दुर्गाभवन स्मृतियों से
- नीलम पांडेय ‘नील’
जब हम किसी से दूर हों रहे होते हैं, तब हम उसकी कीमत समझने लगते हैं. कुछ ऐसा ही हो रहा है आज भी. कुछ ही पलों के बाद हम हमेशा के लिए यहां से दूर हो जाएंगे.
फिर शायद कभी नहीं मिल पाएंगे इस जगह से. कितना मुश्किल होता है ना, अपना बचपन का घर छोड़ना, तब और मुश्किल होती है, जब हम उसको हमेशा के लिए छोड़ रहे हों. कारण बहुत रहे, मैं कारण पर नहीं जाना चाहती हूं, उसका जिक्र फिर कभी करूंगी. किन्तु आज मन कह रहा है कि-बचपन
मुठ्ठी भर अलविदा लेते
जीवन की शरहदों में खामोशी बहुत है
रोज आकर लौट रही थी,
जो हवाएं मेरे द्वार से मुझे ही खटखटाकर,
देखना किसी रोज गुम हो जाएंगी मुझे सुलाकर.
मैं सबसे ऊपर वाले खेत के मुहाने पर बैठकर सोच रही हूं,
बचपन
मेरे छल जो
मुझे बचपन में लगते रहे हैं और पूजे जाते रहे थे वो अब दुबारा नहीं लगने वाले. मैं उस अनदेखी स्त्री के अनदेखे दु:ख से खुद को अलग करना चाहती हूं किन्तु नहीं हो पा रही हूं. आखिर क्यों?
बचपन
कभी सोच के देखे हो कि जिन्हें तुम सूरज, चाँद, सितारे और न जाने क्या-क्या कहते हो, वो ‘सब-के-सब’ बस टँगे हुए हैं यूँ हीं ‘शून्य’ में… कुछ नहीं करते वे किसी के
दुख-सुख पर. वे निरंतर अपनी ड्यूटी का निर्वाह भर कर रहे हैं और हम नाहक उन पर कशीदे गढ़ते रहते हैं. जीवन भी ऐसा ही है सवाल ज़बाब सा, सतही ‘संतृप्तता’ , तो कभी छलकती ‘असंतृप्तता’ सा ही तो है.बचपन
लगभग तीस कमरे के बड़े से
लकड़ी की नक्काशी से सजे इस घर को और साठ-सत्तर नाली वाले इस बगीचे को दुर्गा दत्त जी यानी दादा जी ने कैंट की एक नीलामी के अन्तर्गत लीज में खरीद लिया था.बचपन
…सुंदरी बेवा,
अपनी कुंवारी ननदियों आमना, आयशा, मामनह और बच्चों के साथ इस जगह से बहुत भारी मन से विदा हुई होंगी. शायद मन का कोई छोटा-सा टुकड़ा वो यहां रख गई हो, तभी तो अक्सर मेरा मन भी खोया-सा रहा. पाकिस्तान लाहौर के किसी कोने में शायद सुन्दरी बेवा अब नहीं होगी या जीर्ण अवस्था में होंगी, उसकी नन्ही-सी नंदिया भी बूढ़ी हो चुकी होंगी. किन्तु उनका मन कभी यहां नहीं आता होगा, ऐसा बिल्कुल नहीं हो सकता है.
बचपन
खुबानी, आडू, प्लम, सेब,
माल्टा के कई पेड़ों से भरा हुआ यह बगीचा समय उपरांत 12-13 किरायेदारों से भर गया.वक़्त अपनी रफ्तार से चल रहा था.
