं बल्कि मयाली का हाईस्कूल इंटरकॉलेज में उच्चीकृत हो गया है. और इससे भी अधिक सुकून वाली बात ये कि जखोली महाविद्यालय सुगम मोटर मार्ग पर ही खुल गया है. कहने का तात्पर्य यह है कि उत्तराखंड में बालिका शिक्षा को लेकर जो एक चेतना का उदय हुआ, उसमें अवसरों की वृद्धि के साथ–साथ संस्थाओं की स्थापना और गांव घरों तक पहुँचने वाली सड़कों का विशेष योगदान रहा है. गुणवत्ता को यदि एक तरफ रख दिया जाय तो कुल मिलाकर स्थिति संतोषजनक इस अर्थ में कही जा सकती है कि अब बालिकाएं  इच्छानुसार पढ़ने लगीं हैं. यदि बहुत विषम परिस्थिति न हो तो उन पर पढ़ाई छोड़ने का दबाव भी अब कम हुआ है.

पहाड़ में बालिका शिक्षा की दशा एवं दिशा. सांकेतिक फोटो: गूगल से साभार

नयी शिक्षा नीति इस विकासोन्मुख साक्षारता दर को कैसे प्रभावित करेगी यह एक विचारणीय बिन्दु है. नयी शिक्षा नीति में, हर शिक्षा नीति की भांति कुछ अच्छे, कुछ बुरे दोनों ही बिन्दुओं  पर विचार विमर्श समीक्षकों के मध्य चल रहा है. इस नीति के कार्यरूप में परिणत होने तक या धरातल पर उतरने तक अभी कई परिवर्तन होंगे यह भी निस्संदेह है. किन्तु फिलहाल जो एक सकारात्मक पहलू इस शिक्षा नीति में दृष्टिगत हो रहा है वह है विषयों में विकल्पों का बढ़ना. पहले कक्षा 9 से ही गणित या गृहविज्ञान जैसे विषयों में से किसी एक को चुनने की विवशता ने भी बालिकाओं के आगे पढ़ने में एक रोढ़े का सा काम किया.  कक्षा 11 से वर्गों का विभाजन और उसमें भी रुचि के अनुसार विषयों को न चुन पाने की विवशता ने कई बालिकाओं को स्कूल से दूर किया इसमें कोई संदेह नही है. यह सच है कि आज भी बालिकाओं के जीवन के सभी निर्णयों पर परिवार अपना अधिकार समझतें हैं, और शिक्षा तथा विषय चयन उनमें सर्वप्रथम तथा सर्वोपरि होतें हैं. कई बार मेरी कई छात्राएं जो गणित के साथ-साथ कला को, सिलाई –कढ़ाई को भी सीखना चाहतीं थीं, उन्हें यह सुविधा नहीं मिल पायी. बाद में उन्होने उच्च शिक्षा में व्यक्तिगत छात्र के रूप में स्वयं को पंजीकृत कराकर व्यवसायिक पाठ्यक्रमों को वरीयता दी. इन व्यवसायिक कोर्सेज में टंकण से लेकर सिलाई –कढ़ाई, बेसिक कम्प्यूटर कोर्सेज और ब्यूटीपार्लर के साल-छ माह के कोर्सेज भी शामिल थे. जिन बालिकाओं की पारिवारिक स्थिति ठीक-ठाक थी, उन्होने तो किसी तरह दोनों को निभा लिया, लेकिन कई बार आर्थिक तंगी के चलते किसी एक कोर्स का परित्याग भी बालिकाओं को मजबूरीवश करना पड़ता था. अब यदि नयी शिक्षा नीति में विषयों या वर्गों में छूट के विकल्प को पूर्णतया लागू कर दिया जाता है तो पूरी उम्मीद है कि इसके सकारात्मक परिणाम निश्चित रूप से देखने को मिलेंगे.

महिलाओं के जीवन में शादी वह पड़ाव होता है जो उसके जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन ला देता है. प्रेग्नेंसी के बाद तो शिक्षा के विषय में सोचना और दुष्कर हो जाता है. भले ही अब ट्रेंड बादल रहा है और महिलाएं अपनी शिक्षा व कैरियर को लेकर बहुत सजग हो गईं हैं. इस सजगता को इस नयी नीति के इस नए बिन्दु से निश्चित रूप से बल मिलेगा.

