महिलाएं भी करती थी मानसूनी वर्षा की भविष्यवाणियां

भारत की जल संस्कृति-13

  • डॉ. मोहन चंद तिवारी

प्राचीन भारतीय जलवायु विज्ञान का उद्भव तथा विकास भारतवर्ष के कृषितन्त्र को वर्षा की भविष्यवाणी की जानकारी देने के प्रयोजन से हुआ. इसलिए वैदिक काल से लेकर उत्तरवर्ती काल तक भारत में जलवायु विज्ञान की अवधारणा कृषि विज्ञान से जुड़ी रही है. भारत के ऋतुवैज्ञानिकों ने राष्ट्र कल्याण की भावना से मानसून सम्बन्धी भविष्यवाणियों के सम्बन्ध में अनेक वैज्ञानिक सिद्धान्त और मान्यताएं स्थापित कीं तथा पिछले आठ हजार वर्षों से इन्हीं ऋतु वैज्ञानिक मान्यताओं के आधार पर समूचे भारत का कृषक वर्ग अपने खेती-बाड़ी का कारोबार करता आया है.

प्राचीन भारत में वर्षा के पूर्वानुमान के ज्ञान का इतिहास सिन्धु घाटी की सभ्यता के काल यानी तीन सहस्राब्दी ईस्वी पूर्व से प्रारम्भ हो जाता है. सन् 1960 में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने सिन्धु सभ्यता से सम्बद्ध एक प्राचीन आवासीय बस्ती लोथल का उत्खनन किया तो पता चला कि यह सभ्यता 3000 ई.पू. की एक उन्नत कृषि सभ्यता थी जिसे पुरातत्त्वविदों ने ‘टैराक्वा कल्चर’ का नाम दिया है. इस सभ्यता के लोग अन्तरिक्ष के खगोलीय ग्रह और नक्षत्रों के आधार पर अपना कृषि कार्य करते थे तथा उसी को ध्यान में रखकर मानसूनों की वर्षा का भी पूर्वानुमान कर लेने में सिद्धहस्त थे. बाद में यही ग्रह-नक्षत्रों पर आधारित कृषि संस्कृति भारत की मुख्य संस्कृति बन गई. वराहमिहिर की बृहत्संहिता, कौटिल्य के अर्थशास्त्र, कृषिपराशर तथा घाघ-भड्डरी आदि की रचनाओं में इसका लोक प्रचलित रूप देखा जा सकता है. प्राचीन भारत में वर्षा के पूर्वानुमान का निर्धारण करने के चार पैरामीटर थे –
1. भौम निमित्त,
2. अन्तरिक्ष निमित्त,
3. दिव्य निमित्त,
4. मिश्र निमित्त.

इन चार प्रकार के निमित्तों के निरीक्षण एवं परीक्षण हेतु प्राचीन भारत के ऋतु वैज्ञानिकों ने कुछ विशेष तिथियों और पर्वों की पहचान की है जिनमें होली, दीपावली, विजयादशमी के अतिरिक्त अक्षय तृतीया और आषाढ़ी पूर्णिमा की तिथियों का विशेष महत्त्व है.

सभी सांकेतिक चित्र गूगल से साभार

भारतीय प्रायद्वीप में आषाढ मास का प्रारम्भ दक्षिण-पश्चिमी मानसूनों के आगमन का सूचक है. इस मास में भारत का कृषक वर्ग चार महीनों तक अच्छी वर्षा होने की शुभकामना करता है ताकि समूचे राष्ट्र को धन-धान्य की समृद्धि प्राप्त हो सके तथा वर्षा के पूर्वानुमान की यथासंभव जानकारी भी उन्हें मिल सके. भारतीय कृषिविज्ञान की महत्त्वपूर्ण रचना ‘कृषिपाराशर’ में कहा गया है कि सम्पूर्ण कृषि का मूल कारण वर्षा है,वर्षा ही जन-जीवन का भी मूल है अतएव मौसम वैज्ञानिकों को प्रयत्नपूर्वक वर्षा के ज्ञान का प्रयास करना चाहिए –

“वृष्टिमूला कृषिः सर्वा वृष्टिमूलं च जीवनम्.
तस्मादादौ प्रयत्नेन वृष्टिज्ञानं समाचरेत..“
               -कृषिपाराशर, 2.1

सम्पूर्ण भारत में आज भी परम्परागत खेती से जुड़े किसान आषाढी पूर्णिमा के दिन शुभ मुहूर्त निकालकर एक लम्बे डण्डे में ध्वजा बांधकर वायु का इस दृष्टि से परीक्षण करते हैं  कि उसके बहने की दिशा क्या है? ताकि वे अनुमान कर सकें कि आगामी मानसूनों की स्थिति कैसी रहेगी? ‘भद्रबाहुसंहिता’ के अनुसार आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन पूर्व दिशा का वायु यदि सारे दिन चले तो समझना चाहिए कि आगामी वर्षाकाल में अच्छी वर्षा होगी तथा आर्थिक दृष्टि से सारे वर्ष खुशहाली रहेगी –
“आषाढ़ी पूर्णिमायां तु पूर्ववातो यदा भवेत्.
प्रवाति दिवसं सर्वं सुवृष्टिः सुषमा तदा.”
      -भद्रवाहु.,9.7

