Tag: भारत की जल संस्कृति

‘नौला फाउंडेशन’ : लुप्त होते जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने का अभियान

‘नौला फाउंडेशन’ : लुप्त होते जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने का अभियान

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-37 डॉ. मोहन चंद तिवारी उत्तराखण्ड में जल-प्रबन्धन-8 लेखमाला के बारे में किंचित्वक्तव्य ('हिमांतर' ई पत्रिका में प्रकाशित 'भारत की जल संस्कृति' के धारावाहिक लेख माला का यह 37 वां और 'उत्तराखंड जल प्रबंधन' का 8वां लेख है. मेरे छात्रों, सहयोगी अध्यापकों और अनेक मित्रों का परामर्श है कि ये जल विज्ञान से सम्बंधित सभी लेख पुस्तकाकार के रूप में प्रकाशित हों. पिछले दस वर्षों में एक शोधकर्त्ता और जल संकट की विभिन्न समस्याओं के प्रति गम्भीरता और संवेदनशीलता की भावना से लिखे गए इन because लेखों में यथा सामर्थ्य जल संस्कृति के ज्ञान-विज्ञान और उसके परम्परागत इतिहास को समेटने का यथा सामर्थ्य प्रयास  किया गया है. मेरे छात्रवर्ग, सहयोगी अध्यापकगण और विद्धान् मित्रों द्वारा समय समय पर इन लेखों का जो संज्ञान लिया गया और अपने महत्त्वपूर्ण विचार प्रकट किए गए, उन सब के प्रति मैं ...
जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने वाले उत्तराखण्ड के जलपुरुष व जलनारियां

जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने वाले उत्तराखण्ड के जलपुरुष व जलनारियां

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-35 डॉ. मोहन चंद तिवारी उत्तराखण्ड में जल-प्रबन्धन-6 प्रस्तुत लेख 1 जुलाई, 2017 को 'प्रज्ञान फाउंडेसन' द्वारा नई दिल्ली स्थित अल्मोड़ा भवन में 'उत्तराखंड में पानी की समस्या तथा समाधान' विषय पर आयोजित संगोष्ठी because में दिए गए मेरे वक्तव्य का संशोधित तथा परिवर्धित सार है, जो वर्त्तमान सन्दर्भ में भी अत्यंत प्रासंगिक, उपयोगी और गम्भीरता से विचारणीय है. वाटर हारवैस्टिंग इस लेख के द्वारा दूधातोली के जलपुरुष सच्चिदानन्द भारती और अल्मोडा जिले की जलनारी बसंती बहन भुवाली के जगदीश नेगी और नैनीताल के चंदन सिंह नयाल द्वारा अत्यंत विषम परिस्थियों में भी जल संरक्षण और पर्यावरण के क्षेत्र में उनके द्वारा किए गए विशेष योगदान से जन सामान्य को अवगत कराया गया है और यह भी because बताया गया है कि अनेक प्रकार की चुनौतियों और संघर्षों से जूझते हुए इन उत्तराखंड के जल पुरुषों और ज...
उत्तराखंड के ऐतिहासिक नौले : जल संस्कृति की अमूल्य धरोहर

उत्तराखंड के ऐतिहासिक नौले : जल संस्कृति की अमूल्य धरोहर

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-34 डॉ. मोहन चंद तिवारी उत्तराखण्ड में जल-प्रबन्धन-5 उत्तराखंड की जल समस्या because को लेकर मैंने पिछली अपनी पोस्टों में परम्परागत जलप्रबंधन और वाटर हार्वेस्टिंग से जुड़े गुल,नौलों और धारों पर जल विज्ञान की दृष्टिसे प्रकाश डाला है. इस लेख में  परम्परागत ऐतिहासिक नौलों और उनसे उभरती जलसंस्कृति के बारे में कुछ जानकारी देना चाहूंगा. वाटर हारवैस्टिंग कुमाऊं,गढ़वाल के अलावा हिमाचल प्रदेश और नेपाल में भी जल आपूर्ति के परंपरागत प्रमुख साधन नौले ही रहे हैं. ये नौले हिमालयवासियों की समृद्ध-प्रबंध परंपरा और लोकसंस्कृति के प्रतीक हैं. कौन नहीं जानता है कि अल्मोड़ा नगर,जिसे चंद राजाओं ने 1563 में राजधानी के रूप में बसाया था,वहां परंपरागत जल प्रबंधन के मुख्य because वहां के 360 नौले ही थे. इन नौलों में चम्पानौला, घासनौला, मल्ला नौला, कपीना नौला, सुनारी नौला, उमापति का न...
चक्रपाणि मिश्र के अनुसार जलाशयों के विविध प्रकार

