Month: July 2020

विश्व-साहित्य के युगनायक- प्रेमचन्द, गोर्की और लू शुन 

विश्व-साहित्य के युगनायक- प्रेमचन्द, गोर्की और लू शुन 

साहित्यिक-हलचल
मुंशी प्रेमचंद के जन्मदिन पर विशेष डॉ. अरुण कुकसाल प्रेमचंद, गोर्की और लू शुन तीन महान साहित्यकार, कलाकार और चिंतक. जीवनभर अभावों में रहते हुए अध्ययन, मनन, चिन्तन और लेखन के जरिए बीसवीं सदी के विश्व-साहित्य के युगनायक बने. एक जैसे जीवन संघर्षों के कारण तीनों वैचारिक साम्यता, स्वभाव और व्यवहार के भी करीब थे. पढ़ने-लिखने का चस्का तीनों पर बचपन से था. प्रेमचन्द के पहले अध्यापक एक मौलवी थे जो उन्हें उर्दू-फारसी सिखाते थे. गोर्की ने अपनी नानी से सुनी कहानियों की हकीकत जानने की जिज्ञासा से पढ़ना शुरू किया. लू शुन मेघावी छा़त्र थे इस कारण पढ़ने का जनून उनमें बचपन से ही था. तीनों के पिता का निधन बचपन में ही हो गया था. निर्धनता के कारण पढ़ने के लिए कई कटु अनुभवों से गुजरना पड़ा था. पर अपनी स्वाध्याय के प्रति जबरदस्त जिद्द के कारण उन्होनें हर मुसीबत का डटकर मुकाबला किया था. जनवादी लेखक हंसर...
अपनी थाती-माटी से आज भी जुड़े हैं रवांल्‍टे

अपनी थाती-माटी से आज भी जुड़े हैं रवांल्‍टे

लोक पर्व-त्योहार
अपने पारंपरिक व्‍यंजनों और संस्‍कृति को आज भी संजोए हुए हैं रवांई-जौनपुर एवं जौनसार-बावर के बांशिदे आशिता डोभाल जब आप कहीं भी जाते हैं तो आपको वहां के परिवेश में एक नयापन व अनोखापन देखने को मिलता है और आप में एक अलग तरह की अनुभूति महसूस होती है. जब आप वहां की प्राकृतिक सुंदरता, संपन्नता, सांस्कृतिक विरासत, खान-पान, रहन—सहन, आभूषण और कपड़े—लत्ते इन चीजों से रू—ब—रू होते हैं तो वह आपको बार—बार अपनी ओर आकर्षित करते हैं और हमारा मन फिर उस स्थान पर जाने को लालायित हो उठता है. ऐसी ही एक सुंदर और सांस्कृतिक परिवेश से संपन्न घाटी है— 'रवांई घाटी' जो आज भी अपनी विरासतों को जिंदा रखे हुए हैं. आज हम आपको रवांई के एक प्रसिद्ध व्यंजन से रू—ब—रू करवा रहे हैं. इसको रंवाई के व्यंजनों का राजा भी कहा जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. बल्कि नाम लिखने से पहले मैं आपको बताना चाहूंगी कि रवांई घाटी में ...
विधवा नारी के उत्पीड़न की करुण कथा है उपन्यास ‘ओ इजा’

विधवा नारी के उत्पीड़न की करुण कथा है उपन्यास ‘ओ इजा’

साहित्यिक-हलचल
 (शम्भूदत्त सती का व्यक्तित्व व कृतित्व-1) डॉ. मोहन चन्द तिवारी कुमाउनी आंचलिक साहित्य के प्रतिष्ठाप्राप्त  रचनाकार शम्भूदत्त सती जी की रचनाधर्मिता से  पहाड़ के स्थानीय लोग प्रायः कम ही परिचित हैं, किन्तु पिछले तीन दशकों से हिंदी साहित्य के क्षेत्र में एक कुमाउनी आंचलिक साहित्यकार के रूप में उभरे सती जी ने अपनी खास पहचान बनाई है. असल में शम्भूदत्त सती जी पहाड़ की माटी से जुड़े एक कुशल लेखक ही नहीं बल्कि उत्कृष्ट कोटि के अनुवादक, धारावाहिक फ़िल्मों के लेखक और पहाड़ की लुप्त होती सांस्कृतिक और परम्परागत धरोहर के संरक्षक गीतकार भी रहे हैं. मेरी सती जी से व्यक्तिगत स्तर पर मुलाकात आज तक नहीं हुई किन्तु फेसबुक में कुमाउनी साहित्य के सन्दर्भ में लिखे मेरे लेखों पर उनके द्वारा की गई सारगर्भित टिप्पणियों से मैं उनकी साहित्यिक प्रतिभा से से सदा अभिभूत रहा. उनके 'ओ इजा' उपन्यास के द्वारा कुमाउनी ...
सिस्टम द्वारा की गई हत्या!

