भाषाई  स्वराज्य है  लोकतंत्र  की अपेक्षा 

हिंदी दिवस (14 सितम्बर) पर विशेष

प्रो. गिरीश्वर मिश्र 

कहते हैं कि जब अंग्रेज भारत में पहुंचे थे तो यहाँ के समाज में शिक्षा और साक्षरता की स्थिति देख  दंग  रह गए थे. इंग्लैण्ड की तुलना में यहाँ के विद्यालयों और शिक्षा की व्यवस्था अच्छी थी. because यह बात कहीं और से नहीं उन्हीं के द्वारा किए सर्वेक्षणों से प्रकट होती है. जब वे शासक बने तो यह उन्हें गंवारा न हुआ और आधिपत्य के लिए उन्होंने भारत की शिक्षा और ज्ञान को अप्रासंगिक और व्यर्थ बनाने का भयानक षडयंत्र रचा. because वे  अपने प्रयास में कामयाब  रहे और भारतीय शिक्षा का सुन्दर सघन बिरवा को निर्ममता से उखाड़  फेंका. उन्होंने संस्कृति और ज्ञान के देशज प्रवेश द्वार पर कुण्डी लगा दी और एक नई पगडंडी पर चलने को बाध्य कर दिया जिसके तहत हम ‘ ए फार एपिल एपिल माने सेव’ याद करते हुए नए ज्ञान को पाने  के लिए  तत्पर हो गए.

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जब अंग्रेज  देश छोड़ कर गए तो उनके मानक के अनुसार भारत शिक्षा और निरक्षरता के अन्धकार में ऐसा डूबा कि आज तक उबर ही नहीं सका. यह अलग बात है कि भारत के पास ज्ञान की अकूत विरासत निरंतर मौजूद थी और आज भी है और अब हम उसके प्रति संशय, अविश्वास के नजरिये से ग्रस्त हो  चुके हैं. अंग्रेजों ने शिक्षा की ऎसी दुर्व्यवस्था स्थापित  कर दी  कि  भाषा, शिक्षा, संस्कृति आदि का  सवाल  स्वतंत्र भारत के बौद्धिक विमर्श में मधुमक्खी का छत्ता because जैसा बन गया और धीरे-धीरे उसे न छेड़ने में ही भलाई समझी गई और उसके प्रति उपेक्षा और तटस्थता का रुख अपनाने में ही राजनैतिक कल्याण होते देखा. शिक्षा  की राह  और  मंजिल दोनों ही इस तरह बदल  दी गई कि ज्ञान का देसी राज-मार्ग और ज्ञान-कोष दोनों ही व्यर्थ  लगने लगे.  आँख मूंद कर हम पराई मंजिल और राह को अंगीकार कर लिए और इनमें परिवर्तन की बात ठंडे बस्ते में डाल दी गई.

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देश के विकास की पञ्च वर्षीय योजनाओं में इनसे जुड़े सवाल हाशिए पर ही बने रहे. सरकारें आती जाती रहीं पर इनके समाधान के लिए किसी तरह की उत्सुकता या पहल से बचते-बचाते हम यह सोच कर समय काटते रहे कि यह उतना जरूरी नहीं है जितना कल कारखाना लगाना. भाषा और शिक्षा जैसे सवालों की अहमियत नजर अंदाज होती रही और उसके लिए निवेश करने में कोताही  बरती जाती रही . सब कुछ यंत्रवत चलता रहा. इस बीच विदेश की पश्चिमी आधुनिक तथा because विकसित दुनिया की नक़ल पर आधे-अधूरे मन से कुछ-कुछ होता रहा. बौद्धिक वर्ग में यदाकदा छटपटाहट और बेचैनी दिखी पर कभी गहरे आत्म-निरीक्षण या आत्मान्वेषण की हिम्मत नहीं पड़ी. अपनी भाषा में सोचने-समझने को फैशन के विरुद्ध मानते हुए शिक्षा एक नकली कृत्य या ‘रिचुअल’ बन गई. हम एक अंधी सुरंग में घुस गए जिसमें से निकलने की अब राह नहीं सूझ रही है. अंग्रेजों ने उपनिवेश के लिए जो रास्ता अख्तियार किया था और  देश के आत्मबोध के लिए जो चुनौती खडी की थी वह न केवल आज भी बनी हुई है बल्कि कुछ ज्यादा  जटिल हो चुकी है क्योंकि हममें से बहुत लोग ऐसे भी हैं जो उसे चुनौती भी नहीं मान रहे हैं.

