Month: June 2020

गढ़वाली रंगमंच व सिनेमा के बेजोड़ नायक :  बलराज नेगी

गढ़वाली रंगमंच व सिनेमा के बेजोड़ नायक :  बलराज नेगी

साहित्यिक-हलचल
जन्मदिन (30 जून)  पर विशेष महाबीर रवांल्टा गढ़वाली फिल्मों के जाने माने अभिनेता और रंगकर्मी बलराज नेगी का जन्म 30 जून 1960 को चमोली जिले के भगवती (नारायणबगड़) गांव के इन्द्र सिंह नेगी व धर्मा देवी के घर में हुआ था.सात भाई और दो बहिनों के परिवार में वे चौथे स्थान पर थे. आपके पिता गांव में परचून की दूकान चलाते थे. बलराज की आरंभिक शिक्षा नारायणबगड़ में हुई फिर डीएवी कालेज देहरादून से पढ़ने के बाद दिल्ली के करोड़ीमल कालेज से आपने स्तानक किया. दिल्ली में पढ़ाई के दौरान बलराज का रुझान नाटकों की ओर होने लगा और इन्होंने इसी क्षेत्र में कुछ करने का मन बना लिया. चंद्रा अकादमी ऑफ एक्टिंग मुंबई में प्रवेश लेने से पूर्व आपको किरण कुमार, राकेश पांडे, योगिता बाली जैसे कलाकारों की कसौटी से गुजरना पड़ा था. फिल्म एवं टेलीविजन  संस्थान पुणे के पूर्व प्रिंसिपल गजानन जागीरदार के मार्गदर्शन में आप...
‘दुदबोलि’ के रचना शिल्पी, साहित्यकार और समलोचक मथुरादत्त मठपाल

‘दुदबोलि’ के रचना शिल्पी, साहित्यकार और समलोचक मथुरादत्त मठपाल

साहित्यिक-हलचल
80वें जन्मदिन पर विशेष डा. मोहन चंद तिवारी 29 जून को जाने माने कुमाऊंनी साहित्यकार श्रद्धेय मथुरादत्त मठपाल जी का जन्मदिन है. उत्तराखंड के इस महान शब्दशिल्पी,रचनाकार और कुमाउनी दुदबोलि को भाषापरक साहित्य के रूप में पहचान दिलाने वाले ऋषिकल्प भाषाविद श्री मथुरादत्त मठपाल जी का व्यक्तित्व और कृतित्व उत्तराखंड के साहित्य सृजन के क्षेत्र में सदैव अविस्मरणीय ही रहेगा. मठपाल जी इतनी वृद्धावस्था  में भी निरन्तर रूप से साहित्य रचना का कार्य आज भी जारी रखे हुए हैं. वे सात-आठ घन्टे नियमित पठन, पाठन, लेखन का कार्य करते हुए देववाणी कुमाऊंनी और हिंदी साहित्य की आराधना में लगे रहते हैं. पिछले वर्ष जन्मदिवस पर उनके पुत्र नवेंदु मठपाल की पोस्ट से पता चला कि एक साल के दौरान ही मथुरादत्त मठपाल जी के द्वारा तीन नई किताबें प्रकाशित हुई ,जिनके नाम हैं-1.'रामनाम भौत ठूल', 2.'हर माटी है मुझको चंदन' (हिंदी...
रोपणी-“सामूहिक सहभागिता की मिशाल खेती का त्यौहार”

रोपणी-“सामूहिक सहभागिता की मिशाल खेती का त्यौहार”

उत्तराखंड हलचल
आशिता डोभाल पहाड़ों में खेती बाड़ी के कामों को सामूहिक रूप से त्यौहार जैसा मनाने की परम्परा वर्षों पुरानी है. हर मौसम में, हर फसल को बोने से लेकर, निराई—गुड़ाई और कटाई—छंटाई तक सारे कामों को त्यौहार के रूप मनाने की परम्परा सदियों पुरानी है, जिसमें रोपणी (धान की रोपाई) मुख्यत: एक ऐसी परम्परा थी. यह पूरे गांव की सहभागिता, सामूहिकता, आपसी भाईचारा को दर्शाती थी. पहाड़ों में रोपणी के लिए धान की नर्सरी (बीज्वाड़) चैत्र (मार्च-अप्रैल) माह में डाली जाती है, ताकि समय पर पौध तैयार हो जाए. सभी की यह कोशिश रहती थी कि सबकी नर्सरी एक साथ डाली जाय ताकि एक ही समय पर सबकी रोपणी लग सके. आषाढ़ (जून-जुलाई) का महिना एक ऐसा महिना होता है जब पूरे पहाड़ में हर गांव में रोपणी की धूम रहती थी, हर गांव घर परिवार को इंतजार रहता था कि कब उनके खेत में गुल का पानी पहुंचे और कब उनकी रोपणी लगे. बारी—बारी से सबके खे...
घुल्यास की दुनिया