वोकेशनल कोर्सेज या व्यवसायिक पाठ्यक्रम को लागू करने वाली बात कोई नयी  बात नही है.  व्यवसायिक पाठ्यक्रमों के लिए 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी प्रावधान किया गया था. उसके तहत कुछ समय तक इंटरमीडिएट स्तर पर व्यवसायिक पाठ्यक्रमों को चलाया भी गया. लेकिन फिर धीरे-धीरे वे विलुप्त से हो गए. ऐसा हस्र नयी नीति में नहीं होगा इसकी उम्मीद ही की जा सकती है. यदि वास्तव में दृढ़ इच्छाशक्ति से वोकेशनल कोर्सेज का कार्यन्वयन हो जाता है, तो नई पीढ़ी जो सबसे अधिक इन्हीं दो बिन्दुओं से आकर्षित हो रही है, उसको निश्चित रूप से लाभ मिलेगा.

एक और सकारात्मक बिन्दु जो इस नीति में देखने में आया है, वह है उच्च शिक्षा के सर्टिफिकेट्स में सुधार. अब एक साल तक उच्च शिक्षा का अध्ययन करने वालों को सर्टिफिकेट तथा दो साल तक अध्ययन करने वाले को डिप्लोमा, तीन साल तक अध्ययन करने वाले को इंटरमीडिएट  सर्टिफिकेट और चार साल तक अध्ययन करने वाले को कंप्लीट डिग्री मिलेगी. इससे निश्चित रूप से बालिकाओं को फायदा मिलेगा, क्योंकि वे लड़कियां जो स्नातक कक्षाओं के प्रथम द्वितीय वर्ष में विवाह आदि कारणों से पढ़ाई छोड़ देती थीं, उनके हाथ कुछ नहीं लगता था. और अंतिम प्रमाण-पत्र के रूप में वह मात्र इंटर का ही प्रमाणपत्र अपनी शैक्षिक योग्यता के रूप में प्रस्तुत कर पाती थीं. अब स्थिति में परिवर्तन की उम्मीद नजर आ रही है. नई शिक्षा नीति के इस प्रावधान के तहत बालिकाएँ निस्संकोच इंटर के बाद भी अपनी शिक्षा को जारी रख पाएँगी. एक बिन्दु जिससे बालिका शिक्षा को प्रोत्साहन मिलने की उम्मीद है वह प्रावधान  यह है  कि वे छात्र-छात्राएं जो किसी कारणवश पढ़ाई छोड़ देते हैं, वे अगर बाद में किसी कोर्स में प्रवेश लेते हैं तो उनके  पूर्व सर्टिफिकेट को मान्यता दी जाएगी. इसे क्रेडिट ट्रांसफर के  रूप में देखा या परिभाषित किया जा रहा है. महिलाओं के जीवन में शादी वह पड़ाव होता है जो उसके जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन ला देता है. प्रेग्नेंसी के बाद तो शिक्षा के विषय में सोचना और दुष्कर हो जाता है. भले ही अब ट्रेंड बादल रहा है और महिलाएं अपनी शिक्षा व कैरियर को लेकर बहुत सजग हो गईं हैं. इस सजगता को इस नयी नीति के इस नए बिन्दु से निश्चित रूप से बल मिलेगा.

पहाड़ में बालिका शिक्षा की दशा एवं दिशा. सांकेतिक फोटो: गूगल से साभार

एक और प्रावधान जो बालिका शिक्षा में उल्लेखनीय परिवर्तन ला सकता है वह यह कि यदि छात्र-छात्राएं एक कोर्स के मध्य में कोई दूसरा कोर्स करना चाहतें हैं तो वह उस कोर्स से एक निश्चित समयावधि तक ब्रेक लेकर अपना दूसरा कोर्स पूरा कर सकतें हैं. ब्रेक की समयावधि के निश्चित हो जाने पर ही इस बिन्दु पर विस्तृत रूप से कुछ कहा जा सकता है, किन्तु अभी के लिए यह उम्मीद की जा सकती है कि इस व्यवस्था से निश्चित रूप से उन बालिकाओं को लाभ मिलेगा जिनके पास समय का अभाव होता है. समयाभाव इस अर्थ में कि पहाड़ी क्षेत्रों में आज भी कन्या का बोझ माता-पिता के कंधों सबसे बड़ा बोझ है जिसे वे जल्द से जल्द उतार देना चाहतें हैं.

(लेखिका रा.बा.इं. कॉलेज द्वाराहाट, अल्मोड़ा में अंग्रेजी की अध्‍यापिका हैं)

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