Tag: बाटुइ लगाता है पहाड़

करछी में अंगार

करछी में अंगार

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—16 रेखा उप्रेती कुछ अजीब-सा शीर्षक है न… नहीं, यह कोई मुहावरा नहीं, एक दृश्य है जो कभी-कभी स्मृतियों की संदूकची से बाहर झाँकता है… पीतल की करछी में कोयले का अंगार ले जाती रघु की ईजा… जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाती… अपने घर की ओर जाती ढलान पर उतर रही है, बहुत सम्हल कर… कि करछी से अंगार गिरे भी नहीं और बुझे भी नहीं. चूल्हा कैसे जलेगा वरना… तीस-चालीस साल पहले जो पहाड़ में रह चुके हैं या बचपन पहाड़ों में बिताया है, उनके लिए यह दृश्य अपरिचित नहीं होगा. चूल्हे में आग बचाकर रखना या ज़रुरत पड़ने पर दूसरे घरों से आग जलाने के लिए जलता कोयला ले जाना, उस वक़्त की ज़रुरत भी थी और सीमित संसाधनों के बीच एक ऐसी जीवन-शैली का उदाहरण भी, जहाँ मामूली से मामूली वस्तु भी ‘यूज़ एंड थ्रो’ की ‘कैटेगरी’ में नहीं थी. मुझे याद है सुबह का भोजन बन जाने के बाद अधजली लकड़ियों को बुझा कर अलग रख दिया ज...
हिटो फल खाला…

हिटो फल खाला…

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—14 रेखा उप्रेती “कल ‘अखोड़ झड़ाई’ है मास्साब, छुट्टी चाहिए.” हमारा मौखिक प्रार्थना-पत्र तत्काल स्वीकृत हो जाता. आखिर पढ़ाई जितनी ही महत्वपूर्ण होती अखोड़ झड़ाई… गुडेरी गद्ध्यर के पास हमारे दो अखरोट के पेड़ थे, बहुत पुराने और विशालकाय. ‘दांति अखोड़’ यानी जिन्हें दांत से तोड़ा जा सके. दांत से तो नहीं, पर एक चोट पड़ते ही चार फाँक हो जाते और स्वाद अनुपम. गाँव में ‘काठि अखोड’ के बहुत पेड़ थे. काठि माने काठ जैसे, जिन्हें तोड़कर उनकी गिरी निकालना मशक्कत माँगता. अक्सर उन्हें आलपिन से कुरेद कर खाना पड़ता… पर हमारे पेड़ के अखोड़ दांति थे और दूधिया भी. हम कंटीली झाड़ियों के आस-पास और गधेरे के बहते पानी के नीचे दुबक गए अखरोट खोजकर ऐसे प्रसन्न होते जैसे समंदर से नायब मोती ढूँढ निकाले हों. दोपहर तक यह प्रक्रिया चलती रहती, फिर भारी-भारी डलिया उठाए सब घर की ओर जाती चढ़ाई पर हाँफते...
पहाड़ का बादल

पहाड़ का बादल

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—13 रेखा उप्रेती “जोर का मंडान लग गया रे! जल्दी-जल्दी हिटो” संगिनियों के साथ धुर-धार से लौटती टोली के कदम तेज हो उठते. ‘मंडान’ मतलब चारों तरफ़ से बादलों का घिर आना. बौछारों की अगवानी से पूर्व आकाश में काले मेघों का चंदोवा… घसियारिनें अपनी दातुली कमर में खोस लेतीं, लकडियाँ बीनती काखियाँ गट्ठर बाँधने लगतीं, खेतों में निराई-गुड़ाई करती जेड्जा कुटव चलाना छोड़ देती… पर कितनी ही दौड़ लगा लें, घर पहुँचने तक इन सबका भीग कर फुत-फुत हो जाना तय होता. मंडान देखकर घर में भी हका-हाक शुरू… आँगन में सूखते धान, बड़ियाँ, मिर्चें उठानी हैं, टाल में से सूखी लकडियाँ उठाकर गोठ रखनी हैं, पुआल के लुटों से गट्ठर उठाकर छान में रखना है. मल भितेर के पाख में रोशनी देने के लिए बना जा’व बंद करने के लिए उसका पाथर खिसकाना है. आँगन में जहाँ-जहाँ पाख से बारिश की बंधार लगेगी, उसके नीचे बर्तन धर...
जबही महाराजा देस में आए …