सिस्टम द्वारा की गई हत्या!

किस्से-कहानियां
पहाड़ों में स्वास्थ्य सुविधाओं, अस्पतालों व डॉक्टरों की अनुपलब्धता के कारण बहुत—सी गर्भवती महिलाएं असमय मृत्यु का शिकार हो जाती हैं. ऐसी ही पीड़ा को  उजागर करती है यह कहानी कमलेश चंद्र जोशी रुकमा आज बहुत खुश थी कि उसकी जिंदगी में एक नए मेहमान का आगमन होने वाला था और अब वह दो से तीन होने वाले थे. गांव  से लगभग 100 किलोमीटर दूर शहर में स्थित अस्पताल से रिपोर्ट लेने के बाद रुकमा अपनी सास के साथ वापस घर की ओर चल दी. रुकमा मैदानी क्षेत्र में पली बड़ी थी इसलिए पहाड़ों की घुमावदार सड़कों की उसे आदत नहीं थी जिस वजह से वह जब भी पहाड़ों में बस या कार से सफर करती तो उल्टियां करते परेशान हो जाती. लेकिन आज उसका ध्यान बस के सफर पर नहीं बल्कि अपनी जिंदगी में आने वाले नए मेहमान पर केंद्रित था. वह उसको लेकर न जाने कितने ही सपने बुन रही थी. इस दौरान उसे पता ही नहीं चला कि कब शहर से गांव तक की इतनी ल...
ओ हरिये ईजा..कुड़ी मथपन आग ए गो रे

ओ हरिये ईजा..कुड़ी मथपन आग ए गो रे

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—38 प्रकाश उप्रेती 'ओ...हरिये ईजा ..ओ.. हरिये ईज... त्यूमर कुड़ी मथपन आग ए गो रे' (हरीश की माँ... तुम्हारे घर के ऊपर तक आग पहुँच गई है). आज बात उसी- "जंगलों में लगने वाली आग" की. because मई-जून का महीना था. पत्ते सूख के झड़ चुके थे. पेड़ कहीं से भी खूबसूरत नहीं लग रहे थे. चीड़ के पेड़ों से 'पिरूहु' (चीड़ की घास) झड़ कर रास्तों और जंगलों में फैल गया था. रास्तों में इतनी फिसलन कि चलना मुश्किल हो रहा था. हर जगह पिरूहु ही पिरूहु था. ज्योतिष ईजा जब भी घास काटने जाती 'दाथुल' (दरांती) या लाठी से पिरुहु को रास्ते से हटातीं चलती थीं. यह उनका रोज का काम था. ईजा के साथ सूखी लकड़ी लेने हम भी जाते थे तो ईजा कहती थीं- because "भलि अये हां, इनुपन पिरूहु है रो रडले" (ठीक से आना, इधर चीड़ की घास बिखरी पड़ी है, फिसलना मत). हम संभल-संभल कर चलते थे. कई बार तो 'घस-घस' फिसल भी ...
दीव से ओखा तक

दीव से ओखा तक

ट्रैवलॉग
गुजरात यात्रा - सोमनाथ से द्वारिकाधीश तक डॉ. हरेन्द्र सिंह असवाल  यात्रायें मनुष्य जीवन जीवन की आदिम अवस्था से जुड़ी हुई हैं. चरैवेति चरैवेति से लेकर अनन्त जिज्ञासायें मनुष्य को घेरे रहती हैं. इस बार दिल्ली की लंबी प्रदूषित अवधि ने मुझे बाहर निकलने के लिए इतना विवश किया कि बिना किसी योजना के मै निकल गया जयपुर. जयपुर से डस्टर से चार लोग निकल पड़े. कहाँ जाना है? कहाँ रुकना है? कुछ पता नहीं. आजकल ओयो रूम्स हैं न. जहाँ तक पहुँचेंगे वहीं ओ यो रूम्स देख लेंगे. पुराने ज़माने में लोग यात्रा पर निकलते थे तो चट्टियों पर रुकते थे. ये चट्टियां हर नौ मील पर हुआ करती थी. अक्सर यात्री हर दिन नौ मील की दूरी तय करते और अपने रात्रि पड़ाव तक पहुँच जाते. वे धार्मिक यात्रायें होती थी. जिसमें पुण्य प्राप्ति और मुक्ति की कामना से श्रद्धालु निकला करते थे. मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था. मैं तो  दिल्ली की तंग ...
राजनीति में अदला बदली

