मानसिक स्वास्थ्य का संरक्षण आवश्यक है 

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विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस (10 अक्तूबर) पर विशेष

प्रो. गिरीश्वर मिश्र 

आयुर्वेद के अनुसार यदि आत्मा , मन और इंद्रियाँ प्रसन्न रहें तो आदमी को स्वस्थ कहते हैं. ऐसा स्वस्थ आदमी ही सक्रिय हो कर उत्पादक कार्यों को पूरा करते हुए न केवल अपने लक्ष्यों की पूर्ति कर पाता है बल्कि समाज और देश की उन्नति में योगदान भी कर पाता है. निश्चय ही यह एक आदर्श स्थिति होती है परंतु यह स्थिति किसी भी तरह because निरपेक्ष नहीं कही जा सकती. जीवन का आरम्भ और जीने की पूरी प्रक्रिया परिस्थितियों के बीच उन्ही के विभिन्न अवयवों से बनते-बिगड़ते एक गतिशील परिवेश के बीच आयोजित होती है. उदाहरण के लिए देखें तो पाएँगे साँस लेना भी परिवेश से मिलने वाले आक्सीजन पर निर्भर करता है जो नितांत स्वाभाविक और प्राकृतिक लगता है पर प्रदूषण होने पर या फेफड़े में संक्रमण हो तो मुश्किल हो जाती है. कोविड महामारी में यह सबने बखूबी देखा और पाया था.

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वस्तुतः हमारा परिवेश भौतिक , सामाजिक और मानसिक हर स्तर पर सक्रिय होता है और ये सभी एक दूसरे से सघनता से गुँथे होते हैं. इन परिवेशों को भी आदमी अपने हस्तक्षेप से रचता-गढ़ता रहता है. मनुष्य की अब तक की संस्कृति- यात्रा इसका ज्वलंत प्रमाण प्रस्तुत करती है. वस्त्र, आवास, आहार, अलंकरण और तमाम सामाजिक संस्थाएँ because इत्यादि – सभी कुछ मनुष्य रचता रहा है और अपनी इन रचनाओं के सम्पर्क में आकर खुद भी बदलता रहा है. इस तरह स्वयं और परिवेश पर दुतरफ़ा प्रभाव डालने वाली अंत: प्रक्रिया विभिन्न स्तरों पर अनवरत चलती चली आ रही है. मनुष्य निजी और सामाजिक स्मृति धारण करता है जिससे सब कुछ संचित होता हुआ आगे के लिए भी उपलब्ध रहता है.

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इस सब के बीच हम अपने अल्पकालिक (जैसे- क्षणिक और दैनिक) और दीर्घकालिक लक्ष्य और उपक्रम चलाते रहते हैं. मनुष्य के रूप में हमारा शरीर नित्य क्षण क्षण की योजना के साथ निरंतर because कार्य करता है. हमारा पाचन तंत्र, श्वसन तंत्र, ज्ञान और कर्म की इंद्रियाँ, हृदय, मस्तिष्क आदि सभी निरंतर कार्यरत रहते हैं और हमें इसका पता भी चलता रहता है क़ि उनकी गतिविधि किस तरह की है. इनको ले कम हम ख़ास तौर पर तब सचेत हो जाते हैं जब इनमें कोई विशेष उतार-चढ़ाव मालूम पड़ता होता है.

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जब इनके बीच संतुलन बना रहता है तो जीवन की गति और लय हमारे अनुकूल रहती है और हम अपने को स्वस्थ कहते हैं पर जब यही लय रुकने-टूटने लगती है तो हम अस्वस्थ महसूस करते हैं because जीवन व्यापार में व्यवधान आने लगता है. थोड़ी गहराई और ब्योरे में जाँय तो पता चलेगा कि इन व्यवधानों के मूल में मुख्यतः भौतिक, शारीरिक और मानसिक परिस्थितियाँ होती हैं.

इसलिए शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के बीच दीवार खींचना बेमानी है. बहुतेरे शारीरिक रोग मानसिक कारण से और मानसिक रोग शारीरिक कारण से पैदा होते हैं. इसलिए ‘मानसिक’ और ‘शारीरिक’ के बीच भेद करना एक स्तर के बाद व्यर्थ हो जाता है. सत्य यही है कि दोनों एकीकृत और संघटित हो कर संयुक्त रूप से कार्य करते हैं.

