साहित्‍य-संस्कृति

उत्तराखंड का परंपरागत रेशा शिल्प

उत्तराखंड का परंपरागत रेशा शिल्प

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चन्द्रशेखर तिवारी प्राचीन समय में समस्त उत्तराखण्ड में परम्परागत तौर पर विभिन्न पादप प्रजातियों के because तनों से प्राप्त रेशे से मोटे कपड़े अथवा खेती-बाड़ी व पशुपालन में उपयोग की जाने वाली सामग्रियों का निर्माण किया जाता था. पहाड़ में आज से आठ-दस दशक पूर्व भी स्थानीय संसाधनों से कपड़ा बुनने का कार्य होता था. ट्रेल (1928) के अनुसार उस काल में पहाड़ के कुछ काश्तकार लोग कुछ जगहों पर कपास की भी खेती किया करते थे. ज्योतिष कुमाऊं में कपास की बौनी किस्म से कपड़ा बुना जाता था. कपड़ा बुनने के इस काम को तब शिल्पकारों की उपजाति कोली किया करती थी. हाथ से बुने इस कपड़े को 'घर बुण’ के नाम से जाना जाता था. टिहरी रियासत में कपड़ा बुनने वाले बुनकरों को because पुम्मी कहा जाता था. भारत की जनगणना 1931, भाग-1, रिपोर्ट 1933 में इसका जिक्र आया है. उस समय यहां कुमाऊं के कुथलिया बोरा व दानपुर के बुनकर तथा गढ़वाल के ...
सम्प्रेषण की अद्भूत क्षमता रखते हैं कुमाउंनी लोकभाषा के समयबोधक शब्द

सम्प्रेषण की अद्भूत क्षमता रखते हैं कुमाउंनी लोकभाषा के समयबोधक शब्द

साहित्‍य-संस्कृति
भुवन चन्द्र पन्त शब्द अथवा शब्दों के समुच्चय से कोई भाव या विचार बनता है. यदि मात्र एक शब्द से ही हम किसी भाव को अभिव्यक्त करने मे समर्थ हों, तो यह भाषा की बेहतरीन खूबी है. इस दिशा में दूसरी because भाषाओं की अपेक्षा लोक भाषाओं का शब्द भण्डार ज्यादा समृद्ध दिखता है. एक भाव को प्रकट करने के लिए कुछ शब्दों का समूह अथवा पूरे वाक्य का प्रयोग करने के बजाय एक ही शब्द से भाव उजागर हो जाय, यह विशेषता कुमाउंनी लोकभाषा को दूसरी भाषाओं से एक कदम आगे दिखती है. ज्योतिष पांच ज्ञानेन्द्रियों आंख, कान, नाक, जिह्वा, तथा त्वचा द्वारा अनुभूत रूप, ध्वनि, गन्ध, रस तथा शब्द या नाद के भेद को अभिव्यक्त करने के लिए सामान्यतः सीमित शब्द उपलब्ध होते हैं- यथा स्वाद के लिए तिक्त, कसाय, मीठा, खट्टा,आदि, गन्ध के लिए सुगन्ध या दुर्गन्ध इसी तरह ध्वनि के लिए मन्द,तीव्र, कठोर आदि. यद्यपि विभिन्न जानवरों व because पक्...
मानसिक स्वास्थ्य का संरक्षण आवश्यक है 