जबही महाराजा देस में आए …

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—12 रेखा उप्रेती “बारात आ गयी !!” यह वाक्य हमारे भीतर वैसा ही उत्साह जगाता जैसे ओलंपिक्स में स्वर्ण-पदक जीतने की सूचना … उत्साह का बीज तो किसी बुआ या दीदी का ‘ब्याह ठहरते’ ही अँखुआ जाता. घर की लिपाई-पुताई, ऐपण, रंग्वाली पिछौड़, सुआल-पथाई, धुलिअर्घ की चौकी जैसे कई काज घर और गाँव की महिलाओं की हका-हाक लगाए रखते और हम बच्चों के लिए ‘कौतिक’ जैसा माहौल बनाते… हमारे हिस्से कुछ काम आते, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण था- ओलंपिक की मशाल लेकर भागने जैसा गौरव-पूर्ण दायित्व-गाँव-भर में सबको न्यूतना… किस घर को कैसे न्यौतना है यह अच्छी तरह समझना होता. लड़की वाले की हैसियत के हिसाब से न्यौते का स्वरूप अलग-अलग होता. बड़ा गाँव था हमारा… ऐसा कम ही होता कि लड़की की शादी में पूरे गाँव को “च्युल-न्यूत” मिले. यूँ तो लड़की चाहे किसी घर की हो, उसके विदा होने तक सारा गाँव एक परिवार...
रत्याली के स्वाँग

रत्याली के स्वाँग

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—7 रेखा उप्रेती ‘रत्याली’ मतलब रात भर चलने वाला गीत, नृत्य और स्वाँग. लड़के की बरात में नहीं जाती थीं तब महिलाएँ. साँझ होते ही गाँव भर की इकट्ठी हो जातीं दूल्हे के घर और फिर घर का चाख बन जाता रंगमंच… ढोलकी बजाने वाली बोजी बैठती बीच में और बाकी सब उसे घेर कर… दूल्हे की ईजा अपना ‘रंग्याली पिछौड़ा’ कमर में खौंस, झुक-झुक कर सबको पिठ्या-अक्षत लगाती … नाक पर झूलती बड़ी-सी नथ के नगीने लैम्प की रौशनी में झिलमिलाते रहते. बड़ी-बूढ़ियाँ उसे असीसती, संगिनियाँ ठिठोली करतीं तो चेहरा और दमक उठता बर की ईजा का… सबको नेग भी मिलता, जिसे हम ‘दुण-आँचोव’ कहते… शगुन आँखर देकर ‘गिदारियाँ’ मंच खाली कर देतीं और विविध चरणों में नाट्य-कर्म आगे बढ़ने लगता. कुछ देर गीतों की महफ़िल जमती, फिर नृत्य का दौर शुरू होता… नाचना अपनी मर्ज़ी पर नहीं बल्कि दूसरों के आदेश पर निर्भर करता. ‘आब तू उठ’ कहकर...
इस्कूल से ई-स्कूल तक : ये कहाँ आ गए हम…

इस्कूल से ई-स्कूल तक : ये कहाँ आ गए हम…

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़ भाग—2 रेखा उप्रेती स्कूल बंद हैं. नहीं, बंद नहीं हैं… आजकल मोबाइल के रास्ते घर के कोने तक पहुँच गए हैं. मेरा बच्चा बिना नहाए-धोए, बिना यूनिफार्म पहने उस कोने में बैठा अध्यापिका से पाठ सुन रहा है. अध्यापिका का चेहरा भर दीखता है स्क्रीन पर… . सहपाठी गायब हैं और शरारतें भी… बच्चे को सामाजिक प्राणी बनाने वाला एकमात्र ज़रिया स्कूल ही बचा था… उसके भी द्वार बंद हैं. एक हमारा इस्कूल था, इस ई-स्कूल के मुकाबले कितना ‘कूल’ था. आइए आपको ले चलती हूँ- “प्राइमरी पाठशाला, माला” छात्रों की टोली बारी-बारी अँजुरी भर-भर कर पानी पीती. उस ठंडे-मीठे सोते के पानी से हम फिर स्फूर्ति से भर उठते. कभी-कभी मुँह में पानी भरकर वापस आते और जब मुँह में पानी को ‘होल्ड’ करने की क्षमता चुक जाती तो उसे पी लेते. यह हमारा जुगाड़ था पानी स्टोर करने का. मेरे घर से एकदम खड़ी चढ़ाई थी इस्कूल के लि...