- डॉ अमिता प्रकाश
“मैडम, आज रोहिणी आ रही है.” सुनीता ने मुझसे कहा तो रोहिणी की अनेकों स्मृतियाँ कौंध उठीं. शादी के एक साल बाद रोहिणी अपने घर आ रही थी. अपना घर…? वह घर जहाँ उसने जन्म लिया था. वह घर जिसके आँगन में खेलकूद कर वह बड़ी हुयी थी. वह घर जिसकी कई चीजों को उसने अपने हाथों से एक रूप दिया था. आँगन के नीचे वाले खेत में लगे कई माल्टे के पेड़ जो आज बड़े होकर उसके स्वेद के मोतियों को ही मानो फलों के रूप में धारण कर रहे थे, उसने अपने हाथों से उन्हें लगाया था. जिस उम्र में बच्चे अपने गुड्डे-गुड़ियाओं में मस्त होते हैं उस उम्र के उसके ये साथी आज उसी की तरह फलित होने लगे हैं… वह भी तो पेट से है, सोचकर चिन्ता की कई रेखाएँ मेरे चेहरे पर तैर आती हैं. उसका वही अपना घर.
लेकिन अब कहाँ अपना रह गया था? शादी के दूसरे दिन ‘दोहरबाट’के लिए आयी थी. मात्र रस्म निबाहने के लिये. उसी समय उसने सोचा था कि अब मुड़कर इस तरफ नहीं आयेगी. जब शादी की तैयारी चल रही थी, उसी दौरान एक दिन मेरे कमरे में आकर फफक-फफक कर रो उठी, “दीदी एक बार शादी हो गयी…तो फिर कभी लौटकर नहीं आऊँगी यहाँ.”
“ ऐसा नहीं कहते पगली”, मैंने उसका सिर सहलाते हुये कहा.
शाम को रोहिणी की माँ मेरे पास आईं. दुबली-पतली, गोरी-चिट्ठी, तीखे नैन-नक्श वाली महिला संभ्रान्त जान पड़ रही थी. उम्र से भी काफी कम थी. अगर रोहिणी साथ न होती तो शायद मैं पहचान भी नहीं पाती, और सबसे बड़ी बात तो यह है कि मुझे उम्मीद नहीं थी कि मेरे एक बार कहने पर वह यूँ मुझसे मिलने चली आयेंगी.
मुझे पता था कि रोहिणी शादी से खुश नहीं है. खुश होती भी कैसे? शादी से जुड़ी खुशियों या दुःखों से उसका परिचय ही कहाँ था? अभी एक साल पहले तो उसने हाईस्कूल किया था. मेरी छात्रा थी. मुझसे न जाने क्यों काफी लगाव था उसे ? और मुझे भी वह अपने सभी मानसपुत्र-पुत्रियों में सबसे प्रिय. जब वह स्कूल में थी, उन्हीं दिनों उसकी सहपाठिनियों से यह पता चला कि अगले अक्टूबर में उसकी शादी है. सुनकर आश्चर्य हुआ. मात्र चैदह-पन्द्रह साल की उम्र में शादी? और वह भी आज के समय में? जब मेरी नियुक्ति रोहिणी के गाँव में हुई थी उस समय यूँ हाईस्कूल की बच्चियों की शादी की बात सुनकर ही बड़ा आश्चर्य होता था, क्योंकि गाँव इतने इंटीरियर में नहीं था कि नयी दुनिया-जहान से उनका कोई वास्ता ही ना हो, और फिर यह स्थिति बहुत पुरानी भी तो नहीं थी. जुलाई 2003 में नियुक्ति के बाद अक्टूबर से ही मैंने अपनी ही कई छात्राओं की शादी देखनी प्रारम्भ कर दी थी. शुरू में तो एक-दो जगह विरोध भी दर्ज करवाया. लेकिन माँ-बाप के तर्क सुनकर चुप रहना ही उचित समझा.