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गौरतलब है कि अंग्रेजों ने शिक्षा-दीक्षा और भारत की संस्कृति का जो खाका हमारे लिए बनाया था वही मानक बन गया और उसी लीक पर हम चल पड़े, यह मान कर कि यही एक मात्र विकल्प है. उन्होंने भारत को ‘इंडिया’ बना दिया और हम उसे गढ़ने लगे. भारत, भारतीयता और भारत-भाव पराया, गौड़ और निरर्थक बनता गया. because सांस्कृतिक विस्मरण की प्रक्रिया आधुनिक होने, विकसित होने की वैश्विक दौड़ की अनिवार्यता बन गई. चूँकि विचार और कर्म भाषा से अनुविद्ध होते हैं , हमारे अस्तित्व की बनावट और बुनावट में भाषा और शिक्षा के संस्कार की अनिवार्य भूमिका होती है. देखने-समझने अर्थात अपने होने का अर्थ इसी के जरिये बनता बिगड़ता है. अंग्रेजी भाषा ज्ञान के क्षेत्र में जिस तरह पैठी उसने ज्ञान के साथ अज्ञान को भी बढाया. हम अपने यथार्थ को न केवल उधार की कोटियों में रख कर देखने लगे बल्कि वह भी देखने लगे जो था भी नहीं. सोचने-विचारने की प्रक्रिया कुछ इस तरह अस्त-व्यस्त और विश्रृंखलित हुई कि ज्ञान की गुणवत्ता प्रश्नांकित होती गई.

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सरकारी तौर पर 14  because सितम्बर 1949 को हिन्दी संवैधानिक तौर पर राजभाषा घोषित हुई और उसे अंग्रेजी से टक्कर लेने के लिए कहा गया. अंग्रेजी बड़े पुखते आधार पर खडी थी जिसे दूरदर्शी अंग्रेजों ने बनाया था. उनका  जाल मजबूत था  और  वे सरकारी काम काज, अध्ययन, आदि के लिए प्रामाणिक और वैश्विक उपाय के रूप में अंग्रेजी को बैठा गए थे और भारतीय मानस को इस सत्य के अधीन कर गए थे .  

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संवाद , संपर्क और ज्ञान की भाषा के रूप हिंदी की  भारत में व्यापक उपस्थिति है. उल्लेखनीय है कि इन्डियन ओपिनियन में 1909 में लिखते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने यह विचार प्रकट किया था कि ‘सारे भारत के लिए जो भाषा चाहिए, वह हिन्दी ही होगी’. आगे चल कर स्वतंत्रता के लिए छिड़े राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए because हिन्दी देश की संपर्क भाषा बन गई. विद्यार्थी के रूप में बापू ने अंग्रेजी में पढाई को एक अतिरिक्त भार के रूप में महसूस किया था जो ज्ञानार्जन में बाधक बनती है और शैक्षिक प्रगति में रुकावट आती है.  वस्तुत: संस्कृत को छोड़ दें तो सभी भारतीय भाषाओं से अधिक व्यापक क्षेत्र में फैली है. इसका क्षेत्र हिमालय की तराई , नर्मदा , पंजाब, सिन्ध, गुजरात, बंगाल, छोटा नागपुर तक विस्तृत है. इसकी सीमाएं बांग्ला, ओडिया , तेलुगु, नेपाली, पंजाबी, गुजराती और सिन्धी से जुड़ती हैं.