यदि आषाढी पूर्णिमा के दिन सूर्यास्त के समय अग्निकोण की वायु चले तो फसल नष्ट होती है वर्षा के अभाव से कृषकवर्ग को भारी क्षति होती है किन्तु यदि दक्षिण की वायु चले तो भी अन्न का अकाल तथा उच्च राजवर्ग में आपसी कलह की स्थिति उत्पन्न हो सकती है-
“कृशानुवाते मरणं प्रजानाम्‚
अन्नस्य नाशः खलु वृष्टिनाशः.
याम्ये मही सस्यविवर्जिता स्यात् ‚
परस्परं यान्ति नृपा विनाशम्..”
– बृहद्दैवज्ञरंजन,5.5

आज भी भारत के गांव गांव में मौसम विभाग की जानकारी से नहीं, बल्कि घाघ-भड्डरी की कहावतों के आधार पर किसान अपनी खेती के लिए अनुकूल जलवायु का अनुमान करते हैं. आषाढ की पूर्णिमा को यदि बादल गरजे, बिजली चमके, और पानी बरसे तो यह जान लेना चाहिए कि यह वर्ष मानसूनी वर्षा का अच्छा वर्ष है. यह पूर्णिमा भारतीय ऋतु वैज्ञानिकों के अनुसार वायु परीक्षा के लिए प्रसिद्ध है. घाघ-भड्डरी की प्रसिद्ध उक्ति है कि आषाढ़ी पूनो की संध्या के समय ध्वजा बांधकर हवा की जांच करनी चाहिए. यदि पुरवा हवा हो तो समझो फसल अच्छी होगी और बारिश भी खूब होगी किन्तु अग्निकोण की हवा चले तो अकाल पड़ेगा और शारीरिक रोग बढेंगे –
“जो पै पवन पूरब से आवै
उपजे अन्न मेघ झरि लावै.
अग्निकोण जो बहे समीरा
पडे काल दुःख सहै शरीरा.”

यानी प्राचीन भारतीय जलवायु वैज्ञानिकों के अनुसार अक्षय तृतीया तथा आषाढी पूर्णिमा के दिन जो प्राकृतिक हलचल होती है,धरती का ताप, वायुदाब, वृष्टिगर्भ, मेघगर्जन,वर्षा आदि के जो विशेष मौसम वैज्ञानिक लक्षण प्रकट होते हैं उनसे वर्षाकालीन चौमासे का पूर्वानुमान वैज्ञानिक पद्धति से किया जा सकता है. प्राचीन भारतीय ऋतु वैज्ञानिकों द्वारा आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन वायु परीक्षण के सिद्धान्त को भारत का कृषक वर्ग आज भी घाघ-भड्डरी की कहावत के रूप में कण्ठस्थ किए हुए है –
“आषाढ़ मास पुन गौना,
धुजा बांध के देखो पौना
जो पे पवन पुरब से आवै
उपजे अन्न मेघ झरि लावै..”

महिला मौसमवैज्ञानिक ‘खाना’
भारत में जमीन से जुड़े मौसमविज्ञान की यह खासियत थी कि पुरुष ही नहीं महिलाएं भी खेती से जुड़े मौसम की वैज्ञानिक जानकारी में सिद्धहस्त थी. ऐसी ही एक ‘खाना’ नामक एक महिला मौसम वैज्ञानिक अपने किसान ससुर को सम्बोधित करते हुए कहती है कि यदि आषाढ की शुक्ला नवमी को मुसलाधार पानी बरसे तो समझना चाहिए कि उस वर्ष अनावृष्टि और अकाल के कारण समुद्र भी सूख जाएंगे. यदि उस दिन थोड़ा पानी बरसे तो उस साल भीषण वर्षा होगी और मछलियां बहुत अधिक मात्रा में पैदा होंगी. यदि मंद-मंद वर्षा हो तो सुवृष्टि के कारण फसल बहुत अच्छी होगी और यदि उस दिन सूर्यास्त के समय आकाश साफ रहे, सूर्य हंसते हंसते डूबे तो समझ लो खेती चौपट होने वाली है. उस वर्ष किसानों को अपने पशुओं को बेचकर अन्न इक्ट्ठा करना पडे़गा-
“आषाढे नवमी शुक्ल पाखा,
किकर श्वसुर लेखा जोखा.
यदि बरसे मुसलधारे
माझा समुद्रे बगा चरे.
यदि बरसे छिटें-फोंटा,
पर्वते है मीनेर घटा ..
यदि बरसे निमि झिमि,
शस्येर भार ना सय मेदिनी.
हंसे चाकि बसे पाटे
चाषार गरु बिकाय हाटे..”