रोहिणी की बड़ी-बड़ी आँखों में डब-डबा आये आंसुओं को अनदेखा करने की कोशिश करते हुये मैंने उससे कहा, “रोहिणी अपनी माँ को मेरे रूम में भेजना, मैं उनसे बात करूँगी.’’ मुझे ज्ञात हुआ था कि रोहिणी की सगाई नहीं हुई है, सिर्फ बात चल रही है और अगर बात पक्की हो जाती है तो अगले अक्टूबर तक शादी भी हो जायेगी. रोहिणी होनहार भले ही नहीं थी पर औसत बुद्धि रखती थी. मैं चाहती थी कि उसकी माँ से मिलकर उन्हें कुछ समझाऊँ या उनसे रोहिणी को कम से कम इण्टर तक पढ़ाने के लिये कहूँ. तब तक वह शारीरिक-मानसिक दोनों रूपों से शादी के लिये तैयार हो जाये.
शाम को रोहिणी की माँ मेरे पास आईं. दुबली-पतली, गोरी-चिट्ठी, तीखे नैन-नक्श वाली महिला संभ्रान्त जान पड़ रही थी. उम्र से भी काफी कम थी. अगर रोहिणी साथ न होती तो शायद मैं पहचान भी नहीं पाती, और सबसे बड़ी बात तो यह है कि मुझे उम्मीद नहीं थी कि मेरे एक बार कहने पर वह यूँ मुझसे मिलने चली आयेंगी. मैंने उन्हें बैठने के लिए कहा और रोहिणी को जानबूझकर अपना सामान मँगाने के बहाने वहाँ से दूर भेज दिया.
“भैन्जी !रोहिणी ने बताया कि आप मुझसे मिलना चाहती हैं.” टूटी-फूटी हिन्दी में उन्होंने मुझसे बात की शुरुआत की.
“ हाँ, रोहिणी के बारे में ही बात करनी थी. मैंने सुना उसकी शादी होने वाली है?’’
“अभी कहाँ… भैन्जी? अभी तो बात चल रही है, पर एक बार रोहिणी के पिताजी भी उनका घर देखकर आ जायें तो अगले महीने तक सगाई भी कर देंगे.”
“लेकिन अभी तो रोहिणी बहुत छोटी है…’’, कहते हुए मैंने बात का सिरा पकड़ने की कोशिश की.
“छोटी कहाँ है भैन्जी? इसकी दीदी की शादी तो इस उम्र में हो चुकी थी और फिर छोटी-बड़ी क्या देखें ? जाना तो है ही उसे एक न एक दिन. फिर चाहे कल जाये या आज, और फिर घर-बार बहुत अच्छा है. खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने की कोई कमी नहीं है. और क्या चाहिये हमें इससे ज्यादा ? आज के जमाने में लड़की इज्जत से ‘अपने घर’ चली जाये, इससे बड़ा सुख क्या है माँ-बाप के लिए?’’ अनवरत बोलती जा रहीं थी वह.
अन्ततः हथियार डालते हुये मैंने पूछा, “लड़का करता क्या है ?’’
उसने बताया कि दिल्ली में हीरो होन्डा फैक्ट्री में मैनेजर है. मैं उन्हें समझाना चाहती थी कि पहाड़ के लड़के दिल्ली में किस प्रकार का मैनेजमैंट करते हैं ? लेकिन उनकी दुनियादारी के आगे मेरा किताबी ज्ञान बौना साबित हो गया.
फिर वह दिन भी आ गया जब रोहिणी दुल्हन बनी तथा ‘अपने घर’से विदा हुयी. उसकी आँखों में उमड़ते आँसुओं के बीच मैंने साफ महसूस किये थे अनेकों गिले-शिकवे और कौतुहलता मिश्रित हल्की सी खुशी. ये खुशी शायद इस उम्मीद की थी कि अब उसे इस नारकीय जीवन से हटकर जीवन मिले. शादी तय होने के बाद अकसर पिता की गालियों और मार से बचने के लिये वह मेरे कमरे में आ जाया करती थी, और खूब रोते हुए कहती, “मैडम जी, एक बार मेरी शादी हो जायेगी तो मैं फिर कभी लौटकर यहाँ नहीं आऊँगी.” मैं अचकचाकर रह जाती. क्या कहती उससे कि वह घर क्या पता कैसा हो?
