भारत की जल संस्कृति-17
- डॉ. मोहन चंद तिवारी
वराहमिहिर ने भूमिगत जल को खोजने के लिए वृक्ष-वनस्पतियों के साथ साथ भूमि के उदर में रहने वाले मेंढक, मछली, सर्प, दीमक आदि जीव-जन्तुओं को निशानदेही का
आधार इसलिए बनाया है क्योंकि ये सभी जीव-जन्तुओं को आद्रता बहुत प्रिय है और अपने जीवन धारण के लिए ये भूमिगत जल की नाड़ियों को सक्रिय करते हुए जल का स्तर सदा ऊपर उठाए रखते हैं. आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी दीमक से जुड़ी वराहमिहिर की जलवैज्ञानिक मान्यताओं पर अनुसन्धान करते हुए इन्हें सत्य पाया है.वराहमिहिर
(12मार्च, 2014 को ‘उत्तराखंड संस्कृत अकादमी’,
हरिद्वार द्वारा ‘आई आई टी’ रुडकी में आयोजित विज्ञान से जुड़े छात्रों और जलविज्ञान के अनुसंधानकर्ता विद्वानों के समक्ष मेरे द्वारा दिए गए वक्तव्य ‘प्राचीन भारत में जलविज्ञान‚ जलसंरक्षण और जलप्रबंधन’ से सम्बद्ध ‘भारतीय जलविज्ञान’ पर संशोधित लेख “दीमक की बांबी से भूमिगत जलान्वेषण”)वराहमिहिर
वराहमिहिर ने भूमिगत जल को खोजने के लिए दीमक की बांबी (वल्मीक) का पूर्व लक्षण के रूप में बार-बार उल्लेख किया है. बृहत्संहिता के ‘दकार्गलम्’ नामक 54वें अध्याय में अनेक पद्य ऐसे हैं जहां दीमक की बांबी की निशान देही से वराहमिहिर ने भूमिगत जल की शिराओं की दिशा और उनके आधार पर जल की गहराई जांचने के पूर्वानुमान निर्धारित किए हैं.
बृहत्संहिता के एक पद्य में कहा गया है कि जहां तिलक, अंबाड़ा, वारण, भिलावा, बेल, तेंदु, अंकोल, पिंडार, सिरस, अंजन, फालसा, अशोक, अतिबला, आदि वृक्षों में से किसी भी एक वृक्ष के नीचे दीमक की बांबी दिखाई दे तो वहां इन वृक्षों से तीन हाथ उत्तर दिशा की ओर चार पुरुष यानी 20 क्यूबिट्स नीचे खुदाई करने पर जल की नाड़ी मिलती है (बृहत्संहिता, 54.50-51)वराहमिहिर
इसी प्रकार वराहमिहिर ने
एक स्थान पर दीमक की बांबी की निशानदेही पर उत्तर-पूर्वी दिशा (ईशान कोण) में जल की उत्तर शिरा मिलने की बात कही है-वराहमिहिर
“पूर्वोत्तरेण पीलोर्यदि वल्मीको जलं भवति पश्चात्.
उत्तरगमना च शिरा विज्ञेया पञ्चभिः पुरुषैः..
– बृहत्संहिता, 54.63
बांबीयुक्त निर्गुंडी (सिन्धुवार) वृक्ष के तीन हाथ
दक्षिण में सवा दो पुरुष (सवा ग्यारह क्यूबिट्स) नीचे मधुर और अक्षय जल होता है–वराहमिहिर
“वल्मीकोपचितायां निर्गुण्डयां
पुरुषद्वये सपादे स्वादु जलं भवति चाशोष्यम्..”
– बृहत्संहिता, 54.14
बांबी
बेर के पेड़ के पूर्व में बांबी होने पर उस
वृक्ष के तीन हाथ पश्चिम की ओर तीन पुरुष (पंद्रह क्यूबिट्स) नीचे जल होता है और आधा पुरुष (ढाई क्यूबिट्स) नीचे सफेद छिपकली मिलती है –“पूर्वेण यदि बदर्या वल्मीको दृश्यते जलं पश्चात्.
पुरुषैस्त्रिभिरोदेश्यं श्वेता गृहगोधिकार्धनरे..”
– बृहत्संहिता, 54.16
वराहमिहिर
कोविदार (सप्तपर्ण) वृक्ष के ईशान
कोण (उत्तर-पूर्व दिशा) में कुश सहित सफेद मिट्टी की बांबी हो तो वृक्ष और बांबी के बीच साढ़े पांच पुरुष (साढे सत्ताइस क्यूबिट्स) नीचे खोदने पर बहुत पानी मिलता है –वराहमिहिर
“सकुशाशित ऐशान्यां
मध्ये तयोर्नरैरर्धपञ्चमैस्तोयमक्षोभ्यम्..”
