भारत की जल संस्कृति-22
- डॉ. मोहन चंद तिवारी
पिछले लेखों में बताया गया है कि एक पर्यावरणवादी जलवैज्ञानिक के रूप में आचार्य वराहमिहिर द्वारा किस प्रकार से वृक्ष-वनस्पतियों की निशानदेही करते हुए, जलाशय के उत्खनन
स्थानों को चिह्नित करने के वैज्ञानिक तरीके आविष्कृत किए गए और उत्खनन के दौरान भूमिगत जल को ऊपर उठाने वाले जीवजंतुओं के बारे में भी उनके द्वारा महत्त्वपूर्ण जानकारियां दी गईं.जलविज्ञान
जलविज्ञान के एक प्रायोगिक और प्रोफेशनल उत्खननकर्त्ता के रूप में वराहमिहिर ने भूगर्भीय कठोर शिलाओं के भेदन की जिन रासायनिक विधियों का निरूपण किया है,वे वर्त्तमान जलसंकट के
इस दौर में परम्परागत जलस्रोतों के लुप्त होने की प्रक्रिया और उनको पुनर्जीवित करने की दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं.यानी हम जब इन नौलों और जल संस्थानों को पुनर्जीवित करने का संकल्प ले रहे हैं तो हमारे लिए यह जानना भी बहुत आवश्यक है कि हम इन जलाशयों के निर्माण और उनके संरक्षण की पुरातन परंपरागत तकनीक को समझें और तदनुरूप उसका समाधान भी खोजें.इसी प्रयोजन से इस लेख में विशेष रूप से परम्परागत जलाशयों की निर्माण प्रक्रिया और उस अवसर पर किए जाने वाले कार्यों और उत्खनन सम्बन्धी औजारों और उपकरणों के सम्बन्ध में जानकारी दी गई है.
जलाशय उत्खनन के औजार
वराहमिहिर की ‘बृहत्संहिता’ में उन यंत्रों और उपकरणों की धार को तेज करने का विशेष विवरण मिलता है,जिनके द्वारा जलाशय को खोदने का कार्य किया जाता था.बृहत्संहिता के ये उपकरण सम्बन्धी उल्लेख इसलिए भी बहुत उपयोगी हो जाते हैं कि वर्त्तमान समय में पुरातत्त्व विभाग के द्वारा जैसे कुछ खास उपकरणों की सहायता से
बहुत सावधानी के साथ किसी खास चिह्नित स्थान का उत्खनन किया जाता है,उसी प्रकार से कूप उत्खनन के दौरान भी तेज और धारदार उपकरणों का प्रयोग करते हुए बहुत सावधानी बरती जाती थी ताकि भूगर्भीय जलनाड़ियों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़े. केवल उसी चट्टान को पैने और तेजधार हथियार से तोड़ा जाता था जो जल का अवरोधक होता था और पार्श्ववर्ति अन्य जल शिलाओं को छेड़ा नहीं जाता था.जलविज्ञान
जलाशय उत्खनन का यह कार्य उस समय बहुत वैज्ञानिक यानी ‘प्रोफेशनल’ तरीके से किया जाता था जब आज की तरह बिजली से चलने वाली मशीनें नहीं होती थीं. इस जलाशय
उत्खनन के अवसर पर जो छैनीं, हथौड़े, कुदाल, तलवार आदि धारदार हथियारों का प्रयोग किया जाता था उनकी धार तेज करने के उपाय भी बृहत्संहिता में बताए गए हैं, ताकि जलाशय या कूप उत्खनन के समय कठोर तथा न टूटने वाले विशाल चट्टानों को तेज धारदार हथियारों द्वारा आसानी से तोड़ा जा सके. इस सम्बंध में वराहमिहिर ने भूमिगत कठोर शिलाओं और चट्टानों को तोड़ने वाले उपकरणों को मजबूत और धारदार बनाने के लिए जो अनेक प्रकार के रासायनिक फार्मूले बताए हैं,वे इस प्रकार हैं-जलविज्ञान
1. हुडुमेष की श्रृंगभस्म को कबूतर
तथा चूहे की विष्ठा में पीस कर लगाने और तेल से स्निग्ध पाषाण भेदक यंत्र ‘टंक’ पर पान देने से पत्थर तोड़ने वाले औजार की धार तेज हो जाती है-“आर्कं पयो हुडुविषाणमषीसमेतं
पारावतऽखुशकृता च युतः प्रलेपः.
टङ्कस्य तैलमथितस्य ततोऽस्य पानं
पश्चात्शितस्य न शिलासु भवेद्विघातः..”
-बृहत्संहिता, 54.116
2. केले के खार को छाछ
में मिलाए गए रासायनिक घोल का लेप लगाने से पाषाण भेदी यंत्र-उपकरणों की धार को तेज और मजबूत किया जा सकता है-“क्षारे कदल्या मथितेन युक्ते
दिनोषिते पायितमायसं यत्.