शादी के बाद जब पहली बार रोहिणी मुझे मिली तो उसके चेहरे की चमक ने मेरे मन को सांत्वना प्रदान की. मैं समझ चुकी थी कि भले ही कुछ माह हुए हैं, पर फिलहाल वह वहाँ पर खुश है. लेकिन अब जब जच्चगी के लिए आयी है तो बड़ी बुझी-सी है.
कितनी अनजान थी वह दुनिया की निर्ममता से, सोचकर ही रोंगटे से मेरे पूरे बदन पर उभर आते कि कहीं इसे इससे भी ज्यादा खराब माहौल मिला तो? आखि़र वो भी तो ससुराल ही होते हैं, जहाँ बहुओं को बिना चिता मुहैया कराये ही भस्मीभूत कर दिया जाता है और इस सोच से ही मैं आँखें भींचकर अपनी साँसों को नियंत्रित करने की कोशिश करती. रोहिणी का परिवार बाह्य दृष्टि से तो सुखद परिवार की श्रेणी में आता था, किन्तु जब पिता पीकर हो-हल्ला मचाते तो सारा घर ही नरक बन जाता था. कई रातें ठण्ड में ठिठुरते हुए उन्हें बाहर काटनी पड़ती थीं, क्योंकि उस समय पिता के सामने जाना मौत को दावत देने के ही बराबर होता था. रोहिणी के ये कष्ट मैंने कई बार उसी से सुने थे. सुनकर उस छोटी सी बच्ची के प्रति मन द्रवित हो उठता और पिता के प्रति रोष की लहरें ठाठें मारने लगती थीं. पर इससे ज्यादा मेरे अधिकार क्षेत्र में कुछ भी तो न था. पहाड़ में तो हर दूसरे घर की कहानी ही यही थी. यहाँ का कोई पुरुष फौज से सकुशल रिटायर होने की खुशी में वहाँ से मिलने वाले कोटे को पीता है तो कोई जीवनभर महानगरों के होटलों या हवेलियों में काम करते हुए मिले तिरस्कार का बदला अपने घरवालों से लेने के लिए पीता है.
शादी के बाद जब पहली बार रोहिणी मुझे मिली तो उसके चेहरे की चमक ने मेरे मन को सांत्वना प्रदान की. मैं समझ चुकी थी कि भले ही कुछ माह हुए हैं, पर फिलहाल वह वहाँ पर खुश है. लेकिन अब जब जच्चगी के लिए आयी है तो बड़ी बुझी-सी है. पहले तो मैंने सोचा… हो सकता है इस स्थिति से परेशान हो. आखिर जब मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने पूछ ही लिया, “रोहिणी, क्या बात है ? स्वास्थ्य ठीक है तुम्हारा?’’
“हाँ मैडम जी!’’ उसने जबरदस्ती होंठों पर मुस्कान लाने की कोशिश में अपना चेहरा और भी खराब कर दिया था.
“फिर ऐसी परेशान-सी क्यों हो?’’
“नहीं तो मैडम.” कहते हुये उसने बात को बिल्कुल खत्म ही कर दिया.
मुझे थोड़ा आश्चर्य सा हुआ. पहले जब रोहिणी आती थी तो दुनिया भर की बातों और शिकायतों का पिटारा खुल जाया करता था. आज घर में ऐसा हुआ, आज पापा ने यह कहा… माँ ने यह कहा… न जाने कितनी बातें. कभी-कभी जब में व्यस्त होती तो झुंझला उठती. रोहिणी ऐसे घर की बातों को सबके सामने नहीं कहते. मैं समझाकर चुप कराने की कोशिश करती तो उल्टे उसका ही भाषण शुरू हो जाया करता- “ मैं कहाँ सबसे कहती हूँ… आप ही से तो कहती हूँ. गुरू, माँ-बाप से कम नहीं होते, और फिर जब पापा शराब पीकर चैक के किनारे खड़े होकर हमारा पुराण पूजते हैं, तब क्या सबको हमारे घर की बातें पता नहीं चलतीं? लोग तो जानबूझकर छज्जे के किनारे अँधेरे में खड़े होकर सारी बातें सुनते हैं….”