– बृहत्संहिता, 54.27
भूमि
दरअसल, भूमि के नीचे दीमक की बांबी से जलस्रोत खोजने की जलवैज्ञानिक अवधारणा का ज्ञान वराहमिहिर से भी बहुत पहले वैदिक संहिताओं के काल में ही हो चुका था. ‘अथर्ववेद’ के
दो मंत्रों में उल्लेख आया है कि दीमकें (उपजीका) भूमि के अन्दर स्थित जलकुण्डों से भूमि के ऊपर बनाई हुई अपनी बांबियों में जल लाने का काम करती हैं –“उपजीका उद्भरन्ति
समुद्रादधि भेषजम्.” – अथर्व.,2.3.4“यद् वो देवा उपजीका
आसिञ्चन् धन्वन्युदकम्.” – अथर्व.,6.100.2पनपती
तैत्तिरीय आरण्यक (5.14) में भी दीमकों द्वारा भूमि के अन्दर जल के स्रोतों को खोजने का उल्लेख मिलता है. वैदिक कालीन इन्हीं जलवैज्ञानिक मान्यताओं के आधार पर वराहमिहिर ने
दीमक की बाबियों के पूर्व लक्षणों को देखकर भूमिगत जलस्रोत खोजने की अनेक विधियों का विवेचन किया है. वराहमिहिर ने सूक्ष्म अन्वेषण करके समझाया है कि यदि दीमक की बांबी के ऊपर दूब या सफेद कुशा दिखलाई दे तो उसके नीचे कुंआ खोदने पर 21 पुरुष यानी 105 क्यूबिट्स की गहराई पर जल की प्राप्ति होगी –“वल्मीकमूर्धनि यदा
कूपो मध्ये देयो जलमत्र नरैकविंशत्या..”
– बृहत्संहिता, 54.77
दीमक से जुड़े आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसंधान
माना जाता है कि दीमक पिछले 20-30 लाख वर्षों से पृथ्वी पर हैं और इनका उल्लेख अनेक पुराणों और महाकथाओं में भी पाया गया है. वैज्ञानिक शोधों के अनुसार, दीमक गरम तथा शीतोष्ण क्षेत्रों में ही पनपती है. यह समूहों में बस्तियाँ बनाकर रहती है,जिन्हें ‘टरमिटेरियम’ (termitarium) ‘बाम्बी’ या ‘वल्मीक’ कहते हैं.
जिनका निर्माण मिट्टी, पानी और दीमकों की लार से होता है.गीली
दीमक हल्की गीली मिट्टी में अपनी लार मिलाकर अपनी बस्ती का निर्माण करते हैं. इस प्रकार दीमक मिट्टी के अन्दर या आस-पास तथा नमी वाले स्थान पर पाए जाते हैं. अपनी प्रजाति,
क्षेत्र और स्थान के अनुसार दीमकों की बस्तियों के भिन्न-भिन्न आकार होते हैं. एक साधारण वाल्मीक 2 से 10 फुट तक की ऊँचाई का हो सकता है. यहाँ तक की 20-20 फीट ऊँचे दीमकों की बस्तियों को भी देखा गया है.भारतीय
भारतीय जल वैज्ञानिक वराहमिहिर ने दीमक के बारे में जो भूमिगत जलान्वेषण सम्बन्धी सिद्धांत स्थापित किए हैं, उन पर आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी अनुसन्धान करते हुए इन्हें सत्य सिद्ध किया है.1965 में डब्ल्यू. वैस्ट ने और 1972 में वाट्सन ने दीमक के 70 मीटर लम्बे जलमार्गों को खोजने में सफलता प्राप्त की है. सन् 1963 में जर्मनी के प्रोफेसर
जी.वेकर ने दीमक के जलमार्गों पर परीक्षण करते हुए यह सिद्धांत स्थापित किया है कि दीमकें पृथिवी की चुम्बकीय शक्ति से प्रभावित होते हुए उत्तर से दक्षिण की ओर या पूर्व से पश्चिम की ओर जल ले जाने के लिए मार्ग बनाती हैं और यदि इस दिशा को उल्टा कर दिया जाए तो दीमकें पानी लेने के लिए नीचे न जाकर कुछ ही घंटों में बिना पानी के वापस आ जाती हैं.दीमक
वराहमिहिर का दीमक की बांबियों के लक्षणों पर
आधारित भूमिगत जलान्वेषण विज्ञान भी दीमकों के इसी प्राकृतिक मनोविज्ञान पर आधारित विज्ञान है जिसकी पुष्टि आधुनिक विज्ञान द्वारा भी हो चुकी है.विज्ञान
वस्तुतः वराहमिहिर का जलविज्ञान वैदिककालीन प्रकृति के उपासकों का एक पर्यावरणवादी जलविज्ञान है जिसमें भूमिगत जल को खोजने के लिए वृक्ष-वनस्पतियों के साथ साथ भूमि के उदर में रहने वाले
मेंढक, मछली‚ सर्प‚ नेवला‚ चींटी‚ दीमक आदि जीव-जन्तुओं को निशानदेही का आधार इसलिए बनाया है क्योंकि ये सभी जीव- जन्तुओं को आद्रता बहुत प्रिय है और अपने जीवन धारण के लिए ये भूमिगत जल की नाड़ियों को सक्रिय करते हुए जल का स्तर सदा ऊपर उठाए रखते हैं.जल
*सांकेतिक चित्र गूगल से साभार
आगामी लेख में पढिए- “वराहमिहिर के अनुसार भूमिगत शिलाओं से जलान्वेषण.”
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)