Tag: प्रकाश उप्रेती

जो मजा बनारस में, न पेरिस में, न फारस में…

जो मजा बनारस में, न पेरिस में, न फारस में…

पुस्तक-समीक्षा
कॉलम: किताबें कुछ कहती हैं... प्रकाश उप्रेती इस किताब ने 'भाषा में आदमी होने की तमीज़' के रहस्य को खोल दिया. 'काशी का अस्सी' पढ़ते हुए हाईलाइटर ने दम तोड़ दिया. लाइन- दर- लाइन लाल- पीला करते हुए because कोई पेज खाली नहीं जा रहा था. भांग का दम लगाने के बाद एक खास ज़ोन में पहुँच जाने की अनुभूति से कम इसका सुरूर नहीं है. शुरू में ही एक टोन सेट हो जाता और फिर आप उसी रहस्य, रोमांस, और औघड़पन की दुनिया में चले जाते हैं. यह उस टापू की कथा है जो सबको लौ... पर टांगे रखता है और उसी अंदाज में कहता है- "जो मजा बनारस में, न पेरिस में, न फारस में". ज्योतिष "धक्के देना और धक्के खाना, जलील करना और जलील होना, गालियां देना और गालियां पाना औघड़ संस्कृति है. अस्सी की नागरिकता के मौलिक अधिकार और कर्तव्य. because इसके जनक संत कबीर रहे हैं और संस्थापक औघड़  कीनाराम. चंदौली के गांव से नगर आए एक आप्रवासी संत....
‘वड’ झगडै जड़

‘वड’ झगडै जड़

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—43 प्रकाश उप्रेती आज बात “वड” की. एक सामान्य सा पत्थर जब दो खेतों की सीमा निर्धारित करता है तो विशिष्ट हो जाता है. 'सीमा' का पत्थर हर भूगोल में खास होता है. ईजा तो पहले से कहती थीं कि-because “वड झगडै जड़” (वड झगड़े का कारण). 'वड' उस पत्थर को कहते हैं जो हमारे यहाँ दो अलग-अलग लोगों के खेतों की सीमा तय करता है. सीमा विवाद हर जगह है लेकिन अपने यहाँ 'वड' विवाद होता है. पहाड़ में वाद-विवाद और 'घता-मघता' (देवता को साक्षी मानकर किसी का बुरा चाहना) का एक कारण 'वड' भी होता था. ईजा के जीवन में भी वड का पत्थर किसी न किसी रूप में दख़ल देता था . ज्योतिष जब भी परिवार में भाई लोग “न्यार” (भाइयों के बीच बंटवारा) होते थे तो जमीन के बंटवारे में, वड से ही तय होता था कि इधर को तेरा, उधर को मेरा. 'पंच', खेत को नापकर बीच because में वड रख देते थे. यहीं से तय हो जाता था...
पहाड़ों में ‘छन’ की अपनी दुनिया

पहाड़ों में ‘छन’ की अपनी दुनिया

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—42 प्रकाश उप्रेती आज बात "छन" की. छन मतलब गाय-भैंस का घर. छन के बिना घर नहीं और घर के बिना छन नहीं.  पहाड़ में घर बनाने के साथ ही छन बनाने की भी हसरत होती थी. एक अदत छन की इच्छा हर कोई पाले रहता है. ईजा को घर से ज्यादा छन ही अच्छा लगता है. उन्हें बैठना भी हो तो छन के पास जाकर बैठती हैं. छन की पूरी संरचना ही विशिष्ट थी. ईजा के लिए छन एक दुनिया थी जिसमें गाय-भैंस से लेकर 'किल' (गाय-भैंस बांधने वाला), 'ज्योड़' (रस्सी), 'अड़ी' (दरवाजे और बाउंड्री पर लगाने वाली लकड़ी) 'मोअ' (गोबर), 'कुटो'(कुदाल), 'दाथुल' (दरांती),  'डाल' (डलिया), 'फॉट' (घास लाने वाला),  'लठ' (लाठी), 'सिकोड़' (पतली छड़ी) और 'घा' (घास) आदि थे. इन्हीं में ईजा खुश रहती थीं. हम कम ही छनपन जाते थे लेकिन ईजा कभी-कुछ, कभी-कुछ के लिए चक्कर लगाती ही रहती थीं. हमें 'किल घेंटने' के लिए जरूर कहती थीं- "...
कंकट सिर्फ लकड़ी नहीं बल्कि पहाड़ की विरासत का औज़ार है