राजनीति में अदला बदली

समसामयिक
भाग—1 डॉ. रुद्रेश नारायण मिश्र राजनीति, जिसका संबंध समाज में शासन और उससे संबंधित नियम या नीति से है. यह नीति और नियम, राज करने वालों से लेकर समाज के विभिन्न वर्गों पर प्रभाव डालता है. परंतु सत्ता के कई संदर्भ में इसकी दिशा और दशा बदल जाती है, और तब यह सत्ता विशेष के हाथों की कठपुतली मात्र बनकर रह जाती है. यहीं से राजनीति की अदला बदली का खेल शुरू होता है. सत्ता पाने के लिए और अपने अनुसार समाज में नीति का निर्माण करने के लिए वैश्विक इतिहास में कई संघर्षों को देखा जा सकता है. साथ ही, इन संघर्षों में नीति बनाने वालों की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि नीति निर्माता समय काल और स्थिति को समझता है और उसी के अनुरूप अपने विचारों को व्यक्त करता है. कुछ राजनीति के विचारक स्वतंत्र रूप में अपने विचारों को सभी के समक्ष प्रस्तुत करते दिखते हैं, जिससे उन्हें कई परेशानियों का सामना भ...
“खाव” जब आबाद थे

“खाव” जब आबाद थे

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—37 प्रकाश उप्रेती पहाड़ में पानी समस्या भी है और समाधान भी. एक समय में हमारे यहाँ पानी ही पानी था. इतना पानी कि सरकार ने जगह-जगह सीमेंट की बड़ी-बड़ी टंकियाँ बना डाली थी. जब हमारी पीढ़ी सीमेंट की टंकियाँ देख रही थी तो ठीक उससे पहले वाली पीढ़ी मिट्टी के "खाव" बना रही थी. आज बात उसी 'खाव' की. 'खाव' मतलब गाँवों के लोगों के द्वारा जल संरक्षण के लिए बनाए जाने वाले तालाब. बात थोड़ी पुरानी है लेकिन उतनी भी नहीं कि भुलाई और भूली जा सके. हमारे यहाँ कई जगहों के और गाँवों के नाम के साथ खाव लगा है.जैसे- रुचि खाव, खावे ढे, पैसि खाव, और भी कई खाव थे. कई जगहों की पहचान ही खाव से थी. जगहें तो अब भी हैं लेकिन खाव समतल मिट्टी में तब्दील हो गए हैं. सीमेंट ने पानी और खाव दोनों को निगल लिया. वह समय था जब पानी लेने के लिए सुबह-शाम 'पह्यरियों' (पानी लाने वाली महिलाएँ) की लाइ...
कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में कृषिमूलक जलप्रबन्धन और ‘वाटर हारवेस्टिंग’

कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में कृषिमूलक जलप्रबन्धन और ‘वाटर हारवेस्टिंग’

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-11 डॉ. मोहन चन्द तिवारी (7 फरवरी, 2013 को रामजस कालेज, ‘संस्कृत परिषद्’ द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी 'संस्कृत: वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य' में मेरे द्वारा दिए गए वक्तव्य "कौटिल्य के अर्थशास्त्र में जलप्रबन्धन और वाटर हारवेस्टिंग" से सम्बद्ध लेख) वैदिक काल और बौद्ध काल तक कृषि व्यवस्था के विकास के साथ साथ राज्य के स्तर पर भी जलप्रबन्धन और ‘वाटर हारवेस्टिंग’ प्रणालियों का भी सुव्यवस्थित विकास हुआ. सिन्धु सभ्यता के प्राचीन नगर 'लोथल' की कृषि व्यवस्था के संदर्भ में हम देख चुके हैं कि इस काल के जल-प्रबन्धकों ने विषम तथा विपरीत परिस्थितियों में भी जल संसाधनों के सदुपयोग की अनेक विधियों का आविष्कार कर लिया था. इसी युग में जलवैज्ञानिक भूसंस्कृति यानी ग्रह-नक्षत्रों से अनुशासित कृषि संस्कृति का  भी उदय हुआ जिसे आधुनिक पुरातत्त्वविदों ने ‘टैराक्वा कल्चर’ की संज्ञा दी है....