कहते हैं ना हर वक़्त के तय मानकों में कुछ कहानियां बनती हैं, तो यहां भी बनी. कई कहानियां और मिट भी गई.बचपन
1958 में जब नीलामी होने पर यह जगह खरीदी गई होगी तब सुंदरी बेवा, अपनी कुंवारी ननदियों आमना, आयशा, मामनह और बच्चों के साथ इस जगह से बहुत भारी मन
से विदा हुई होंगी. शायद मन का कोई छोटा-सा टुकड़ा वो यहां रख गई हो, तभी तो अक्सर मेरा मन भी खोया-सा रहा. पाकिस्तान लाहौर के किसी कोने में शायद सुन्दरी बेवा अब नहीं होगी या जीर्ण अवस्था में होंगी, उसकी नन्ही-सी नंदिया भी बूढ़ी हो चुकी होंगी. किन्तु उनका मन कभी यहां नहीं आता होगा, ऐसा बिल्कुल नहीं हो सकता है.सुन्दरी बेवा को सोचते हुए, मन में एक सवाल पैदा होता है-
बचपन
जिसे देखा, जाना तक नहीं,
उसके लिए इतना क्यों सोचना आखिर. फिर सोचती हूं कि यदि शरीर औऱ आत्मा सत्य हैं तो फिर ये भी सत्य हो सकता है कि आत्मा एक शरीर के नश्वर हो जाने पर दूसरे शरीर मे प्रवेश करती है. इसी बीच आत्मा में प्रत्येक शरीर से जुड़ने पर वहाँ से प्राप्त कुछ अनुभव होंगे. शरीर कहीं भी जाए किन्तु आत्मा के शाश्वत अनुभव उसको उस जगह पर पूर्ण रूप से मौजूद रखते ही होंगे.बचपन
ना चाहते हुए भी आज मैं उस पहाड़ी
मुस्लिम स्त्री की हवा से मुखातिब हो रही हूं. हवा में किसी की अनुभूति होना, उसको महसूस करना एक भ्रम हो सकता है या बहुत बड़ा सच भी. हमारे पहाड़ में ऐसी स्थिति में छल भी लग जाता है, लेकिन मेरे छल जो मुझे बचपन में लगते रहे हैं और पूजे जाते रहे थे वो अब दुबारा नहीं लगने वाले. मैं उस अनदेखी स्त्री के अनदेखे दु:ख से खुद को अलग करना चाहती हूं किन्तु नहीं हो पा रही हूं. आखिर क्यों?बचपन
मेरी आंखें हरी हो गई हैं, बगीचे का सारा हरापन मेरी आंखों की नमी में उतर आया है. इतनी हरियाली बरबस आंखों से बह निकली है. मैं जानती हूं इसके बाद सब कुछ सूख जायेगा इसीलिए मैं बातें कर लेना चाहती हूं, कुछ बचे-खुचे पेड़ों से ताकि इसके बाद जब कभी वे मुझे नहीं देखेंगे तो मुझे बेवफ़ा नहीं कहेंगे.
आज पहली बार उन्हें अपने जाने की सूचना देना जरूरी समझ रही हूं. मेरे कान पुरानी कई आवाजों को एक साथ सुन रहे हैं. रामलीला देखने जाती पूरे बगीचे की टोली मशाल जला कर नरसिंह ग्राउंड तक जाकर, आधी रात को चीखते-चिल्लाते हंसते-हसंते लौटते हुए ढलान में उतरती थी. हमको राम, लक्ष्मण सीता, हनुमान, रावण के कई संवाद याद होते थे. और उसी को गाते हुए उतरते भी थे ढलान में. लेकिन आज विदा लेते वक्त कोई नहीं है, लेकिन एक आत्मा मुझे यूं खटखटाएगी यह कभी नहीं सोचा था.बचपन
मैं देखती हूं कि मेरे दरवाज़े पर जो पेड़ था, वो उम्र में मुझसे बड़ा था. बगीचे के बहुत से पेड़ मुझसे बड़े थे. कुछ पेड़ मेरी ही उम्र के, कुछ पेड़ मेरे पिता से भी बड़े रहे होंगे.
कुछ पेड मेरे बूढ़े दादा थे. उन पेड़ों से मेरे रिश्ते वैसे ही बने थे जैसे बेहद नजदीकी खून के रिश्ते. घर में बड़े जब हम पर गुस्सा होते, तो हम पेड़ों के पास जाकर बैठ जाते या उसकी किसी नीचे झूलती शाखा पर लटक जाते जैसे उन पर गलबहियां डाल कर, सबकी शिकायत करते हैं.बचपन
उन्हीं की तरह उम्रदराज होने के बाद ही मैं उनके साथ स्वयं के रिश्ते समझ रही हूं, वरना जब मैं उनके करीब थी, तब कभी मैंने उनको जी भर देखा तक नहीं था, बस उतना ही देखा,
जितना उनसे मुझे काम लेना होता था. जब उनकी शाखाओं में बैठना होता या जब उनके फल फूल तोड़ने होते थे. एक अरसे के बाद अब जब मैंने उनको देखा तो आंखें भर आयी. वे सूख रहे थे, उनमें से कई दम तोड़ कर जमीदोज हो चुके थे और उनके नामोनिशान तक नहीं थे.बचपन
एक खेत नीचे सरक कर, मैंने बचपन की सहेली, उसी लड़की को संबोधित किया, तुमको याद है कभी यहां चुस्की प्लम, बादामी खुबानी आदि के कई विशाल पेड़ थे. आमा टोकरियों में प्लम, खुबानी, आडू, मल्टे तोड़कर जो ढेर बनाती थी वह देखने में कितना अदभुत लगता था ना. वह मेरी जैसी कल्पना की आदि नहीं थी शायद.