सम्यक् शितं चाश्मनि नैति भङ्गं न चान्यलौहेष्वपि तस्य कौण्ठ्यम्॥”
-बृहत्संहिता, 54.117
नौलों की चिनाई और काष्ठबन्धन
वापी की मजबूती के
लिए यह आवश्यक माना गया था कि उसके चारों ओर पत्थर-ईंट से बनी दीवारों की ऊपर तक चिनाई की जाए और उसके किनारों को मजबूत काष्ठ खण्डों से बांध दिया जाए. वापी के किनारे की मिट्टी की प्रत्येक तह को हाथी,घोड़ों आदि पशुओं से रौंदवा दिया जाता था ताकि जल के टकराने से उसके किनारे टूटें नहीं –“तां चेदिच्छति सारदारुभि-
रपां सम्पातं आवारयेत्.
पाषाणऽदिभिरेव वा प्रतिचयं
क्षुण्णं द्विपार्श्वाऽदिभिः..
-बृहत्संहिता, 54.118
दीवारों की चिनाई का प्लास्टर
प्राचीन काल में दीवार की चिनाई करने, प्रासाद, कूप,आदि के निर्माण हेतु रासायनिक विधि से जो मसाला या प्लास्टर तैयार किया जाता था उसे ‘वज्रलेप’ की संज्ञा दी गई है.
वराहमिहिर की ‘बृहत्संहिता’ और राजा भोज के ‘समराङ्गणधार’ तथा ‘मयमतम्’ नामक ग्रन्थों में हमें भवन निर्माण और जलाशय निर्माण करते समय पत्थर और ईंटों को जोड़ने वाले ऐसे मजबूत और प्रभावशाली लेपों अथवा प्लास्टरों के प्रयोग होने का वर्णन मिलता है. इस सम्बंध में वराहमिहिर ने अपने ग्रन्थ ‘बृहत्संहिता’ के 57वें अध्याय में वज्रलेप बनाने की चार प्रकार की रासायनिक विधियां बताई हैं,उनमें से एक महत्त्वपूर्ण विधि का उल्लेख यहां अवश्य करना चाहेंगे, जिसे कूप आदि की दीवारों की चिनाई के लिए विशेष रूप से प्रयोग में लाया जाता था-जलविज्ञान
“आमं तिन्दुकं आमं कपित्थकं
पुष्पं अपि च शाल्मल्याः.
बीजानि शल्लकीनां
धन्वनवल्को वचा चैति..
एतैः सलिलद्रोणः क्वाथयि-
तव्योs अष्टभागशेषश्च.
अवतार्योs अस्य च कल्को
द्रव्यैरेतैः समनुयोज्यः..
श्रीवासकरसगुग्गुलुभल्लातक कुन्दुरूकसर्जरसैः.
अतसीबिल्वैश्च युतःकल्कोsयं
वज्रलेपाख्यः..
प्रासादहर्म्यवलभीलिङ्ग-
प्रतिमासु कुड्यकूपेषु.
सन्तप्तो दातव्यो
वर्षसहस्रायुतस्थायी..”
– बृहत्संहिता, 57.1-4
जलविज्ञान
अर्थात् तेन्दु के कच्चे फल,कैथ के कच्चे फल, सेमर के फूल,शल्लकी वृक्ष के बीज, धन्वन वृक्ष की छाल, वच, इन सबसे एक द्रोण जल में डालकर सबसे पहले काढ़ा बना
लेना चाहिए. जब यह अष्टमांश रह जाय तब उसको आंच से उतार लेना चाहिए.उसके बाद उस काढ़े में श्रीवासक वृक्ष का गोंद,अलसी, बेल की गिरी, इन सबको पीसकर डाल देना चाहिए इस प्रकार यह ‘वज्रलेप’ नामक काढ़ा या प्लास्टर तैयार हो जाएगा.इस गर्म ‘वज्रलेप’ (प्लास्टर) का प्रयोग यदि प्रासाद,देवमन्दिर,दीवार और कूपादि के निर्माण में किया जाए तो यह लेप हजार वर्षों तक नहीं छूटता है.जलविज्ञान
वराहमिहिर ने जलप्रबन्धन
और जलवितरण की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने के प्रयोजन से जलाशय से जल निकासी हेतु पत्थरों से बनी पक्की नालियों के निर्माण का भी विधान किया है.नाली बनाने के बाद उसे लकड़ी के तख्तों से ढक दिया जाना चाहिए और ऊपर से उन तख्तों पर मिट्टी डालकर उन्हें अच्छी तरह से दबा देना चाहिए-“द्वारं च नैर्वाहिकमेकदेशे
कार्यं शिलासं चितवारिमार्गम्.
कोशस्थितं निर्विवरं कपाटं
कृत्वा ततःपांसुभिरावपेत्तम्..”