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हम अपने साथ इच्छाओं, आशाओं, प्रेरणाओं, रुचियों, मनोवृत्तियों, क्षमताओं का भंडार भी रखते हैं जो घटता बढ़ता रहता है. ये स्वतंत्र तो होते हैं परंतु इनका सबका भौतिक और शारीरिक दुनिया से भी रहता है. because इसलिए शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के बीच दीवार खींचना बेमानी है. बहुतेरे शारीरिक रोग मानसिक कारण से और मानसिक रोग शारीरिक कारण से पैदा होते हैं. इसलिए ‘मानसिक’ और ‘शारीरिक’ के बीच भेद करना एक स्तर के बाद व्यर्थ हो जाता है. सत्य यही है कि दोनों एकीकृत और संघटित हो कर संयुक्त रूप से कार्य करते हैं. मन शरीर को और शरीर मन को निरंतर प्रभावित करता रहता है. प्रसिद्ध कहावत ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा‘ यही भाव व्यक्त करती है कि स्वस्थ और प्रसन्न मन हो तो सब कुछ अच्छा लगता है. दूसरी ओर शरीर को सभी कार्यों का साधन भी कहा गया है-

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शरीरमाद्यम् ख़लु धर्मसाधनम्. इसलिए शरीर और मन को परस्परनिर्भर मानना ही उचित है और दोनों की समुचित सेवा-सुश्रूषा होनी चाहिए. हमारी मनोवृत्तियाँ अपरिमित होती हैं और मन में संकल्प-विकल्प के because ज़रिए कोई भी विचार प्रबल या दुर्बल हो सकता है. चूँकि इनके स्रोत बाह्य जगत या स्मृति कहीं भी हो सकते हैं इसलिए ये निर्बंध होते हैं. इन चित्तवृत्तियों को यदि बेलगाम छोड़ दें तो वे कुछ भी कर सकती हैं. स्मृति और कल्पना के योग से विचारों और भावनाओं का ताना-बाना बुना जाता रहता है जो आदमी को उलझाने के लिए काफ़ी होता है. व्यक्ति का उन्नयन और अधःपतन कुछ भी हो सकता है. इनको नियमित करना ही योग है और पूरा योग शास्त्र इसी के उपाय में संलग्न है.

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स्वास्थ्य के लिए युक्ताहार विहार बड़ा आवश्यक है. अतः नियमित व्यायाम , संतुलित आहार और पर्याप्त नींद को सामान्य जीवन का अंग बनाना जहां आवश्यक है वहीं स्वास्थ्य के लिए नुक़सानदेह व्यवहारों जैसे तम्बाकू because सेवन और मद्यपान से बचना भी ज़रूरी है. रोगों के लिए अपने में प्रतिरोध की क्षमता बनाए रखने के लिए तैयारी होनी भी आवश्यक है. आज जिस तरह की परिस्थितियाँ बन रही हैं सजगता के साथ निगरानी, जाँच पड़ताल और देख-रेख भी आवश्यक है होती है कि कोई रोग तो विकसित नहीं हो रहा है.

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आज के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का सत्य चिंताजनक दिशा का संकेत दे रहा है. यथार्थ को रचती सिरजती आज की मीडिया चाहतों, ज़रूरतों और आवश्यकताओं के बीच अंतर को धूमिल करती जा रही है. उसके प्रभाव में आदमी यह विवेक खोता जा रहा है कि क्या करणीय है और क्या वरणीय है. आवश्यकताओं की सूची निरंतर बढ़ती जा रही है और बाज़ार इसी में अपनी because सफलता मानती है. नई नई प्रौद्योगिकी के हस्तक्षेप के चलते ये सवाल और जटिल होते जा रहे हैं. कुंठा, चिंता, अवसाद, तनाव और अकेलापन के साथ अनेक मानसिक रोग व्याप्त होते जा रहे हैं.

आज व्यक्ति केंद्रित जीवन में जीवन के लक्ष्यों का प्रश्न नए ढंग से देखे जाने लगे हैं. इनके फलस्वरूप वास्तविकता के स्तर पर प्रतिस्पर्धा और हिंसा का दायरा बढ़ता जा रहा है. साथ में भौतिक जगत को ही सत्य because की सीमा मान कर उपभोग पर अतिरिक्त बल देती आज की जीवन-शैली धरती की धारण क्षमताओं की सीमा को चुनौती दे रही है…

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आज व्यक्ति केंद्रित जीवन में जीवन के लक्ष्यों का प्रश्न नए ढंग से देखे जाने लगे हैं. इनके फलस्वरूप वास्तविकता के स्तर पर प्रतिस्पर्धा और हिंसा का दायरा बढ़ता जा रहा है. साथ में भौतिक जगत को ही सत्य because की सीमा मान कर उपभोग पर अतिरिक्त बल देती आज की जीवन-शैली धरती की धारण क्षमताओं की सीमा को चुनौती दे रही है जिनको अनसुना करना जीवन और मानवतावादी के प्रति अपराध सा है. व्यक्ति और सामाजिक जीवन के स्तर पर स्वास्थ्य की रक्षा और उसके विपरीत रोग से बचाव तथा उसे दूर करना स्वाभाविक लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया है. आज संतुलित दृष्टि के साथ जीवन के लिए सार्थक पहल की ज़रूरत है.

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(लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपतिमहात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा हैं.)

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