चक्रपाणि मिश्र के अनुसार जलाशयों के विविध प्रकार

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-27 डॉ. मोहन चंद तिवारी चक्रपाणि मिश्र ने ‘विश्वल्लभवृक्षायुर्वेद’ नामक अपने ग्रन्थ में कूप,वापी,सरोवर, तालाब‚ कुण्ड‚ महातड़ाग आदि अनेक जलाश्रय निकायों की निर्माण पद्धति तथा उनके विविध प्रकारों का वर्णन किया है,जो वर्त्तमान सन्दर्भ में परंपरागत जलनिकायों के जलवैज्ञानिक स्वरूप को जानने और समझने की दृष्टि से भी बहुत उपयोगी है. यहां बताना चाहेंगे कि राजस्थान की मरुभूमि के इतिहास पुरुष और 16वीं शताब्दी में हुए महाराणा प्रताप के समकालीन पं.चक्रपाणि मिश्र ने अपने अनुभवों और प्राचीन भारत के जलविज्ञान के ग्रन्थों का अवगाहन करके अपनी कृति ‘विश्वल्लभवृक्षायुर्वेद’ में हजारों वर्षों से चलन में आ रहे परंपरागत जलाश्रयों के बारे में अपना सैद्धांतिक विवेचन प्रस्तुत किया है. जलविज्ञान इसलिए प्राचीन भारतीय परम्परागत जलविज्ञान के संदर्भ में चक्रपाणि मिश्र द्वारा रचित यह ‘विश्ववल्...
वराहमिहिर के जलविज्ञान की वर्तमान सन्दर्भ में प्रासंगिकता

वराहमिहिर के जलविज्ञान की वर्तमान सन्दर्भ में प्रासंगिकता

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-25 डॉ. मोहन चंद तिवारी पिछले लेख में बताया गया है कि वराहमिहिर के भूगर्भीय जलान्वेषण के सिद्धांत आधुनिक विज्ञान और टैक्नौलौजी के इस युग में भी अत्यंत प्रासंगिक और उपयोगी हैं, जिनकी सहायता से because आज भी पूरे देश की जलसंकट की समस्या का हल निकाला जा सकता है तथा अकालपीड़ित और सूखाग्रस्त इलाकों में भी हरित क्रांति लाई जा सकती है. इस लेख में वराहमिहिर के जलवैज्ञानिक सिद्धांतों की प्रासंगिकता और वर्त्तमान सन्दर्भ में उनकी उपयोगिता के निम्नलिखित विचार बिंदु विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं- जलविज्ञान 1. सर्वप्रथम, वराहमिहिर so का जलविज्ञान के क्षेत्र में मौलिक योगदान यह है कि उन्होंने विश्व के जलवैज्ञानिकों को इस सत्य से अवगत कराया कि भूमि के अन्दर भी सैकड़ों ऐसी जल की शिराएं सक्रिय रहती हैं जिनके कारण कृत्रिम प्रकार के बनाए गए जलाशयों में पूरे वर्ष भूमिगत जल का भंडारण ह...
“बृहत्संहिता में जलाशय निर्माण की पारम्परिक तकनीक”

“बृहत्संहिता में जलाशय निर्माण की पारम्परिक तकनीक”

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-22 डॉ. मोहन चंद तिवारी पिछले लेखों में बताया गया है कि एक पर्यावरणवादी जलवैज्ञानिक के रूप में आचार्य वराहमिहिर द्वारा किस प्रकार से वृक्ष-वनस्पतियों की निशानदेही करते हुए, जलाशय के उत्खनन because स्थानों को चिह्नित करने के वैज्ञानिक तरीके आविष्कृत किए गए और उत्खनन के दौरान भूमिगत जल को ऊपर उठाने वाले जीवजंतुओं के बारे में भी उनके द्वारा महत्त्वपूर्ण जानकारियां दी गईं. जलविज्ञान जलविज्ञान के एक प्रायोगिक और प्रोफेशनल उत्खननकर्त्ता के रूप में वराहमिहिर ने भूगर्भीय कठोर शिलाओं के भेदन की जिन रासायनिक विधियों का निरूपण किया है,वे वर्त्तमान जलसंकट के because इस दौर में परम्परागत जलस्रोतों के लुप्त होने की प्रक्रिया और उनको पुनर्जीवित करने की दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं.यानी हम जब इन नौलों और जल संस्थानों को पुनर्जीवित करने का संकल्प ले रहे हैं तो हमारे लिए...
“वराहमिहिर के अनुसार दीमक की बांबी से भूमिगत जलान्वेषण”

“वराहमिहिर के अनुसार दीमक की बांबी से भूमिगत जलान्वेषण”

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-17 डॉ. मोहन चंद तिवारी वराहमिहिर ने भूमिगत जल को खोजने के लिए वृक्ष-वनस्पतियों के साथ साथ भूमि के उदर में रहने वाले मेंढक, मछली, सर्प, दीमक आदि जीव-जन्तुओं को निशानदेही का butआधार इसलिए बनाया है क्योंकि ये सभी जीव-जन्तुओं को आद्रता बहुत प्रिय है और अपने जीवन धारण के लिए ये भूमिगत जल की नाड़ियों को सक्रिय करते हुए जल का स्तर सदा ऊपर उठाए रखते हैं. आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी दीमक से जुड़ी वराहमिहिर की जलवैज्ञानिक मान्यताओं पर अनुसन्धान करते हुए इन्हें सत्य पाया है. वराहमिहिर (12मार्च, 2014 को ‘उत्तराखंड संस्कृत अकादमी’, but हरिद्वार द्वारा ‘आई आई टी’ रुडकी में आयोजित विज्ञान से जुड़े छात्रों और जलविज्ञान के अनुसंधानकर्ता विद्वानों के समक्ष मेरे द्वारा दिए गए वक्तव्य ‘प्राचीन भारत में जलविज्ञान‚ जलसंरक्षण और जलप्रबंधन’ से सम्बद्ध ‘भारतीय जलविज्ञान’ पर संशोधित लेख “द...
“वराहमिहिर के अनुसार वृक्ष-वनस्पतियों की निशानदेही से भूमिगत जल की खोज”

