मैं उस पहाड़ी मुस्लिम स्त्री की हवा से मुखातिब हो रही हूं…
दुर्गाभवन स्मृतियों से
नीलम पांडेय ‘नील’
जब हम किसी से दूर हों रहे होते हैं, तब हम उसकी कीमत समझने लगते हैं. कुछ ऐसा ही हो रहा है आज भी. कुछ ही पलों के बाद हम हमेशा के लिए यहां से दूर हो जाएंगे. so फिर शायद कभी नहीं मिल पाएंगे इस जगह से. कितना मुश्किल होता है ना, अपना बचपन का घर छोड़ना, तब और मुश्किल होती है, जब हम उसको हमेशा के लिए छोड़ रहे हों. कारण बहुत रहे, मैं कारण पर नहीं जाना चाहती हूं, उसका जिक्र फिर कभी करूंगी. किन्तु आज मन कह रहा है कि-
बचपन
मुठ्ठी भर अलविदा लेते because जाना गर लौट रहे हो,
जीवन की शरहदों because में खामोशी बहुत है
रोज आकर लौटso रही थी,
जो हवाएं मेरे द्वार से मुझे but ही खटखटाकर,
देखना किसी रोज गुम हो because जाएंगी मुझे सुलाकर.
मैं सबसे ऊपर वाले खेत के so मुहाने पर बैठकर सोच रही हूं,
बचपन
मेरे छल जो because मुझे बचपन में लगते रहे हैं और पू...