अतः बोली अब फल टूटेंगे तो ढेर ही लगेंगे ना, सारे पेड़ों में बनाड (जंगली बेल) लग गया अधिकतर सूख गए और कुछ यहां लोगों ने काट दिए. कोई देखभाल वाला ना हो तो पेड़ तो खत्म ही हो जाएंगे. लड़की भावुक नहीं है किन्तु वह अपनी सतही हंसी हमेशा अपने साथ रखती है. वह जब भी हंसती है, मैं उदास हो जाती हूं. क्योंकि उसकी हंसी में हमेशा व्यंग होता है, एक अनजानी शिकायत, एक आलोचना भी होती है. मैं हमेशा इस बात को नजरअंदाज करती रही हूं.बचपन
मुझे लगता है, क्योंकि पेड़ मुझसे ज्यादा
परिपक्व थे अतः मुझे, मुझसे ज्यादा समझते होंगे. इसीलिए आज खामोश हैं यह जानते हुए कि मेरे इस जाने के पीछे कई दशकों का इतिहास छुपा है. सुन्दरी से पूर्व मालिकों और दुर्गा भवन तक बनने का सफर उस बखत के अंग्रेज़ आला अधिकारियों और फौज के आला अधिकारियों के हस्ताक्षरों के दिए गए अधिकार को सर्वांग आत्मा के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है.बचपन
यह मेरा सोचना है कि हर
बार मेरा लौटना उनको खुशियों से भर देता था शायद. लेकिन इस बार मेरा लौटना उनको मौन बना रहा था. शायद मैंने लौटने में इतनी देर कर दी है कि वे मुझसे उम्मीद ही छोड़ चुके होंगे. मैं इतना लेट लौटी कि मेरा लौटना, मेरा रहा ही नहीं.
बचपन
आत्माओं की अभिव्यक्तियां स्वयं रास्ता
बनाती हैं जिसका प्रमाण इस तरह देखने को मिल रहा है. इसीलिए मेरी खामोशी के मर्म तक उनकी पहुंच बनी रहती है. दो तीन दिन से इस चलते फिरते शहर में स्वयं को बेहद अजनबी-सा महसूस करने लगी हूं. बाजार के कुछ जरूरी कामों को निपटाने के बाद मेरे कदम बगीचे की उतराई को यूं नापने लगे हैं जैसे कह रहे हों सिर्फ आज के लिए अपने तेज-तेज चलने वाले कदमों को विराम दे-दे कर चल. मैं, मेरे जैसे किसी मित्र को तलाश रही हूं, यह सोचकर कि यह कोई इकलौती घटना तो नहीं हो सकती इस जगह की, इस शहर की, या कुछ और भी होगा हमसे या हमारी सी घटना से मिलता जुलता हुआ सा.बचपन
यह मेरा सोचना है कि हर बार मेरा लौटना उनको खुशियों से भर देता था शायद. लेकिन इस बार मेरा लौटना उनको मौन बना रहा था. शायद मैंने लौटने में इतनी देर कर दी है कि वे
मुझसे उम्मीद ही छोड़ चुके होंगे. मैं इतना लेट लौटी कि मेरा लौटना, मेरा रहा ही नहीं. कहते हैं कि… वक्त के साथ सब कुछ ठीक हो जाएगा… लेकिन नहीं! कभी-कभी वक्त के साथ सब कुछ खत्म भी हो जाता है. हवा में वक़्त की कहानी मंद-मंद बयार-सी बहती रहती है. हवा में पिछली कई कही, सुनी बातें, हंसने-रोने के स्वर, प्रेम-पीड़ा के भावपूर्ण संवाद ज्यों के त्यों उसी जगह में विद्यमान रहते हैं. जिनको प्रकृति सुनकर नए फैसले सुनाती है. हम भी आज उसी फैसले के आगे झुके हुए हैं.बचपन
मेरी स्मृतियां ज्यों-ज्यों
ताजी होती जा रही थी, धूप भी ढलती जा रही थी. खेतों को छोड़कर मैं अपने आंगन की धूप का स्वाद चखने लगी हूं, यह ढलती धूप ज्यादा अच्छी लगने लगती है तभी मां हाथ में चाय का बड़ा वाला गिलास पकड़ा कर चली गई.
बचपन
कौन चलाता रहा होगा इन पेड़ पौंधों के
सजग जीवन को, कैसे इतने सालों तक हरा बनाए रखे ये खुद को, कैसे इनमें अनंत-अनंत रंगों के, आकार के, फूल-फल खिलते रहे हैं अब तक. मैंने उनकी जिंदा रहने की क्षमता को ‘आमीन’ कहा और धूप के लौटने के साथ एक एक खेत नीचे की ओर सरकती रही हूं. मेरी स्मृतियां ज्यों-ज्यों ताजी होती जा रही थी, धूप भी ढलती जा रही थी. खेतों को छोड़कर मैं अपने आंगन की धूप का स्वाद चखने लगी हूं, यह ढलती धूप ज्यादा अच्छी लगने लगती है तभी मां हाथ में चाय का बड़ा वाला गिलास पकड़ा कर चली गई.बचपन
चाय के कप से उठता धुआँ…. और कुछ चेहरे
कोहरे की धुंध के उस पार और फिर धुएँ के पार… उसका गुम
हो जाना जैसे कहीं आज भी जिंदा स्मृतियों में कोई कहीं से निकल कर मुझे ‘धप्पा’ कह कर आइस-पाइस के खेल में हरा देगा. ओह यह खेल बहुत लंबा हो गया था मैं जीतने के लिए एक लंबी अवधि के लिए छुप गई थीं और अंततः हार गई.(लेखिका कवि, साहित्यकार एवं पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहती हैं)