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आज के डिजिटली दौर में मीडिया में हिन्दी की उपस्थति बढी है. देश के बाहर भी भारतवंशी  और  आप्रवासी जनों के साथ हिन्दी का प्रसार हुआ है. लचीली, व्यापक शब्द भण्डार के बावजूद, जोड़ने की प्रवृत्ति और खुलेपन  के चलते राजा  राम मोहन राय, केशव चन्द्र सेन, स्वामी दयानंद, तिलक और गांधी ने हिन्दी का पक्ष रखा था. संस्कृत  से निकली मराठी, बंगला, उडिया और गुजराती भाषाओं से हिन्दी का निकट रिश्ता है. अनेक विदेशी प्रतिष्ठान भी because हिन्दी का पठन-पाठन और अनुसंधान करने में जुटे हैं. हिन्दी क्षेत्र जनसंख्याबहुल होने से व्यापार के लिए अच्छा बाजार भी उपलब्ध करा  देता है. हिन्दी फ़िल्में, संगीत (जैसे गजल) पूरे भारत में प्रचलित है. भारत की आधी से ज्यादा जनसंख्या हिन्दीभाषी है. शेष में ज्यादातर लोग हिन्दी को समझते हैं. यह स्थिति तब से है जब संत संन्यासी और आम जन देश के एक कोने से दूसरे – बदरी नाथ, जगनाथ पुरी, रामेश्वरम , कामाख्या, द्वारिका , मथुरा, काशी, अयोध्या आदि स्थानों को आते जाते थे. वर्षों से धार्मिक पर्यटन चलता रहा है. गुरु नानक, नामदेव,  और सूफी फकीरों ने हिन्दी को अपनाया. हिन्दी भाषा जन अभिव्यक्ति का सबल माध्यम है.

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भारत की आत्मा भारत की भाषाओं  में बसती है. भारतीय चिंतन की निरंतरता तिरुवल्लूर, नामदेव, शंकरदेव, तुलसीदास सबमें मिलती है. अंग्रेजों का राज्य ख़त्म होने पर भी because अंग्रेजी संस्कार और सोच-विचार बने रहे और अंग्रेजी  का  आतंक चारों और फ़ैल रहा है. भावात्मक ऐक्य पिछड़ रहा है. प्रादेशिक भाषाओं में न्याय, प्रशासन और उच्च शिक्षा में ज्ञानार्जन आदि की व्यवस्था न होने से जनता की कठिनाई बढ़ती है. आज जनता की सरस्वती होने पर भी हिंदी के प्रति दुर्भावना बनी हुई है.

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सरकारी तौर पर 14  सितम्बर 1949 को हिन्दी संवैधानिक तौर पर राजभाषा घोषित हुई और उसे अंग्रेजी से टक्कर लेने के लिए कहा गया. अंग्रेजी बड़े पुखते आधार पर खडी थी जिसे दूरदर्शी अंग्रेजों ने बनाया था. उनका  जाल मजबूत था  और  वे सरकारी काम काज, अध्ययन, आदि के लिए प्रामाणिक और वैश्विक उपाय के रूप में अंग्रेजी को बैठा गए थे और भारतीय मानस को इस सत्य के अधीन कर गए थे . अंग्रेजी के साथ प्रतिद्वंदिता में हिन्दी हीनता का पर्याय बन गई. because अंग्रेजी जानने वाला ही जानकार और बाक़ी अनपढ़ या गंवार बन गए. अंग्रेजी पबलिक स्कूलों की बाढ़ जिस तरह आई है और सरकारें जिस तरह उसे तरजीह दे  रही हैं वह मानसिक रुग्णता के स्तर  तक पहुँच चुका है.  यह नियति का खेल ही है कि जो भाषा उपनिवेशवाद के खिलाफ लडी वह उपनिवेश ख़त्म होने के बाद बंदी बना ली गई. गुलामी से मुक्ति पाकर हिन्दी निस्तेज हो गई. पर हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को खोने का अर्थ सांस्कृतिक एकता, भारतीयता, भारतीय मानस, भारत की पहचान को खोना है.

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भारत की आत्मा भारत की भाषाओं  में बसती है. भारतीय चिंतन की निरंतरता तिरुवल्लूर, नामदेव, शंकरदेव, तुलसीदास सबमें मिलती है. अंग्रेजों का राज्य ख़त्म होने पर भी अंग्रेजी संस्कार और सोच-विचार बने रहे और अंग्रेजी  का  आतंक चारों और फ़ैल रहा है. भावात्मक ऐक्य पिछड़ रहा है. प्रादेशिक भाषाओं में न्याय, प्रशासन और उच्च शिक्षा में ज्ञानार्जन आदि की व्यवस्था न होने से जनता की कठिनाई बढ़ती है. आज जनता की सरस्वती होने पर भी हिंदी के प्रति दुर्भावना बनी हुई है. because विदेशी राजभाषा और स्वदेशी लोक भाषा का समीकरण सरकार और जनता के बीच की खाई को बढाने वाली बात है. वास्तविक अर्थों में अंग्रेजी राजकीय भाषा बनी हुई है. विदेशी भाषा का लादा जाना विनाशकारी है. अंग्रेजी बोलना जानना श्रेष्ठता का ऐसा प्रतीक बन चुका है कि हम  अपनी भाषा का तिरस्कार कर हिन्दी  को  हिंगलिश बना रहे हैं. भारत की बहु भाषिकता  के बीच संपर्क सूत्रों की पहचान करने पर यही लगेगा कि मध्यदेश की हिन्दी और उसकी बोलियों का प्रसार व्यापक है. भाषाओं के बीच परस्परपूरकता भी है because और हिन्दी इस संपर्क भाषा की भूमिका निभा सकने में समर्थ है. यदि बापू ने राष्ट्र भाषा के बिना राष्ट्र को गूंगा कहा था तो यही आशय था हिन्दी में संवाद सहज है. हिन्दी का विकास अंतर भाषा के रूप में हुआ था और अनेक अहिंदी भाषियों ने हिन्दी की शक्ति को पहचाना था. अंग्रेजी का मोह और हिंदी से असंतोष वैश्विकता के  व्यामोह के चलते है जिसकी सीमाएं आए दिन प्रकट हो रही हैं. नई शिक्षा नीति के अंतर्गत इस समस्या की पहचान की गई है और भारतीय भाषाओं को ज्ञानार्जन का माध्यम बनाने का संकल्प लिया गया है और भारतीय ज्ञान परम्परा को भी स्थान दिया गया है. आवश्यकता है कि हम औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर निकलें और भारत को भारत की दृष्टि से समझें.

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लोकतंत्र की सर्वस्वीकृत आधारभूत प्रतिज्ञा को मानें तो लोकतंत्र लोक का होता है, लोक के लिए होता है, और लोक के द्वारा ही संचालित होता है. because यानी लोक की भागीदारी लोकतंत्र की रीढ़ होती है. साथ ही लोक से उद्भूत होने और लोक में ही अवस्थित होने के कारण लोकतंत्र की व्यवस्था के प्रति स्वाभाविक रूप से उत्तरदायी हो जाती है. सचेत रूप से लोक-जीवन चले और लोक में अपेक्षित सामर्थ्य आ सके इसका आधारभूत उपाय लोक-भाषा होती है जिसके माध्यम से लोग घर-बाहर दैनंदिन कार्य संपादित करते हैं. इसी लोक-भाषा की गूँज के बीच ही आदमी का जन्म और पालन-पोषण होता है. इस भाषा को आदमी वाचिक परम्परा में सुन-सुन कर प्राकृतिक रूप से सहजता के because साथ आत्मसात कर लेता है. जन्म से ही अति-अभ्यास के कारण इस भाषा की तैयारी औपचारिक शिक्षा के पहले ही हुई रहती है. यदि औपचारिक शिक्षा उसी की निरंतरता में हो तो शैक्षिक दक्षता सुगम हो जाती है. यह लोक भाषाई परिवेश बिना किसी किस्म के भेद-भाव के व्यापक रूप से सबको उपलब्ध रहता है और उसी के बदौलत सामाजिक संवाद और संचार का काम भी चलता है.

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अंग्रेज जब भारत से बिदा हुए तो अपने उपनिवेश के राजकाज की सारी व्यवस्था छोड़ कर गए जिसमें बहुत से भारतीय प्रशिक्षित और दीक्षित ही नहीं थे बल्कि उनका मन भी because अंग्रेजवत बदल चुका था. ऐसे में लोकतंत्र के प्रशासन के तंत्र-मंत्र की भाषा, रीति, नीति सब कुछ यथावत अक्षुण्ण रखा गया. कहने को लोक-भाषा हिन्दी को पदेन ‘राजभाषा’ तो मान लिया गया परन्तु प्रशासन के लिए नई नवेली होने के कारण उसे पंद्रह साल की परिवीक्षा (प्रोबेशन) पर रख दिया गया. अंग्रेजी जो ‘सह राज-भाषा’ कही गई वह पूर्ववत राज भाषा के रूप में कार्य करती रही.