कंकट सिर्फ लकड़ी नहीं बल्कि पहाड़ की विरासत का औज़ार है

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—41 प्रकाश उप्रेती पहाड़ जरूरत और पूर्ति के मामले में हमेशा से उदार रहे हैं. वहाँ हर चीज की निर्मिति उसकी जरूरत के हिसाब से हो जाती है. आज जरूरत के हिसाब से इसी निर्मिति पर बात करते हैं. because यह -"कंकट" है. इसका शाब्दिक अर्थ हुआ काँटा, काटने वाला. वैसे 'कंकट' मतलब जरूरत के हिसाब से तैयार वह हथियार जिसे काँटे वाली झाड़ियाँ काटते हुए प्रयोग किया जाता था. कुछ-कुछ गुलेल की तरह का यह हथियार झाड़ियाँ काटते हुए "बड्याट" (बडी दरांती) का हमराही होता था. दोनों की संगत ही आपको काँटों से बचा सकती थी. इनकी संगत के बड़े किस्से हैं. ज्योतिष कंकट बहुत लंबा नहीं होता था. एक हाथ भर का ही बनाया जाता था. ईजा कुछ छोटे और कुछ बड़े बनाकर रखे रहती थीं. because रखने की जगह या तो 'छन' की छत होती थी या फिर जहाँ सभी छोटी-बड़ी दराँती रखी रहती थीं, वहाँ होती थी. अमूमन तो सूखी लक...
अब कौन ‘नटार’ से डरता है…

अब कौन ‘नटार’ से डरता है…

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—40 प्रकाश उप्रेती पहाड़ में खेती हो न हो लेकिन "नटार" हर खेत में होता था. "नटार" मतलब खेत से चिड़ियों को भगाने के लिए बनाया जाने वाला ढाँचा सा. तब खेतों में जानवरों से ज्यादा चिड़ियाँ because आती थीं. एक -दो नहीं बल्कि पूरा दल ही आता था. झुंगर, मंडुवा, तिल, गेहूं, जौ, सरसों और धान सबको सफाचट कर जाते थे. कई बार तो उनके दल को देखकर ईजा हा...हा ऊपर से बोल देती थीं लेकिन तब चिड़ियाँ निडर हुआ करती थीं. दूर भागने की जगह वो निर्भीक होकर दाने चुगती रहती थीं. ज्योतिष खेत में बीज बोने के बाद ईजा की दो प्रमुख चिंताएं होती थीं: एक 'बाड़' करना और दूसरा "नटार" लगाना. बाड़, पशुओं के लिए और नटार, चिड़ियों के लिए. बाड़ के लिए ईजा '"रम्भास" (एक पेड़) और अन्य लकड़ियां लेकर आती थीं. सम्बल से उन्हें 'घेंटने' के बाद लम्बी लकड़ियों को सीधा और छोटी लकड़ियों को आड़ा- because तिरछा ल...
ईजा को ‘पाख’ चाहिए ‘छत’ नहीं

ईजा को ‘पाख’ चाहिए ‘छत’ नहीं

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मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—39 प्रकाश उप्रेती पहाड़ के घरों की संरचना में 'पाख' की बड़ी अहम भूमिका होती थी. "पाख" मतलब छत. इसकी पूरी संरचना में धूप, बरसात और एस्थेटिक का बड़ा ध्यान रखा जाता था. because पाख सुंदर भी लगे और टिकाऊ भी हो इसके लिए रामनगर से स्पेशल पत्थर मँगा कर लगाए जाते थे. रामनगर से पत्थर मंगाना तब कोई छोटी बात नहीं होती थी. अगर गाँव भर में कोई मँगा ले तो कहते थे-"सेठ आदिम छु, पख़्म हैं रामनगर बे पथर ल्या रहो" (सेठ आदमी है, छत के लिए रामनगर से पत्थर लाया है). ज्योतिष पाख की संरचना में एक 'धुरेणी' because (छत के बीचों- बीच बनी मेंड सी) दूसरी, "दन्यार" (छत के आगे के हिस्से में लगे पत्थर, जिनसे बारिश का पानी सीधे नीचे जाता था) और तीसरी चीज होती थी "धुँवार" (रोशन दान). इनसे ही पाख का एस्थेटिक बनता था. ज्योतिष पाख में जो "धुरेणी" होती थी वह सबसे महत्वपूर्ण थी. वही...
सुन रहे हो प्रेमचंद! मैं विशेषज्ञ बोल रहा हूँ

सुन रहे हो प्रेमचंद! मैं विशेषज्ञ बोल रहा हूँ

साहित्यिक-हलचल
प्रकाश उप्रेती पिछले कई दिनों से आभासी दुनिया की दीवारें प्रेमचंद के विशेषज्ञों से पटी पड़ी हैं. इधर तीन दिनों से तो तिल भर रखने की जगह भी नहीं बची है. एक से बढ़कर एक विशेषज्ञ हैं. नवजात से लेकर वयोवृद्ध विशेषज्ञों की खेप आ गई है. गौर से देखने पर मालूम हुआ कि इनमें तीन तरह के विशेषज्ञ हैं. वैसे तीनों कोटि के विशेषज्ञ नाभिनालबद्ध हैं. because अंतर बस आभा में है. तीनों की अंतरात्मा जोर देकर यही कहती है- प्रेमचंद पर भी पढ़ना पड़ेगा क्या? उन पर तो बोला जा सकता है. इस भाव के साथ ये प्रेमचंद की आत्म को बैकुण्ठ देने मैदान में उतर आते हैं. इन तीन कोटि के विशेषज्ञों के बारे में थोड़ा जान लें- ज्योतिष इनमें पहली कोटि के विशेषज्ञ वो हैं जिन्होंने सालों- साल से प्रेमचंद की कोई कहानी तक नहीं पढ़ी है. ये प्रथम कोटि के विशेषज्ञ हैं. ये पूर्वज्ञान के बल पर ही प्रेमचंद को निपटा देते हैं. because यह कोई ...
ओ हरिये ईजा..कुड़ी मथपन आग ए गो रे

ओ हरिये ईजा..कुड़ी मथपन आग ए गो रे

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—38 प्रकाश उप्रेती 'ओ...हरिये ईजा ..ओ.. हरिये ईज... त्यूमर कुड़ी मथपन आग ए गो रे' (हरीश की माँ... तुम्हारे घर के ऊपर तक आग पहुँच गई है). आज बात उसी- "जंगलों में लगने वाली आग" की. because मई-जून का महीना था. पत्ते सूख के झड़ चुके थे. पेड़ कहीं से भी खूबसूरत नहीं लग रहे थे. चीड़ के पेड़ों से 'पिरूहु' (चीड़ की घास) झड़ कर रास्तों और जंगलों में फैल गया था. रास्तों में इतनी फिसलन कि चलना मुश्किल हो रहा था. हर जगह पिरूहु ही पिरूहु था. ज्योतिष ईजा जब भी घास काटने जाती 'दाथुल' (दरांती) या लाठी से पिरुहु को रास्ते से हटातीं चलती थीं. यह उनका रोज का काम था. ईजा के साथ सूखी लकड़ी लेने हम भी जाते थे तो ईजा कहती थीं- because "भलि अये हां, इनुपन पिरूहु है रो रडले" (ठीक से आना, इधर चीड़ की घास बिखरी पड़ी है, फिसलना मत). हम संभल-संभल कर चलते थे. कई बार तो 'घस-घस' फिसल भी ...
“खाव” जब आबाद थे

“खाव” जब आबाद थे

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—37 प्रकाश उप्रेती पहाड़ में पानी समस्या भी है और समाधान भी. एक समय में हमारे यहाँ पानी ही पानी था. इतना पानी कि सरकार ने जगह-जगह सीमेंट की बड़ी-बड़ी टंकियाँ बना डाली थी. जब हमारी पीढ़ी सीमेंट की टंकियाँ देख रही थी तो ठीक उससे पहले वाली पीढ़ी मिट्टी के "खाव" बना रही थी. आज बात उसी 'खाव' की. 'खाव' मतलब गाँवों के लोगों के द्वारा जल संरक्षण के लिए बनाए जाने वाले तालाब. बात थोड़ी पुरानी है लेकिन उतनी भी नहीं कि भुलाई और भूली जा सके. हमारे यहाँ कई जगहों के और गाँवों के नाम के साथ खाव लगा है.जैसे- रुचि खाव, खावे ढे, पैसि खाव, और भी कई खाव थे. कई जगहों की पहचान ही खाव से थी. जगहें तो अब भी हैं लेकिन खाव समतल मिट्टी में तब्दील हो गए हैं. सीमेंट ने पानी और खाव दोनों को निगल लिया. वह समय था जब पानी लेने के लिए सुबह-शाम 'पह्यरियों' (पानी लाने वाली महिलाएँ) की लाइ...
जीवन का अँधेरा दूर करने वाला ‘लम्फू’

जीवन का अँधेरा दूर करने वाला ‘लम्फू’

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—36 प्रकाश उप्रेती आज बात रोशनी के उस सीमित घेरे की जहां से अंधेरा छटा. जीवन की पहली किताब उस रोशनी के नाम थी जिसे हम 'लम्फू' कहते थे. 'लम्फू' मतलब लैम्प. वह आज के जैसा लैम्प नहीं था. उसकी रोशनी की अदायगी निराली थी. पढ़ाई से लेकर लड़ाई तक लम्फू हमसफर था. ईजा और लम्फू दोनों रोशनी देते रहे लेकिन उनके इर्द-गिर्द अंधेरा बड़ा घेरा बनाता गया. दिन ढलते ही लम्फू में मिट्टी का तेल डालना, उसकी बत्ती   को ऊपर करना, रोज का नियम सा था. ईजा जब तक 'छन' (गाय-भैंस बांधने की जगह) से आती हम 'गोठ'(घर का नीचे का हिस्सा), 'भतेर' (घर का ऊपर का हिस्सा) में लम्फू जला कर रख देते थे. लम्फू रखने की जगह भी नियत थी. भतेर में वह स्थान 'गन्या' (दीवार का कुछ हिस्सा बाहर को निकला और ऊपर से थोड़ा समतल) होता था. वहाँ से पूरे भतेर में रोशनी पहुँच जाती थी. गोठ में चूल्हे के सामने की दीवार...