आषाढ़ मास के सम्बन्ध में खाना अपने पति से कहती है. जिस वर्ष पूस (दिसम्बर-जनवरी) में गर्मी और बैसाख (अप्रेल-मई) में जाड़ा लगे, आषाढ लगते ही यानि जून के महीने में सभी गड्ढे पानी से भर जाएं तो यह समझना चाहिए कि सावन-भादो यानी अगस्त-सितम्बर के महीनों में पानी नहीं बरसेगा –
“पौष गरमि बैसाख जाडा
प्रथम आषाढे भरवे गाडा.
खाना बोले सुनो हे स्वामी,
सावन भादर नाइको पानी..”

दरअसल, भारत का काश्तकार जिन प्राकृतिक लक्षणों के आधार पर जलवायु सम्बन्धी संकेतों का अनुमान लगा लेता है, वह अन्धविश्वास नहीं बल्कि प्राचीन भारतीय ऋतु वैज्ञानिक मान्यताओं का ग्रामीकरण है.विडम्बना यह है कि आधुनिक मौसम विज्ञान भारतीय उपमहाद्वीप के पर्यावरण विज्ञान को नजरअन्दाज करते हुए पश्चिमी मान्यता को मानसूनों के पूर्वानुमान हेतु वैज्ञानिक पैरामीटर बनाए हुए है जिसके कारण भारत के मौसम विभाग द्वारा मानसूनी वर्षा के बारे में की गई भविष्यवाणियां प्रायः गलत सिद्ध होती हैं. आधुनिक मौसम वैज्ञानिक भारतीय कृषकों के परिप्रेक्ष्य में पश्चिमी मौसम वैज्ञानिक मान्यताओं का स्वदेशीकरण नहीं कर पाए. इनकी वैज्ञानिक मान्यताएं पश्चिमी मॉडल से प्रभावित होकर केवल अनुसंधान और सांख्यिकी के आंकड़े जुटाने के लिए हैं. इसलिए स्वतन्त्रता प्राप्ति के 72 वर्षों बाद भी भारत का कृषक समुदाय न तो आधुनिक मौसम वैज्ञानिकों की भाषा समझता है और न ही भारतीय कृषि सभ्यता की अपेक्षा से मौसम सम्बन्धी इन भविष्यवाणियों का किसानों को कोई लाभ पहुंच पाता है.

दूसरी ओर अठारहवीं शताब्दी में हुए घाघ और भड्डरी ने आम जनता की जानकारी के लिए लोकगीतों या कहावतों की शक्ल में जिस कृषि मूलक मौसम विज्ञान की रचना की वह प्राचीन भारत के वराहमिहिर कृत ‘बृहत्संहिता’, ‘संवत्सरफल’, ‘कृषिपाराशर’, ‘मेघमाला’ तथा पुराणोक्त ऋतुविज्ञान सम्बन्धी संस्कृत में लिखे गए ग्रन्थों का ग्रामीण भाषा में किया गया सरल भावानुवाद ही था. घाघ,भड्डरी और खाना आदि महिला ऋतु वैज्ञानिकों के वर्षा सम्बन्धी पूर्वानुमान प्राचीन भारतीय जलवायु विज्ञान के सिद्धान्तों पर ही आधारित थे.आज देश के परम्परागत कृषि विज्ञान द्वारा पाली पोसी गई अक्षय तृतीया तथा आषाढी पूर्णिमा से सम्बन्धित वर्षा के पूर्वानुमान की भारतीय परम्पराओं को आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की नवीन तकनीकों से परिष्कृत करने की आवश्यकता है ताकि देश का मौसम विज्ञान खेतिहर कृषिविज्ञान की जमीन से जुड़ सके और अकाल तथा सूखे की परिस्थितियों का सटीक पूर्वानुमान कर सके.

मगर विडम्बना यह है कि भारत के परंपरागत मौसम विज्ञान के सिद्धांतों और मान्यताओं की तुलनात्मक अध्ययन करने की चिंता न तो आज संस्कृत के विद्वानों को है और न ही मौसम विभाग की ओर से ही भारत के ऋतुविज्ञान और आधुनिक मौसमविज्ञान के समन्वय का कोई सकारात्मक प्रयास किया गया है,जिसकी वजह से आज मौसम विभाग के मौसम सम्बन्धी पूर्वानुमान और भविष्यवाणियां ज्यादातर गलत ही सिद्ध होती हैं.

आगामी लेख में पढिये  “प्राचीन भारत में मेघविज्ञान और बादलों के प्रकार”.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित।)

Share this:

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *