- भुवन चन्द्र पन्त
शब्द अथवा शब्दों के समुच्चय से कोई भाव या विचार बनता है. यदि मात्र एक शब्द से ही हम किसी भाव को अभिव्यक्त करने मे समर्थ हों, तो यह भाषा की बेहतरीन खूबी है. इस दिशा में दूसरी
भाषाओं की अपेक्षा लोक भाषाओं का शब्द भण्डार ज्यादा समृद्ध दिखता है. एक भाव को प्रकट करने के लिए कुछ शब्दों का समूह अथवा पूरे वाक्य का प्रयोग करने के बजाय एक ही शब्द से भाव उजागर हो जाय, यह विशेषता कुमाउंनी लोकभाषा को दूसरी भाषाओं से एक कदम आगे दिखती है.ज्योतिष
पांच ज्ञानेन्द्रियों आंख, कान, नाक, जिह्वा, तथा त्वचा द्वारा अनुभूत रूप, ध्वनि, गन्ध, रस तथा शब्द या नाद के भेद को अभिव्यक्त करने के लिए सामान्यतः सीमित शब्द उपलब्ध होते हैं- यथा स्वाद के लिए तिक्त, कसाय, मीठा, खट्टा,आदि, गन्ध के लिए सुगन्ध या दुर्गन्ध इसी तरह ध्वनि के लिए मन्द,तीव्र, कठोर आदि. यद्यपि विभिन्न जानवरों व
पक्षियों के द्वारा की जाने वाली ध्वनियों को दूसरी भाषाओं में भी जरूर कुछ अलग नामों से जाना जाता है , लेकिन उनका शब्द भण्डार भी सीमित है. लेकिन कुमाउंनी लोकभाषा इस अर्थ में इतनी समृद्ध है कि इसमें हर स्वाद,हर ध्वनि, हर गन्ध के लिए एक सटीक शब्द प्रयोग किया जाता है और श्रोता उस शब्द से ही संबंधित स्वाद, गन्ध और ध्वनि का सहज ही एकदम सही-सही अनुमान लगा लेता है.ज्योतिष
गन्ध के लिए किहड़ैन (बाल या ऊनी कपड़े जलने की), हन्तरैन (सूती कपड़े जलने की), खौंसेन (मिर्च जलने की), चुरैन (पेशाब की गन्ध), गुयेन (पाखाने की गन्ध), सितड़ैन (सीलन की गन्ध),
भैंसेन (भैंस की गन्ध), भुटैन (भूनी हुई चीज की गन्ध), सुनैन (जले दूध की गन्ध), जवैन (खाद्य पदार्थ के जल जाने की गन्ध) इसी तरह बारिश की आवाज- दणदणाट, कागज मोड़ने की ध्वनि-पड़पड़ाट, मन की मन बुदबुदाने की ध्वनि- मणमणाट, हृदय की धड़कन बढ़ना- भटभटाट, नदी-नालों की ध्वनि- सुसाट-भुभाट, चिल्लाने की ध्वनि चिचाट, गाय के रम्भाने की ध्वनि अणाट, किसी के रोने की टिटाट आदि आदि.ज्योतिष
ये तो रही बात ज्ञानेन्द्रियों द्वारा अनुभूत जानकारी को व्यक्त करने की. इसके साथ ही समय के बोध के लिए कुमाउंनी भाषा के कुछ शब्दों में यांत्रिक घड़ी का समय बताने की आवश्यकता नहीं होती. यों जब घड़ी नामक यंत्र का आविष्कार नहीं हुआ था, तब भी सनातन संस्कृति में घटी, पला जैसे समय मापक मानक थे. घड़ी के लिए ‘वाच’
शब्द अंग्रेजी से आया वरना हिन्दी में तो घटी (घड़ी) जिसका मानक समय 24 मिनट का होता था उसी के नाम पर यांत्रिक घड़ी का नाम भी दिया गया. जल घड़ी, रेत घड़ी और सूर्य घडी की लम्बी यात्रा के बाद हम वर्तमान यांत्रिक घड़ी तक पहुंचे. लेकिन कुमाउंनी लोकजीवन में समय का सही-सही व सटीक वर्णन करने के लिए अपना अलग शब्दकोष पहले ही मौजूद था.ज्योतिष
कुमाउंनी में बीते हुए कल के
लिए एक ही शब्द ‘ब्येई’ व आने वाले कल के लिए ‘भोव’ अथवा परिष्कृत रूप में ‘ब्येली’ व ‘भोल’ शब्द का प्रयोग ही पर्याप्त है. इसी तरह हिन्दी में परसों भी दोनों अर्थों में प्रयोग होता है, जिसमें काल का प्रयोग होने पर ही किस परसों की बात हो रही है, अन्दाजा लगाना पड़ता है.
ज्योतिष
प्रातः काल व सायंकाल की बेला का सही-सही अन्दाज लगाने के लिए ‘मुख अन्यार’ या ‘मुख्य उज्याव’ शब्द यह समझाने के लिए पर्याप्त था कि क्या समय रहा होगा. ‘मुख अन्यार’ तब प्रयोग किया जाता है, जब अन्धेरे में मुख तो दिखता है लेकिन चेहरा पहचान में नहीं आता जब कि ‘मुखउज्याव’ शब्द यह आभास कराने को पर्याप्त है कि रोशनी इतनी है कि चेहरा पहचाना जा सके. यद्यपि इसके लिए एक शब्द ‘रत्तै फजर’ का भी उपयोग किया जाता है, जो अरबी भाषा का शब्द है.
इस्लाम में फजर की नमाज इसी शब्द से बना है. लेकिन ‘फजर’ से समय का उतना सटीक अनुमान नहीं लगाया जा सकता, जितना ‘मुख अन्यार’ अथवा ‘मुख उज्याव’ आभास कराते हैं. ‘भुर भुर उज्याव’ भी शब्द प्रयोग में आता है जो ‘मुख अन्यार’ के ज्यादा करीब लगता है. रत्तै ब्याण (यानी रात का ब्याना या अवसान) इसे सूर्योदय का समय कह सकते हैं.ज्योतिष
वहीं शब्द की पुनरावृत्ति रत्तै-रत्तै या रत्तई प्रातःकाल या सुबह तड़के और यदि रत्तै एक बार ही प्रयोग होता है तो पूर्वान्ह का द्योतक है. धुपरि शब्द दोपहर के लिए प्रयोग होता है जो दोपहर का
ही अपभ्रंश प्रतीत होता है. जब कि अपरान्ह के लिए ब्याखुली (यानी ब्याव अथवा सांय के खुलने या आगमन का सूचक है). जब घड़ी जैसा यंत्र नहीं था तो दिन का अनुमान तो सूर्य की गति से लगाया जा सकता था लेकिन रात्रि के अनुमान के लिए हमारे पूर्वज तिहड़ी तार ( तीन तारों का एक समूह) तथा भोर होने का अन्दाजा ‘ब्याणी तार’ से लगाया जाता था.ज्योतिष
समय का बोध कराने के लिए ‘कल’ शब्द ऐसा है जिसका प्रयोग बीते हुए कल या आने वाले कल के लिए समान रूप से किया जाता है. बोलने वाला किस कल की बात कर रहा है, इसके लिए या तो वाक्य में प्रयोग किये जाने वाले काल से उसका बोध होता है अथवा बीता हुआ कल व आने वाले कल शब्दों का प्रयोग करना होता है,
जबकि कुमाउंनी में बीते हुए कल के लिए एक ही शब्द ‘ब्येई’ व आने वाले कल के लिए ‘भोव’ अथवा परिष्कृत रूप में ‘ब्येली’ व ‘भोल’ शब्द का प्रयोग ही पर्याप्त है. इसी तरह हिन्दी में परसों भी दोनों अर्थों में प्रयोग होता है, जिसमें काल का प्रयोग होने पर ही किस परसों की बात हो रही है, अन्दाजा लगाना पड़ता है.ज्योतिष
अंग्रेजी में इसके
लिए ‘डे बिफोर यस्टर्ड डे’ तथा ‘डे आफ्टर टुमारो’ जैसे शब्द इस्तेमाल किये जाते हैं, जब कि कुमाउंनी में मात्र एक ही शब्द ‘पोरब्येई’ या ‘पोरब्येली’ और ‘पोरूहणी’ जैसे शब्द पूर्ण अर्थ स्पष्ट कर देते हैं. इसी तरह ‘पोरसाल’ व ‘पराड़साल’ जैसे शब्द सटीक समय सूचक हैं.ज्योतिष
कुमाउंनी लोकभाषा की एक खूबी यह भी है कि कुछ शब्दों के अन्त में ई प्रत्यय लगा देने से समय के और करीब को दर्शाया जाता है. बेर शब्द बार के अलावा कुमाउंनी
में जल्दी का भी सूचक है, जैसे बेर-अबेर या देर सबेर. यदि समय की और समीपता के लिए प्रयोग होता है तो शब्द में ई प्रत्यय का लगा दिया जाता है.
ज्योतिष
महाकवि भूषण की ‘तीन बेर खाती थी वे तीन बेर खाती हैं’ पंक्तियों से हिन्दी का प्रत्येक पाठक रू-बरू अवश्य हुआ होगा. यहां ‘बेर’ का आशय बार या समय की आवृत्ति से हैं.
यही ‘बेर’ शब्द कुमाउंनी लोकभाषा में भी इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है और इसी शब्द में ‘अ’ प्रत्यय लगने से शब्द ‘अबेर’ बनता है, जिसका आशय देरी से हैं. अब ये शोध का विषय है कि महाकवि भूषण ने यह शब्द लोकभाषा से उधार लिया है अथवा कुमाउंनी लोकभाषा ने अन्यत्र कहीं से.ज्योतिष
कुमाउंनी लोकभाषा की एक खूबी यह भी है कि कुछ शब्दों के अन्त में ई प्रत्यय लगा देने से समय के और करीब को दर्शाया जाता है. बेर शब्द बार के अलावा कुमाउंनी में जल्दी का
भी सूचक है, जैसे बेर-अबेर या देर सबेर. यदि समय की और समीपता के लिए प्रयोग होता है तो शब्द में ई प्रत्यय का लगा दिया जाता है. ई प्रत्यय के लगने पर बेरई (जो मुख-सुख के लिए बेरै हो गया), इसी तरह रत्तई (सुबह तड़के) अल्लई (अभी-अभी) आदि.ज्योतिष
निश्चय ही कुमाउंनी लोकसाहित्य में कम
से कम शब्दों द्वारा अपने मनोभावों को सम्प्रेषित करने की वह अदभुत् क्षमता है, जो भाषा विज्ञान की दृष्टि से लोकभाषा को समृद्ध करती है.ज्योतिष
(लेखक भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल से सेवानिवृत्त हैं तथा प्रेरणास्पद व्यक्तित्वों, लोकसंस्कृति, लोकपरम्परा, लोकभाषा तथा अन्य सामयिक विषयों पर स्वतंत्र लेखन के अलावा कविता लेखन में भी रूचि. 24 वर्ष की उम्र में 1978 से आकाशवाणी नजीबाबाद, लखनऊ, रामपुर तथा अल्मोड़ा केन्द्रों से वार्ताओं तथा कविताओं का प्रसारण.)