-बृहत्संहिता,54.120
नौला परिसर में छायादार वृक्ष
एक पर्यावरणवादी जलवैज्ञानिक
के रूप में वराहमिहिर ने दीर्घकाल तक जल की उपलब्धि बनाए रखने के लिए जलाशय के तटों पर अनेक प्रकार के छायादार और फलदार वृक्षों को लगाने का भी विधान किया है ताकि भविष्य में कभी जलाशय सूखे नहीं और भूमिगत जल नाड़ियां सदैव सक्रिय रहें. जलाशय के किनारों पर लगाए जाने वाले वृक्ष हैं- अर्जुन, बड़, आम, पिलखन,कदम्ब‚ निचुल‚ जामुन‚ बेंत‚ नीम‚ कुरबक‚ ताल‚अशोक‚ महुआ‚मौलसिरी आदि-“ककुभवटाम्रप्लक्षकदम्बैः
सनिचुलजम्बूवेतसनीपैः. कुरबकतालाशोकमधूकै-
र्बकुलविमिश्रैश्चावृततीरम्. .”
-बृहत्संहिता‚ 54-119
भूमिगत जलशुद्धि के उपाय
कूप‚बावड़ी,नौला आदि खोदने के
बाद उसमें से निकले भूमिगत जल को शुद्ध करना भी आवश्यक है.उसके लिए भी वराहमिहिर ने अनेक आयुर्वैदिक उपाय बताए हैं.अंजन‚ मोथा‚ खस‚ बड़ी तुरई‚आंवला‚ कतक इन सबका चूर्ण कूप, वापी या नौला में में डालने से कड़वा, खारा‚ प्रदूषित और बेस्वाद जल भी शुद्ध‚मीठा‚सुस्वादु तथा उत्तम गुणों से युक्त हो जाता है-“अंजनमुस्तोशीरैः सराज- कोशातकामलकचूर्णैः.
कतकफलसमायुक्तैर्योगः
कूपे प्रदातव्यः..
“कलुषं कटुकं लवणं विरसं
सलिलं यदि वा शुभगन्धि भवेत्.
तदनेन भवत्यमलं सुरसं
सुसुगन्धिगुणैरपरैश्च युतम्..”
-बृहत्संहिता‚ 54.121-22
जलविज्ञान
भारतवर्ष में पुराण,धर्मशास्त्र आदि ग्रन्थों में नौला,वापी कूप, तालाब आदि के निर्माण के सम्बन्ध में जो परंपरागत और शास्त्रीय मान्यताएं रही हैं, उनसे आधुनिक जलविज्ञान के अध्येता और शोधकर्त्ता प्रायःअनभिज्ञ ही रहे हैं.
इसलिए यह मानना होगा कि प्राचीन नौलों,धारों और जलस्रोतों के लुप्त होने के साथ साथ आज भारतीय जलविज्ञान के हजारों वर्ष प्राचीन जलाशय उत्खनन और उनके निर्माण की तकनीक भी लुप्त होने के कगार पर है.इसलिए जब हम भारत के महान खगोलशास्त्री,भूविज्ञानी और जल वैज्ञानिक वराहमिहिर द्वारा प्रतिपादित परंपरागत जलविज्ञान के सिद्धांतों और मान्यताओं और उन जलाशयों के निर्माण सम्बन्धी तकनीक के बारे में चर्चा करते हैं तो वह परम्परागत जलस्रोतों के संरक्षण और उनके पुनर्जीवित करने की ही बात है.जलविज्ञान
आधुनिक जलवैज्ञानिक
और जल-अभियंता इन परंपरागत जलस्रोतों की रक्षा करने में इसलिए भी असमर्थ सिद्ध हो रहे हैं, क्योंकि उन्हें इन परंपरागत जलाशयों के उत्खनन और निर्माण तकनीक की पर्याप्त जानकारी नहीं है. आधुनिक जलवैज्ञानिकों द्वारा जलागम क्षेत्रों में किए गए सर्वेक्षण और शोधपरक आंकड़े वर्त्तमान जलसंकट की समस्याओं और उनके कारणों को समझने की दृष्टि से तो उपयोगी हो सकते हैं किन्तु इन सर्वेक्षणों से भूमिगत गिरते जलस्तर को रोकने में कोई मदद नहीं मिलती.
जलविज्ञान
आधुनिक जलवैज्ञानिक और जल-अभियंता इन परंपरागत जलस्रोतों की रक्षा करने में इसलिए भी असमर्थ सिद्ध हो रहे हैं, क्योंकि उन्हें इन परंपरागत जलाशयों के उत्खनन और निर्माण तकनीक
की पर्याप्त जानकारी नहीं है. आधुनिक जलवैज्ञानिकों द्वारा जलागम क्षेत्रों में किए गए सर्वेक्षण और शोधपरक आंकड़े वर्त्तमान जलसंकट की समस्याओं और उनके कारणों को समझने की दृष्टि से तो उपयोगी हो सकते हैं किन्तु इन सर्वेक्षणों से भूमिगत गिरते जलस्तर को रोकने में कोई मदद नहीं मिलती. उसके लिए भूगर्भीय जलविज्ञान की नाड़ियों को समझने की जरूरत है,जिस पर भारत के परम्परागत जलाशयों का समग्र जलविज्ञान आधारित है.जलविज्ञान
आगामी लेख में पढ़िए- जलाशय निर्माण में वास्तु संरचना और ग्रह-नक्षत्रों की भूमिका
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय
के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)