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भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक भाषाओं के द्वारा यह काम सदियों से होता आ रहा है. यदि हिन्दी क्षेत्र की बात करें तो सूर, कबीर, तुलसी, जायसी, मीरा, रहीम, रसखान आदि अनेक लोक भाषाई प्रतिभाओं ने इन लोक भाषाओं में कालजयी काव्य रचनाएं की हैं. अत: इनकी शक्ति को कम नहीं आंकना चाहिए. चूंकि भाषाएँ प्रयोग के because अधीन होती हैं उनमें कई तरह से परिवर्तन भी आता है. भाषाओं की सामर्थ्य उनके प्रयोग की व्यापकता पर निर्भर करता है जो आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक परिदृश्य पर टिकी होती है. चूंकि लोक-हित ही लोकतंत्र का चरम लक्ष्य होता है, इसलिए लोक-भाषा का उपयोग कोई प्रश्न ही नहीं होना चाहिए.

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वैकल्पिक पहेली तो नहीं ही होनी चाहिए. परन्तु भारत में लोकतंत्र तो आया पर उसकी प्रभावी भाषा यहाँ की लोक-भाषा या देशज भाषा नहीं बन सकी. अंग्रेज जब भारत से बिदा हुए तो because अपने उपनिवेश के राजकाज की सारी व्यवस्था छोड़ कर गए जिसमें बहुत से भारतीय प्रशिक्षित और दीक्षित ही नहीं थे बल्कि उनका मन भी अंग्रेजवत बदल चुका था. ऐसे में लोकतंत्र के प्रशासन के तंत्र-मंत्र की भाषा, रीति, नीति सब कुछ यथावत अक्षुण्ण रखा गया. कहने को लोक-भाषा हिन्दी को पदेन ‘राजभाषा’ तो मान लिया गया परन्तु प्रशासन के लिए नई नवेली होने के कारण उसे पंद्रह साल की परिवीक्षा (प्रोबेशन) पर रख दिया गया. अंग्रेजी जो ‘सह राज-भाषा’ कही गई वह पूर्ववत राज भाषा के रूप में कार्य करती रही.

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अंग्रेजों ने गुलामों पर आधिपत्य के लिए जिस अंग्रेजी को स्थापित किया वह स्वतंत्रता मिलने पर भारतीय शासकों द्वारा भी प्रयुक्त रही और हिन्दी अनुवाद की भाषा बन गई जिसके लिए राज because भाषा विभाग खोल दिया गया जो यह सुनिश्चित करता है कि अनुवाद हो रहा है कि नहीं. साथ ही हिन्दी के सरकारी प्रोत्साहन के अनेक उपाय शुरू हुए. वैसे तो संविधान में संघ के कर्तव्य के रूप में हिन्दी-विकास चिह्नित किया गया पर स्थिति लगभग पहले जैसी ही बनी रही. पंद्रह साल की अवधि आने राजनीति की दुरभिसंधि आड़े आई और अंग्रेजी को अनंत काल की छूट दे दी गई.

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पचहत्तर साल पहले जब अंग्रेजी को भारत की (कार्यकारी!) राज-भाषा बनाया गया तो भारत में दशमलव एक प्रतिशत लोग अंग्रेजी जानते थे. आज यह  चौदह प्रतिशत से कुछ ज्यादा हो गया है. because प्रतिष्ठा और  नौकरी पाने, ज्ञान-विज्ञान में प्रगति तथा नीति-निर्माण आदि में हम आज भी अंग्रेजी पर निर्भर हैं. न्याय, प्रशासन, स्वास्थ्य, और उच्च शिक्षा में  लोक-भाषा अभी भी अनसुनी है. इसका दुष्परिणाम सृजनात्मकता के अभाव, अवसर की उपलब्धता में भेद-भाव और प्रतिभाओं को कुंठित करने वाला रहा है. नई शिक्षा नीति से कुछ आस बंधी है. लोक को वाणी दे कर ही लोकतंत्र की सामर्थ्य बढ़ सकेगी.

(लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपतिमहात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा हैं.)

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