ज्ञान की कब्रगाहों में हिंदी का प्रेत

हिंदी दिवस (14 सितम्बर) पर विशेष

प्रकाश उप्रेती

हर वर्ष की तरह आज फिर से हिंदी पर गर्व और विलाप का दिन आ ही गया है. हिंदी के मूर्धन्य विद्वानों को इस दिन कई जगह ‘जीमना’ होता है. मेरे एक शिक्षक कहा करते थे कि “14 सितंबर because को हिंदी का श्राद्ध होता है और हम जैसे हिंदी के पंडितों का यही दिन होता जब हम सुबह से लेकर शाम तक बुक रहते हैं”.  कहते तो सही थे. इन 68 वर्षों में हिंदी प्रेत ही बन चुकी है. तभी तो स्कूल इसकी पढाई कराने से डरते हैं और अभिभावक इस भाषा को पढ़ाने में संकोच करते हैं. सरकार ने इसके लिए खंडहर बना ही रखा है. अब और कैसे कोई भाषा प्रेत होगी. हिंदी पर सेमिनार, संगोष्ठी, अखबारों के लंबे-लंबे संपादकीय और गंभीर मुद्रा में चिंतन व चिंता का आखिर यही एक दिन है.

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…आज के हिंदी विभाग because लेखकों के नहीं, लिपिकों के उत्पादन केंद्र बन गए हैं” और गमों-रंजिश में ढहते हिंदी के लेखक संगठन आदि से मार्का प्रमाण-पत्र मिल चुका होता है वो सभी पूरे वर्ष भर इसी एक दिन की उम्मीद में गुजार देते हैं. 

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कैलेंडर की तारीख में हर साल यह दिन 14 सितंबर के रूप आता है और बृहत हिंदी समाज को चिंतनमय करके फिर अगले वर्ष के कैलंडर में लौट जाता है. यह आवागमन की प्रक्रिया इतनी भी आसान नहीं जितना लग रही है. हिंदी का बूढ़ा और नौजवान विद्वान (वैसे तो हिंदी पट्टी का हर व्यक्ति अपने को हिंदी का विद्वान माने बैठा होता है) because जिसको की विद्वान होने की मान्यता विश्वविद्यालयों में चलने वाले हिंदी के विभाग, राजेन्द्र यादव इन्हें ‘ज्ञान की कब्रगाह कहते थे’ तथा श्रीप्रकाश शुक्ल की राय जिनको लेकर यह है- “दुर्भाग्य यह है कि आज ज्ञान -केंद्रित विभागों को हमने गिरोह-केंद्रित विभागों में बदल दिया है. आज ‘ज्ञानबल’ की जगह ‘बाहुबल’ ने ले ली है जिससे ‘आत्मबल’ कमजोर हुआ है.

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…आज के हिंदी विभाग लेखकों के नहीं, लिपिकों के उत्पादन केंद्र बन गए हैं” और गमों-रंजिश में ढहते हिंदी के लेखक संगठन आदि से मार्का प्रमाण-पत्र मिल चुका होता है वो सभी because पूरे वर्ष भर इसी एक दिन की उम्मीद में गुजार देते हैं. इसलिए यह प्रक्रिया सामान्य नहीं है. अब सवाल उठता है कि क्या जन-जन में भाषा का संस्कार और उसके प्रति अभिरुचि एक दिन के जलसे से पैदा की जा सकती है या भाषा हर दिन के परिश्रम से गतिशील व जन सामान्य की अभिरुचि का हिस्सा बनती है?

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इस बात का प्रमाण यह है कि हिंदी के विकास के नाम पर जो बात होती है वह सिनेमा और बाजार को केंद्र में रखकर ही होती है. हिंदी के विकास के नाम पर वह आँकड़े होते हैं जिनसे यह पता चलता है कि हिंदी फिल्मों को देखने के लिए दुनिया के मुल्कों में कितनी संख्या में लोग हिंदी सीख रहे हैं या फिर भारत इतना बड़ा because उपभोक्ता बाजार है कि बहुत सारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मालिक अपने कर्मचारियों को हिंदी सीखने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं ताकि वे भारत के बाजार में आसानी से अपना उत्पाद बेच सकें.

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अगर पहली बात को ही सही मान लिया जाए तो राष्ट्र भाषा प्रचार समिति वर्धा के प्रस्ताव पर 14 सितंबर 1953 से हर वर्ष सितंबर माह की 14 तारीख को हिन्दी दिवस के रूप में मनाए जाने के संकल्प के बाद हिंदी के विकास का कोई आंकलन हुआ है? कोई प्रगति रिपोर्ट? हिंदी में ज्ञान शाखाओं का निर्माण? या फिर यह तारीख, because मात्र रस्म अदायगी भर रह गई है! थोड़ा ठहर के सोचने की जरूरत है क्योंकि हिंदी आज भी ज्ञान और रोजगार की भाषा से ज्यादा मनोरंजन और उपभोक्ता की भाषा है. बड़ी–बड़ी कंपनियाँ और हिंदी सिनेमा इसका भरपूर उपयोग कर रहा है. उसके लिए भाषा बाय-प्रोडक्ट है.

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इस बात का प्रमाण यह है कि हिंदी के विकास के नाम पर जो बात होती है वह सिनेमा और बाजार को केंद्र में रखकर ही होती है. हिंदी के विकास के नाम पर वह आँकड़े होते हैं जिनसे because यह पता चलता है कि हिंदी फिल्मों को देखने के लिए दुनिया के मुल्कों में कितनी संख्या में लोग हिंदी सीख रहे हैं या फिर भारत इतना बड़ा उपभोक्ता बाजार है कि बहुत सारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मालिक अपने कर्मचारियों को हिंदी सीखने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं ताकि वे भारत के बाजार में आसानी से अपना उत्पाद बेच सकें. इसके अतिरिक्त हिंदी के विकास पर छाती फुलाने के लिए और क्या है!