घुल्यास की दुनिया

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—28 प्रकाश उप्रेती आज बात- 'घुल्यास' की. घुल्यास मतलब एक ऐसी लकड़ी जो पहाड़ की जिंदगी में किसी बड़े औजार से कम नहीं थी. लम्बी और आगे से मुड़ी हुई यह लकड़ी खेत से जंगल तक हर काम में आगे रहती थी. बगीचे से आम, माल्टा, और अमरूद की चोरी में इसका साथ हमेशा होता था. इज़्ज़त ऐसी की इसे नीचे नहीं बल्कि हमेशा पेड़ पर टांगकर ही रखा जाता था. ईजा इससे इतने काम लेती थीं कि हमारे पेड़ पर कम से कम चार-पांच अलग-अलग कद-काठी, लकड़ी व वजन के घुल्यास हमेशा टंगे रहते थे. हम भी सूखी लकड़ी लेने ईजा के साथ-साथ जाते थे. ईजा कहती थीं- "हिट म्यर दघे, मैं कच लकड़ काटूल तू उनों पन बे सूखी लकड़ चाहे ल्याले". हम भी ईजा के साथ चल देते थे. घुल्यास के लिए दाड़िम, भिमु, तिमूहुँ, गौंत, गीठी और मिहो की लकड़ी अच्छी मानी जाती थी. इसका कारण इन पेड़ों का मजबूत होना था. घुल्यास के लिए लकड़ी का मजबूत...
सनातन संस्कृति के मूल में है पर्यावरण की रक्षा

सनातन संस्कृति के मूल में है पर्यावरण की रक्षा

पर्यावरण
भुवन चन्द्र पन्त दुनिया के पर्यावरण विज्ञानी भले आज पर्यावरण संरक्षण की ओर लोगों को चेता रहे हों, लेकिन हमारे मनीषियों को तो हजारों-हजार साल पहले आभास था कि पर्यावरण के साथ खिलवाड़ के क्या भयावह परिणाम हो सकते हैं? भारत की सनातन संस्कृति जो वेदों से विकसित हुई, उन वैदिक ऋचाओं का मूल कथ्य ही प्रकृति के साथ सन्तुलन से जुड़ा है. जिसने वेदों का जरा भी अध्ययन न किया, वे वेदों को हिन्दुओं के धार्मिक ग्रन्थ मात्र समझने की भूल करते हैं, जब कि वैदिक ज्ञान, किसी धर्म अथवा सम्प्रदाय से परे वह जीवन शैली है, जो सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण का रास्ता दिखाती है. हकीकत तो ये है कि वेदों में पंच महाभूतों को ही देवतुल्य स्थान दिया गया है और इन्हीं को सन्तुलित करना चराचर जगत के लिए कल्याणकारी बताया गया है. वैदिक ऋचाओं में इन्द्र, अग्नि व वरूण आदि का ही उल्लेख मिलता है. ईश्वर के साकार रूप से परे वेदों में पृ...
गुफा की ओर

गुफा की ओर

किस्से-कहानियां
कहानी   एम. जोशी हिमानी चनी इतनी जल्दी सारी खीर खा ली तूने? ‘‘नही मां मैने खीर जंगल के लिए रख ली है. दिन में बहुत भूख लगती है वहीं कुछ देर छांव में बैठकर खा लूंगी. अभी मैंने सब्जी रोटी पेट भर खा ली है. मां आप प्याज की सूखी सब्जी कितनी टेस्टी बनाती हो. मैं तीन की जगह पांच रोटी खा जाती हूँ फिर भी लगता है कि पेट नही भरा...’’ भगवती समझी की पीपल पानी होने के कुछ दिन बाद यह शहर में पली लड़की कहां इस पिछड़े गांव में रह पायेगी. चली जायेगी अपने मायके. कहा भी जाता है- ‘‘तिरिया रोये तेरह दिन माता रोये जनम भर.’’ भगवती का विश्वास झूठा साबित हो रहा था. चनी को शायद जनम भर-यहीं पर रोना मंजूर था. चनी अपनी सास भगवती को अपनी मीठी बातों से खुश कर देती है. अपनी सास के साथ चनी का बहुत प्यारा रिश्ता बन गया है. सास को जब वह मां कहती है तो भगवती को बेटे का गम काफी हद तक कम हो जाता है. ऐसे वक्त में भग...
सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों की पुरोधा-आमा 

सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों की पुरोधा-आमा 

संस्मरण
आमा के हिस्से का पुरुषार्थ डॉ गिरिजा किशोर पाठक  कुमाऊँनी में एक मुहावरा बड़ा ही प्रचलित है "बुढ मर, भाग सर" (old dies after a certain age at the same times he transmits rituals, and traditions) यानी कि जो बुज़ुर्ग होते हैं वे सभ्यता, सांस्कृतिक परंपराओं के स्थंभ होते हैं. इन्हीं से अगली पीढ़ी को सभ्यता, संस्कृति परंपराओं का अदृश्य हस्तांतरण (invisible transmission) होता है. इसी को ‘भाग सर’ कहते है.  परंपरा, संस्कृति, संवेदनशीलता, मानवीय मूल्यों की रक्षा, विनम्रता, त्याग, शील, मर्यादा और मानवीय व्यवहार हर मनुष्य अपने परिवार से सीखता है. इन सबके मिश्रण से ही मनुष्य के अंदर संस्कारों का अंकुरण होता है. मुझे याद है रामकथा सुनाते समय सीता की व्यथा का जो वर्णन आमा ने मेरे मन मे भर दिया उसे मैं तुलसी, कंब, वाल्मीकि, फादर कामिल बूलके की रामकथाओं को पढ़ने के बाद भी नहीं निकाल पाया. आम...
हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा

हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा

संस्मरण
डॉ विजया सती दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज से हाल में ही सेवानिवृत्त हुई हैं। इससे पहले आप विज़िटिंग प्रोफ़ेसर हिन्दी–ऐलते विश्वविद्यालय, बुदापैश्त, हंगरी में तथा प्रोफ़ेसर हिन्दी–हान्कुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरन स्टडीज़, सिओल, दक्षिण कोरिया में कार्यरत रहीं। साथ ही महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, पुस्तक समीक्षा, संस्मरण, आलेख निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं। विजया सती जी अब ‘हिमाँतर’ के लिए ‘देश-परदेश’ नाम से कॉलम लिखने जा रही हैं। इस कॉलम के जरिए आप घर बैठे परदेश की यात्रा का अनुभव करेंगे- बुदापैश्त डायरी : 5 डॉ. विजया सती देश के बाहर हिन्दी – यह सोचकर मन उल्लास से भर जाता है. हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा – पंक्ति का सही अर्थ समझ आता है. सुनने में अच्छा लगता है. और जब कहीं परदेश में अपने देश से अचानक मुलाक़ात हो जाए तो ? वो मुहावरा है ना इसके लिए.... दिल बा...
पहाड़ का बादल

पहाड़ का बादल

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—13 रेखा उप्रेती “जोर का मंडान लग गया रे! जल्दी-जल्दी हिटो” संगिनियों के साथ धुर-धार से लौटती टोली के कदम तेज हो उठते. ‘मंडान’ मतलब चारों तरफ़ से बादलों का घिर आना. बौछारों की अगवानी से पूर्व आकाश में काले मेघों का चंदोवा… घसियारिनें अपनी दातुली कमर में खोस लेतीं, लकडियाँ बीनती काखियाँ गट्ठर बाँधने लगतीं, खेतों में निराई-गुड़ाई करती जेड्जा कुटव चलाना छोड़ देती… पर कितनी ही दौड़ लगा लें, घर पहुँचने तक इन सबका भीग कर फुत-फुत हो जाना तय होता. मंडान देखकर घर में भी हका-हाक शुरू… आँगन में सूखते धान, बड़ियाँ, मिर्चें उठानी हैं, टाल में से सूखी लकडियाँ उठाकर गोठ रखनी हैं, पुआल के लुटों से गट्ठर उठाकर छान में रखना है. मल भितेर के पाख में रोशनी देने के लिए बना जा’व बंद करने के लिए उसका पाथर खिसकाना है. आँगन में जहाँ-जहाँ पाख से बारिश की बंधार लगेगी, उसके नीचे बर्तन धर...
बाघ जब एकदम सामने आ गया

बाघ जब एकदम सामने आ गया

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—27 प्रकाश उप्रेती आज किस्सा 'बाघ' का. बाघ का हमारे गाँव से गहरा नाता रहा है. गाँव में हर किसी के पास बाघ के अपने-अपने अनुभव और क़िस्से हैं. हर किसी का बाघ से एक-दो बार तो आमना -सामना हुआ ही होगा. अपने पास भी बाघ को लेकर कुछ स्मृतियाँ और ढेरों क़िस्से हैं. हमारे घर में 'कुकुर' (कुत्ता) हमेशा से रहा है. पहले हम बकरियाँ भी पाला करते थे. बाघ के लिए आसान और प्रिय भोजन ये दोनों हैं लेकिन वह गाय और बैलों पर भी हमला करता है. मेरी याददाश्त में हमारे 9 कुत्ते, 2 बकरी, 4 गाय और 1 बैल को बाघ ने मारा. मैं इन सबका गवाह रहा हूँ. जब भी बाघ ने इनको मार उसके बाद हमें बस हड्डियाँ ही नसीब हुई थी. कुछ महीने पहले ही छोटी सी गाय को फिर बाघ ने मार दिया. इसलिए बाघ 'अन्य' की तरह न चाहते हुए भी हमारे ताने-बाने में दख़ल दे ही देता है. ईजा अच्छे से छन के दरवाजे पर 'अड़ी' (ए...