(हिंदी दिवस पर विशेष)
- चंद्रेश्वर
सारे विरोधों एवं अंतर्विरोधों के बावज़ूद हमारी हिंदी खिल रही है, खिलखिला रही है. हिन्दी को दबाने,पीछे करने या किनारे लगाने के अबतक के सारे षडयंत्र विफल होते रहे हैं. हिन्दी के नाम पर चाहे जो भी राजनीति होती रही हो; पर उसे कोई धूल नहीं चटा पाया है तो इसी कारण से कि वह वास्तव में इस देश की मिट्टी की सुगंध से पैदा हुयी भाषा है. इसमें कोटि-कोटि मेहनतकश कंठों की समवेत आवाज़ एवं पुकार शामिल है. यह समय के सुर-ताल को पहचानने वाली भाषा है. यह ज़्यादा लचीली एवं समावेशी प्रकृति की भाषा है. इस भाषा एवं भारतीयता के बीच एक साम्य है कि दोनों में सहज स्वीकार्यता का भाव देखने को मिलता रहा है. जिस तरह भारतीयता के ताने-बाने का युगों-युगों से निर्माण होता रहा है,समन्वय के विविध रंगीन धागों से, ठीक उसी तरह हिन्दी भी बनी है कई बोलियों एवं भाषाओं के शब्दों को आत्मसात कर या पचाकर. इसकी मुस्कान का रहस्य है,इसका बहुत ही सरल-तरल होना. यह बर्फ की तरह ठोस होने या जमने से हमेशा बचती आयी है.
हमारी हिंदी बार-बार ठगी जाती है; पर इसने किसी को कभी भी ठगने का काम नहीं किया है- “कबीरा आप ठगाइए और न ठगिए कोय.” यह ख़ूब बोलना जानती है, बेहद मुखर है; इसीलिए सत्ता और सरकारी संरक्षण से दूर की जाती रही है.
हमारी हिंदी बार-बार ठगी जाती है; पर इसने किसी को कभी भी ठगने का काम नहीं किया है- “कबीरा आप ठगाइए और न ठगिए कोय.” यह ख़ूब बोलना जानती है, बेहद मुखर है; इसीलिए सत्ता और सरकारी संरक्षण से दूर की जाती रही है. यह गोरखनाथ, चंदवरदायी, जगनिक, सरहपा, अमीर खुसरो, विद्यापति,कबीर,जायसी, सूर, तुलसी, रहीम, रैदास, मीरा, रसखान, भूषण, बिहारी, भारतेन्दु, ग़ालिब, मीर, ज़िगर, मज़ाज़, जोश, फ़ैज़, फ़िराक़ एवं प्रेमचंद की भाषा है. यह महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, निराला, प्रसाद, शिवपूजन सहाय, पंत, महादेवी, सुभद्रा कुमारी चौहान, मैथिलीशरण गुप्त, माखन लाल चतुर्वेदी, हरिऔध, राहुल, नागार्जुन, शमशेर, त्रिलोचन, केदार, मुक्तिबोध,भवानी प्रसाद मिश्र, रामविलास शर्मा, रेणु, नामवर सिंह, रघुवीर सहाय, धूमिल, वीरेन डंगवाल, गोरख पांडेय की भाषा है. यह हीरा डोम, तुलसी राम, ओमप्रकाश वाल्मीकि और मलखान सिंह की भाषा है. यह दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी की भाषा है. यह 1857 के सिपाही गदर और स्वाधीनता संग्राम की भाषा है. यह एक ऐसी भाषा है, जो बकौल त्रिलोचन ”जिसकी साँसों को कभी आराम नहीं है.”
हिंदी और हिंदी में फ़र्क़ करने की ज़रूरत है; जैसे हिन्दुस्तान और ‘न्यू इंडिया’ में. हमारी हिंदी हमारी ताक़त और पहचान है. इसमें फ़रेब करने वाले चीन्ह लिए जाते हैं. इसमें हत्यारे पहचान लिए जाते हैं. इसमें रक्तपिपासु आत्माओं के लिए कोई जगह नहीं है; ज़्यादा समय के लिए.
हमारी हिन्दी हमेशा उथल-पुथल के बीच से ही,टूटी-बिखरी चीज़ों के भीतर से ही एक नया आकार ग्रहण करती आयी है. आज की तारीख़ में भी यह विविध स्तरों पर सत्य के साथ खड़ी होकर प्रतिरोध की आवाज़ को सामने ला रही है. यह आज भी एक सतत युद्ध में शामिल भाषा है. यह अपने जन्म के समय से ही युद्धों का सामना करती रही है. यह बर्बर,क्रूर एवं हिंसक समय में भी सौन्दर्य और प्रेम को बचाने वाली भाषा रही है. यह नामचीनों के साथ -साथ असंख्य गुमनाम और अल्पख़्यात; किन्तु मानवीय मूल्यों के लिए संघर्ष करने वाले कवियों-कथाकारों और लेखकों -चिंतकों की भी भाषा रही है. हिंदी और हिंदी में फ़र्क़ करने की ज़रूरत है; जैसे हिन्दुस्तान और ‘न्यू इंडिया’ में. हमारी हिंदी हमारी ताक़त और पहचान है. इसमें फ़रेब करने वाले चीन्ह लिए जाते हैं. इसमें हत्यारे पहचान लिए जाते हैं. इसमें रक्तपिपासु आत्माओं के लिए कोई जगह नहीं है; ज़्यादा समय के लिए.
(लेखक- अध्यक्ष,हिन्दी विभाग, महारानी लाल कुँवरि स्नातकोत्तर महाविद्यालय,बलरामपुर,उत्तर प्रदेश हैं)