मानसिक स्वास्थ्य का संरक्षण आवश्यक है 

साहित्‍य-संस्कृति
विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस (10 अक्तूबर) पर विशेष प्रो. गिरीश्वर मिश्र  आयुर्वेद के अनुसार यदि आत्मा , मन और इंद्रियाँ प्रसन्न रहें तो आदमी को स्वस्थ कहते हैं. ऐसा स्वस्थ आदमी ही सक्रिय हो कर उत्पादक कार्यों को पूरा करते हुए न केवल अपने लक्ष्यों की पूर्ति कर पाता है बल्कि समाज और देश की उन्नति में योगदान भी कर पाता है. निश्चय ही यह एक आदर्श स्थिति होती है परंतु यह स्थिति किसी भी तरह because निरपेक्ष नहीं कही जा सकती. जीवन का आरम्भ और जीने की पूरी प्रक्रिया परिस्थितियों के बीच उन्ही के विभिन्न अवयवों से बनते-बिगड़ते एक गतिशील परिवेश के बीच आयोजित होती है. उदाहरण के लिए देखें तो पाएँगे साँस लेना भी परिवेश से मिलने वाले आक्सीजन पर निर्भर करता है जो नितांत स्वाभाविक और प्राकृतिक लगता है पर प्रदूषण होने पर या फेफड़े में संक्रमण हो तो मुश्किल हो जाती है. कोविड महामारी में यह सबने बखूबी देखा ...
क्या सच में गाँधी तुम घटते जा रहे हो!..

क्या सच में गाँधी तुम घटते जा रहे हो!..

साहित्‍य-संस्कृति
गांधी जयंती (2 अक्टूबर) पर विशेष प्रकाश उप्रेती देखो गाँधी तुम्हारे चेले कितनी मौज में हैं. because तुम हाड़-मांस की काया के भीतर थे लेकिन तुम्हारे चेले उसके बाहर हैं. इस देश में सबसे आसान और सबसे कठिन गाँधीवादी बनना है. अगर गाँधी का मतलब नैतिक बल, स्वयं को संशोधित करना, आचरण की शुद्धता और अभ्यास है तो वो सबसे मुश्किल है लेकिन अगर कुर्ता, पजामा, टोपी, झोला और कोल्हापुरी चप्पलों का अर्थ ही गाँधीवादी होना है तो सबसे आसान है. because मुझे पता है गाँधी तुम भी अब इस दूसरी जमात वाले लोगों को ही चाहते हो. ज्योतिष आज तुम्हारे चेले इसी जमात के तो हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो वो वहाँ नज़र आते जहाँ किसान आंदोलन कर रहे हैं, जहाँ एक माँ अपनी बेटी के लिए आँचल फैला रही है, जहाँ because भात-भात कहते हुए एक लड़की प्राण त्याग देती है, जहाँ सैकडों मजदूर सड़कों पर थे, जहाँ महामारी में इलाज के लिए लोग तड़प रहे...
गांधी जी की दत्तक पुत्री-‘मीरा बहन’

गांधी जी की दत्तक पुत्री-‘मीरा बहन’

साहित्‍य-संस्कृति
एक साधिका और सेविका की जीवन-यात्रा डॉ. अरुण कुकसाल ‘गांधीवाद जैसी कोई वस्तु नहीं है और मैं नहीं because चाहता कि मेरे पीछे मैं कोई सम्प्रदाय छोड़ कर जाऊं. मैंने अपने ही ढंग से सनातन सत्यों को हमारे दैनिक जीवन और समस्याओं पर लागू करने का केवल प्रयत्न किया है....मैंने जो मत बनाये हैं और जिन परिणामों पर मैं पहुंचा हूं, वे किसी भी तरह अन्तिम नहीं हैं. यदि इनसे अच्छे मुझे मिल जांय, तो मैं इन्हें कल ही बदल सकता हूं. मेरे पास दुनिया को सिखाने के लिए कोई नई चीज नहीं है. सत्य और अहिंसा अनन्त काल से चले आ रहे हैं. ज्योतिष ...मैं अहिंसा का उतना बड़ा पुजारी नहीं हूं, जितना कि सत्य का हूं; और मैं सत्य को प्रथम स्थान देता हूं तथा अहिंसा को दूसरा. मैं सत्य के खातिर अहिंसा को छोड़ सकता हूं....मेरे मत के विरुद्ध धर्मशास्त्रों के प्रमाण दिये गए हैं; परन्तु मेरा यह विश्वास पहले से अधिक दृढ़ हुआ है कि स...
बीज शब्द: अभिव्यक्तियाँ, चेतना, मौलिकता, बरकत, विचारधारा