मेरे पास उसकी बातों का कोई जवाब नहीं होता. और आज वही रोहिणी इतनी गुमसुम… इतनी चुपचाप… कि पूछने पर भी खामोशी की मूर्ति बनी खड़ी है. मन में कुछ कचोटने सा लगा. कैसे जानूँ कि आखिर बात क्या है? मैंने पूछा, ’’और आजकल तेरे हसबैण्ड कहाँ हैं?
“घर पर ही हैं.”
रोहिणी के यूँ दो-टूक जवाब से मैं भन्ना उठी. मैं जानना चाहती थी कि कब से घर पर है? कुछ काम-धाम करता है या नहीं? पर अब और कुछ पूछना मुझे उचित नहीं लगा.
उस दिन के बाद रोहिणी मेरे यहाँ नहीं आयी. काफी दिन बीतने पर जब मुझसे नहीं रहा गया, तो मैं ही उसके स्वास्थ्य का हाल-चाल पूछने शाम को घूमते-घूमते उसके घर तक चली गयी. न जाने किस भावना के वशीभूत.
वहाँ पहुँची तो रोहिणी घास लेने गयी थी. मैंने जब इन आखिरी दिनों में उसके यूँ घास लेने जाने पर आपत्ति जतायी तो उसकी माँ ने कहा, “भैन्जी! मैं तो मना कर रही थी पर जिद्द करके चली गयी. घर के अन्दर रुकना ही नहीं चाहती है.’’
“लेकिन आपको समझाना चाहिये था.’’
“मेरी सुनता ही कौन है?’’
जैसे मैंने उनकी दुखती रग पर हाथ रख दिया था. “मैं तो चाहती थी कि जैसा भी हो… अच्छा-बुरा… अपने घर पर ही होता, तो हम इस जंजाल से छूट जाते. वक्त को किसने देखा है? लेकिन उसके सास-ससुर नहीं माने. अस्पताल दूर होने का बहाना बना दिया. अब क्या करें? हमारी तो लड़की है…, मजबूरी है. बस किसी तरह से ये कुछ दिन कट जायें और सुख-शान्ति से बच्चा हो जाये तो मैं समझूँगी कि गंगा नहा आयी हूँ. जवांई भी शादी के तीन महीने बाद से घर पर ही पड़ा है. अब नामकरण तक की सारी जिम्मेदारी हमारी ही हुयी और अन्त में वंश वृद्धि उनकी.’’ उलाहना था एक ऐसी माँ के स्वर में जो बेटी का विवाह कर उसके सारे दायित्वों से स्वयं को मुक्त मान बैठी थी. मैं अवाक्…! माँ ऐसा सोच सकती है ? मन में सर्प की तरह फन उठाये खड़ा प्रश्न…उत्तरित भी और अनुत्तरित भी. फिर सोचा- साधनों का अभाव और परिस्थितियाँ शायद कुछ भी कहलवा देती हैं… वरना क्या इस माँ ने उसे जन्म देने में नहीं झेला होगा ये सबकुछ…?
रोहिणी पीठ पर घास का बोझ लिये यूँ चली आ रही थी, मानो उसे अपने दोहरे शरीर का आभास ही न हो.
“कैसी हो रोहिणी?’’
और उत्तर में वही फीकी सी मुस्कान.
अब मुझे उसकी परिपक्वता का राज समझ में आ गया था. उजाला समेटते हुये दिन की तरह तथा अँधेरा बिखेरती हुयी रात की तरह मेरे मन में अनेकों विचार आ-जा रहे थे….
(लेखिका रा.बा.इं. कॉलेज द्वाराहाट, अल्मोड़ा में अंग्रेजी की अध्यापिका हैं)