“वराहमिहिर के अनुसार वृक्ष-वनस्पतियों की निशानदेही से भूमिगत जल की खोज”

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-16 डॉ. मोहन चंद तिवारी प्राचीन काल के कुएं, बावड़ियां, नौले, तालाब, because सरोवर आदि जो आज भी सार्वजनिक महत्त्व के जलसंसाधन उपलब्ध हैं, उनमें बारह महीने निरंतर रूप से शुद्ध और स्वादिष्ट जल पाए जाने का मुख्य कारण यह है कि इन जलप्राप्ति के संसाधनों का निर्माण हमारे पूर्वजों ने वराहमिहिर द्वारा अन्वेषित जलान्वेषण की पद्धतियों के अनुसार किया था. वराहमिहिर का पर्यावरणमूलक जलान्वेषण विज्ञान भूगर्भस्थ जल की प्राप्ति हेतु न केवल भारत अपितु विश्वभर में कहीं भी उपयोगी हो सकता है. जैसा कि मैने अपनी पिछली पोस्टों में स्पष्ट किया है कि भारतीय जलविज्ञान, but अन्तरिक्षगत मेघविज्ञान वृष्टिविज्ञान के स्वरूप को समझे बिना अधूरा ही है. भारतीय जलवैज्ञानिक वराहमिहिर ने भूमिगत जलस्रोतों को खोजने और वहां कुएं, जलाशय आदि निर्माण करने के लिए वनस्पतियों और भूमिगत जीव-जंतुओं की निशानदेही स...
महिलाएं भी करती थी मानसूनी वर्षा की भविष्यवाणियां

महिलाएं भी करती थी मानसूनी वर्षा की भविष्यवाणियां

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-13 डॉ. मोहन चंद तिवारी प्राचीन भारतीय जलवायु विज्ञान का उद्भव तथा विकास भारतवर्ष के कृषितन्त्र को वर्षा की भविष्यवाणी की जानकारी देने के प्रयोजन से हुआ. इसलिए वैदिक काल से लेकर उत्तरवर्ती काल तक भारत में जलवायु विज्ञान की अवधारणा कृषि विज्ञान से जुड़ी रही है. भारत के ऋतुवैज्ञानिकों ने राष्ट्र कल्याण की भावना से मानसून सम्बन्धी भविष्यवाणियों के सम्बन्ध में अनेक वैज्ञानिक सिद्धान्त और मान्यताएं स्थापित कीं तथा पिछले आठ हजार वर्षों से इन्हीं ऋतु वैज्ञानिक मान्यताओं के आधार पर समूचे भारत का कृषक वर्ग अपने खेती-बाड़ी का कारोबार करता आया है. प्राचीन भारत में वर्षा के पूर्वानुमान के ज्ञान का इतिहास सिन्धु घाटी की सभ्यता के काल यानी तीन सहस्राब्दी ईस्वी पूर्व से प्रारम्भ हो जाता है. सन् 1960 में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने सिन्धु सभ्यता से सम्बद्ध एक प्राचीन आवा...
सिन्धु सभ्यता के ‘धौलवीरा’ और ‘लोथल’ का जल प्रबंधन

सिन्धु सभ्यता के ‘धौलवीरा’ और ‘लोथल’ का जल प्रबंधन

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-10 डॉ. मोहन चन्द तिवारी धौलवीरा का जल प्रबन्धन सन् 1960 में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने सिन्धु सभ्यता से सम्बद्ध एक प्राचीन आवासीय बस्ती धौलवीरा का उत्खनन किया तो पता चला कि यह सभ्यता 3000 ई.पू. की एक उन्नत नगर सभ्यता थी. खदिर द्वीप के उत्तर-पश्चिम की ओर वर्तमान गुजरात में स्थित इस प्राचीन नगर का मास्टर प्लान अत्यन्त सुनियोजित था. वैदिक कालीन जलविज्ञान की मान्यताओं के अनुरूप इस नगर में जलप्रबन्धन और जलसंचयन प्रणालियों की व्यवस्था की गई थी. धौलवीरा नगर मनहर और मनसर नामक दो नदियों के मध्य में बसा है. वहां के नागरिकों ने बरसात के मौसम में बढ़े हुए जल का सदुपयोग करने के उद्देश्य से इन बरसाती नदियों के मध्य में एक बड़े बांध का निर्माण किया तथा उस बांध में संचयित जल को ईंटों से बनाई हुई नालियों द्वारा जलाशयों और कुओं तक पहुंचाने की व्यवस्था की. पुरातत्त...