बीज शब्द: अभिव्यक्तियाँ, चेतना, मौलिकता, बरकत, विचारधारा

साहित्‍य-संस्कृति
गांधी का सामाजिक चिन्तन (शोध आलेख) नीलम पांडेय नील, देहरादून, उत्तराखंड  “गांधी, खादी और आजादी गोरों की बरबादी थी, अहिंसा, अदृश्य, अमूक, हक हकूक की लाठी थी” एक महान नेतृत्व के लिऐ सदैव उच्च आदर्शों की आवश्यकता होती है, इसके बिना एक अच्छे समाज की कल्पना कभी नही की जा सकती है. समाज को सही पथ पर ले जाने के लिऐ एक सही नेतृत्व का होना अत्यंत आवश्यक है. जहाँ आदर्श नही हैं, वहाँ लक्ष्य भी नही हैं. गांधी जी ने इन्ही आर्दशों तथा अनुशासनों को अपनाकर, समाज में अपनी सहज, सजीव अभिव्यक्तियाँ दी और समाज के हर एक वर्ग ने उन अपनत्व भरी अभिव्यक्तियों में कहीं ना कहीं स्वयं को महसूस किया तथा उस समय, देशकाल परिस्थियों में उसकी महती आवश्कता को देखते हुऐ असंख्य लोग उनके विचारों के साथ जुड़ते चले गये थे. गांधी जी जानते थे, कि समाज में, सामाजिक चेतना का बीज मंत्र एक साथ, एकमेव चिंतन कर चलने में ही है, जिसमें...
राष्ट्रपिता का भारत–बिम्ब और नैतिकता का व्यावहारिक आग्रह

राष्ट्रपिता का भारत–बिम्ब और नैतिकता का व्यावहारिक आग्रह

साहित्‍य-संस्कृति
गांधी जयंती (2 अक्टूबर) पर विशेष प्रो. गिरीश्वर मिश्र  इतिहास पर नजर दौडाएं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह देश अतीत में सदियों तक मजहबी साम्राज्यवाद के चपेट में रहने के बाद अंग्रेजी साम्राज्यवाद, जो मुख्यत: because आर्थिक शोषण में विश्वास करता था, के अधीन रहा. राजनैतिक रूप से स्वतंत्र होने के बाद एक तरह के औपनिवेशिक चिंतन से ग्रस्त  अब वैश्वीकरण के युग में पहुँच रहा है. इस दौर में सामाजिक-सांस्कृतिक चिंतन के क्षेत्र में महात्मा गांधी का ‘हिन्द स्वराज’ सर्वाधिक सृजनात्मक उपलब्धि के रूप में उपस्थित हुआ. यह स्वयं में एक आश्चर्यकारी घटना है क्योंकि इस बीच पश्चिम से परिचय के बाद उसे अपनाते हुए हमारे मानसिक संस्कार तद्रूप होते गए. वह भाषा, व्यवहार, पहरावा तथा शिक्षा आदि सबमें परिलक्षित होता है. स्मरणीय है अमेरिकी चिंतन ने यूरोप से अलग दृष्टि स्वीकार की और रूस ने भी स्वायत्त चिंतन की दृष्टि वि...
हिंदी में हत्यारे पहचान लिए जाते हैं!

हिंदी में हत्यारे पहचान लिए जाते हैं!