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सभी सांकेतिक फोटो pixabay.com से साभार

क्या सात दशकों के ‘हिंदी दिवस’ या ‘हिंदी पखवाड़े’ की कोई उपलब्धि देवकीनन्दन खत्री जैसी है? क्या इन 68 वर्षों में हम, हिंदी में ऐसा ज्ञान सृजित कर पाएँ हैं कि उसे पढ़ने और जानने के because लिए लोगों ने हिंदी सीखी हो! या कोई ऐसा गल्प ही रच डाला हो जिसको हम हिंदी की उपलब्धि कहें और दुनिया भी हिंदी को बाजार की भाषा के रूप में न देखकर ज्ञान की भाषा के रूप में देखे . ऐसी कोई उपलब्धि तो मेरी नज़र में नहीं है. हाँ, एक बात जरुर है कि हिंदी ‘हार्ड लैंड’ में 8 लाख बच्चे हिंदी में ही फ़ैल हो जाते हैं. हम फिर भी हिंदी दिवस पर गर्वोक्ति से भरे रहेंगे और रस्मी आयोजन सरकारी, गैर सरकारी दफ़्तरों में हिंदी का पखवाड़े में होंगे? इस दौर में यह कारोबार ऑनलाइन में सिमट जाएगा.

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हिंदी दिवस की इस यात्रा में हिंदी जन-जन की भाषा या फिर ज्ञान व रोजगार की भाषा भले ही न बन पाई हो लेकिन अनुवाद की भाषा जरूर बन गई है. यह हिंदी दिवस की उपलब्धि है. चाहे तो because राष्ट्रभाषा आयोग इस उपलब्धि पर गर्व कर सकता है और आने वाले 100 वर्षों तक इसी उपलब्धि के सहारे हिंदी दिवस और पखवाडा मना सकता है. इसके साथ ही इधर के कुछ वर्षों में यह देखने को मिला है कि हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए बनी संस्थाएं हिंदी में ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया में कुछ हद तक जुटी हैं लेकिन इसमें हिंदी दिवस और उस दिवस के अवसर पर सारगर्भित व गरिष्ठ व्याख्यान देने वाले विद्वानों की कोई भूमिका नहीं है. because सरकार के हिंदी दिवस ने सिर्फ अनुवादक पैदा किए न की पाठक और भाषाई संस्कार से युक्त सामाजिक मनुष्य.  साथ ही हिंदी के गरिष्ठ भाषणकर्ताओं ने रीढ़विहीन चेले  तैयार किए न कि कोई हिंदी का स्कॉलर.

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भाषा का वर्चस्ववाद कहीं से भी उपनिवेशवाद से कम खतरनाक नहीं है. हिंदी को इस वर्चस्ववाद से भी बचना होगा. तभी ज्ञान के नए आयाम और कला, साहित्य, संगीत का वैविध्य because हिंदी से जुड़ पाएगा. इसी बात में हिंदी दिवस की सार्थकता को देखना चाहिए न की दुनिया के कितने लोग हिंदी बोल रहे हैं, कितने विद्वानों ने कितनी जगह हिंदी पर भाषण दे दिया और कहाँ-कहाँ हिंदी पढ़ाई जा रही के भ्रामक आँकड़ों के संदर्भ में. इसी में हिंदी की समृद्धि और  उन्नति है.

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हिंदी दिवस पर बात करते हुए हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिंदुस्तान किसी एक भाषा का नहीं बल्कि मातृ भाषाओं का देश है. यहाँ हर प्रांत की भाषा और उप-भाषाएँ हैं. मैं जानबूझकर उन्हें बोली नहीं कह रहा हूँ क्योंकि वह व्याकरण शास्त्रियों के लिए बोली हो सकती है लेकिन उसे बोलने के लिए वह मातृ भाषा है. भाषा की इन्हीं because विविधताओं के कारण यह उक्ति भी प्रचलित हुई कि ‘कोस- कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी. इस वाणी को हिंदी की एक विराट सत्ता में समाहित नहीं किया जा सकता है. इस बार मंचों के मठाधीश हिंदी दिवस पर व्याख्यान दें तो वह हिंदी को हाथी और प्रांतीय भाषाओं को चींटी न समझे. सबको पाँव तले रोंदा नहीं जा सकता कोई सूंड पर भी चढ़ सकती है. इसलिए हिंदी दिवस की सार्थकता और भाषा के सवाल पर नए तरह से विमर्श की आवश्यकता है.

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भाषा का वर्चस्ववाद कहीं से भी उपनिवेशवाद से कम खतरनाक नहीं है. हिंदी को इस वर्चस्ववाद से भी बचना होगा. तभी ज्ञान के नए आयाम और कला, साहित्य, संगीत का वैविध्य हिंदी से जुड़ because पाएगा. इसी बात में हिंदी दिवस की सार्थकता को देखना चाहिए न की दुनिया के कितने लोग हिंदी बोल रहे हैं, कितने विद्वानों ने कितनी जगह हिंदी पर भाषण दे दिया और कहाँ-कहाँ हिंदी पढ़ाई जा रही के भ्रामक आँकड़ों के संदर्भ में. इसी में हिंदी की समृद्धि और  उन्नति है.

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(लेखक हिमांतर के कार्यकारी संपादक एवं दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं.)

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