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(हिंदी दिवस पर विशेष)   चंद्रेश्वर सारे विरोधों एवं अंतर्विरोधों के बावज़ूद हमारी हिंदी खिल रही है, खिलखिला रही है. हिन्दी को दबाने,पीछे करने या  किनारे लगाने के अबतक के सारे षडयंत्र विफल  होते रहे हैं. हिन्दी के नाम पर चाहे जो भी राजनीति होती रही हो; पर उसे कोई धूल नहीं चटा पाया है तो  इसी कारण से कि वह वास्तव में इस देश की मिट्टी की सुगंध  से पैदा हुयी भाषा है. इसमें कोटि-कोटि मेहनतकश कंठों की समवेत आवाज़ एवं पुकार शामिल है. यह समय के सुर-ताल को पहचानने वाली भाषा है. यह ज़्यादा लचीली एवं समावेशी प्रकृति की भाषा है. इस  भाषा एवं भारतीयता के बीच एक साम्य है कि दोनों में सहज स्वीकार्यता का भाव देखने को मिलता रहा है. जिस तरह भारतीयता के ताने-बाने का युगों-युगों से निर्माण होता रहा है,समन्वय के विविध रंगीन धागों से, ठीक उसी तरह हिन्दी भी बनी है कई बोलियों एवं भाषाओं के शब्दों को आत्मस...
ज्ञान की कब्रगाहों में हिंदी का प्रेत

ज्ञान की कब्रगाहों में हिंदी का प्रेत

साहित्‍य-संस्कृति
हिंदी दिवस (14 सितम्बर) पर विशेष प्रकाश उप्रेती हर वर्ष की तरह आज फिर से हिंदी पर गर्व और विलाप का दिन आ ही गया है. हिंदी के मूर्धन्य विद्वानों को इस दिन कई जगह ‘जीमना’ होता है. मेरे एक शिक्षक कहा करते थे कि “14 सितंबर because को हिंदी का श्राद्ध होता है और हम जैसे हिंदी के पंडितों का यही दिन होता जब हम सुबह से लेकर शाम तक बुक रहते हैं”.  कहते तो सही थे. इन 68 वर्षों में हिंदी प्रेत ही बन चुकी है. तभी तो स्कूल इसकी पढाई कराने से डरते हैं और अभिभावक इस भाषा को पढ़ाने में संकोच करते हैं. सरकार ने इसके लिए खंडहर बना ही रखा है. अब और कैसे कोई भाषा प्रेत होगी. हिंदी पर सेमिनार, संगोष्ठी, अखबारों के लंबे-लंबे संपादकीय और गंभीर मुद्रा में चिंतन व चिंता का आखिर यही एक दिन है. ज्योतिष ...आज के हिंदी विभाग because लेखकों के नहीं, लिपिकों के उत्पादन केंद्र बन गए हैं" और गमों-रंजिश में ढहते हिं...
भाषाई  स्वराज्य है  लोकतंत्र  की अपेक्षा 

भाषाई  स्वराज्य है  लोकतंत्र  की अपेक्षा 

साहित्‍य-संस्कृति
हिंदी दिवस (14 सितम्बर) पर विशेष प्रो. गिरीश्वर मिश्र  कहते हैं कि जब अंग्रेज भारत में पहुंचे थे तो यहाँ के समाज में शिक्षा और साक्षरता की स्थिति देख  दंग  रह गए थे. इंग्लैण्ड की तुलना में यहाँ के विद्यालयों और शिक्षा की व्यवस्था अच्छी थी. because यह बात कहीं और से नहीं उन्हीं के द्वारा किए सर्वेक्षणों से प्रकट होती है. जब वे शासक बने तो यह उन्हें गंवारा न हुआ और आधिपत्य के लिए उन्होंने भारत की शिक्षा और ज्ञान को अप्रासंगिक और व्यर्थ बनाने का भयानक षडयंत्र रचा. because वे  अपने प्रयास में कामयाब  रहे और भारतीय शिक्षा का सुन्दर सघन बिरवा को निर्ममता से उखाड़  फेंका. उन्होंने संस्कृति और ज्ञान के देशज प्रवेश द्वार पर कुण्डी लगा दी और एक नई पगडंडी पर चलने को बाध्य कर दिया जिसके तहत हम ‘ ए फार एपिल एपिल माने सेव’ याद करते हुए नए ज्ञान को पाने  के लिए  तत्पर हो गए. ज्योतिष जब अंग्रेज  देश ...