Month: May 2020

उत्तराखंड में ठोस भूमि कानून की जरूरत

उत्तराखंड में ठोस भूमि कानून की जरूरत

उत्तराखंड हलचल
पलायन ‘व्यक्तिजनित’ नहीं ‘नीतिजनित’ है भाग-2 चारु तिवारी  कोरोना के चलते पहाड़ वापस आ रहे कामगारों को यहीं रोजगार देने के लिये सरकार ने प्रयास करने की बात कही है. पहाड़ से पेट के लिये लगातार हो रहे पलायन को रोकने की नीति तो राज्य बनने से पहले या अब राज्यत् बनने के शुरुआती दौर से ही बन जानी चाहिये थी. जब सरकार ने ऐसी मंशा व्यक्त की तो आज तक के अनुभवों को देखते हुये मैंने एक सिरीज शुरू की थी- ‘पलायन ‘व्यक्तिजनित’ नहीं ‘नीतिजनित’ है. इसकी पहली कड़ी में राज्य में मौजूदा कृषि भूमि की स्थिति को रखा. आज दूसरी कड़ी लिखने बैठा तो प्रदेश के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत जी का टीवी चैनल में साक्षात्कार देखा. उसमें उन्होंने वही घिसी-पिटी बातें कहीं, जिनके चलते लोगों को सरकार की नीतियों से विश्वास उठता रहा है. मुख्यमंत्री ने अपने साक्षात्कार में 2018 में अपनी उसी विवादास्पद ‘इंवेस्टर्स समिट’ का ...
बुदापैश्त डायरी

बुदापैश्त डायरी

संस्मरण
डॉ विजया सती दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज से हाल में ही सेवानिवृत्त हुई हैं। इससे पहले आप विज़िटिंग प्रोफ़ेसर हिन्दी – ऐलते विश्वविद्यालय, बुदापैश्त, हंगरी में तथा प्रोफ़ेसर हिन्दी – हान्कुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरन स्टडीज़, सिओल, दक्षिण कोरिया में कार्यरत रहीं। साथ ही महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, पुस्तक समीक्षा, संस्मरण, आलेख निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं। विजया सती जी अब ‘हिमाँतर’ के लिए ‘देश-परदेश’ नाम से कॉलम लिखने जा रही हैं। इस कॉलम के जरिए आप घर बैठे परदेश की यात्रा का अनुभव करेंगे। देश—परदेश भाग—1 डॉ. विजया सती जनवरी के कुछ बचे हुए अंतिम दिन थे, जब लोहड़ी-मकर-सक्रांति-छब्बीस जनवरी की धूम के बाद गजक-रेवड़ी की कुछ खुशबू अपने साथ लिए मैं यूरोप के सर्द इलाके बुदापैश्त पहुँची, जो हंगरी की राजधानी और यूरोप  की प्रसिद्ध पर्यटन नगरी है. यह अवसर ‘भारतीय सांस्कृतिक सम...
मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना का हुआ शुभारम्भ

मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना का हुआ शुभारम्भ

समसामयिक
हिमाँतर ब्यूरो, देहरादून मुख्यमंत्री श्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने योजना का किया शुभारम्भ. विनिर्माण में 25 लाख रूपये और सेवा क्षेत्र में 10 लाख रूपये तक की परियोजनाओं पर मिलेगा ऋण. मार्जिन मनी, अनुदान के रूप में होगी समायोजित. राज्य के उद्यमशील एवं प्रवासी उत्तराखण्डवासियों को स्वरोजगार के लिए प्रोत्साहित करना मुख्य उद्देश्य. मुख्यमंत्री श्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने गुरूवार को सचिवालय में मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना का शुभारम्भ किया. मुख्यमंत्री श्री त्रिवेन्द्र ने अधिकारियों को निर्देश दिये कि इस योजना की जानकारी गांवगांव तक पहुंचाई जाय ताकि युवा इस योजना का लाभ उठा सकें. जन प्रतिनिधियों एवं जिलास्तरीय अधिकारियों के माध्यम से योजना का व्यापक प्रचारप्रसार किया जाय. मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना, राज्य के उद्यमशील युवाओं और कोविड19 के कारण उत्तराखण्ड वापस लौटे लोगों को स्वरोजगार के अव...
कहाँ गए ‘दुभाणक संदूक’

कहाँ गए ‘दुभाणक संदूक’

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—11 प्रकाश उप्रेती आज बात 'दुभाणक संदूक'. यह वो संदूक होता था जिसमें सिर्फ दूध, दही और घी रखा जाता है. लकड़ी के बने इस संदूक में कभी ताला नहीं लगता है. अम्मा इसके ऊपर एक ढुङ्ग (पत्थर) रख देती थीं ताकि हम और बिल्ली न खोल सकें. हमेशा दुभाणक संदूक मल्खन ही रखा जाता था. एक तरह से छुपाकर... हमारे घर में गाय-भैंस और कुत्ता हमेशा रहे. भैंस को बेचने जैसा प्रावधान हमारे घर में नहीं था. वह एक बार आने के बाद हमारे 'गुठयार' (गाय- भैंस को बांधने की जगह) में ही दम तोड़ती थी. परन्तु कुत्ते जितने भी रहे कोई भी अपनी मौत नहीं मरे बल्कि सबको बाघ ने ही खाया. खैर, बात दुभाणक की... दूध, दही और घी रखने के बर्तनों को ही दुभाणा भन कहा जाता था. दूध की कमण्डली को ईजा छुपाकर 'छन' (गाय- भैंस का घर) ले जाती थीं. दूध भी छुपाकर लातीं और फिर गोठ में उसको एक नियत स्थान पर रख देती थ...
कोरोना काल में बदलती उत्तराखण्ड के गाँवों की सामाजिक-सांस्कृतिक तस्वीर

कोरोना काल में बदलती उत्तराखण्ड के गाँवों की सामाजिक-सांस्कृतिक तस्वीर

समसामयिक
डॉ अमिता प्रकाश बड़ा अजीब संकट है. अपनी भौतिक व आध्यात्मिक उन्नति के तमाम दावों के बावजूद मानव जितना असहाय आज दिख रहा है उतना पहले कभी नहीं दिखा. एक अतिसूक्ष्म जीव जिसे न सजीव कहा जा सकता है न निर्जीव, ने ईश्वर की स्वघोषित सर्वश्रेष्ठ कृति को आईना दिखाने का काम कर दिया है. यह संकट जिसे समझना वैश्विक समुदाय के लिए टेड़ी खीर होता जा रहा है,  ने मानव समुदाय में ही नहीं प्रकृति के प्रत्येक घटक में एक बड़ा परिवर्तन ला दिया है. हम जानते हैं कि परिवर्तन कभी भी एक आयामी नहीं होता,  इसके कई पहलू होते हैं. कुछ लोग जिन्हें सरकार से किसी प्रकार की उम्मीद नहीं है, वे अपने बंजर खेतों में सब्जी बो कर या अपनी टूटी गोशालाओं के पत्थर आदि ढूंढने लगे हैं इस उम्मीद से कि भविष्य में संभवतः यही उनके अर्थोपार्जन का सहारा बनेंगें. अस्तु यहाँ पर मनुष्य समाज में, और वह भी विशेषकर उत्तराखण्ड के गाँवों के समाज...
बाखली वहीं छूट जाती है हमेशा की तरह

बाखली वहीं छूट जाती है हमेशा की तरह

संस्मरण
नीलम पांडेय “नील” तब भी आसपास जंगली कविताएं और चित्त उदगार करने वाले मौसम अपनी दस्तक देना शुरु कर देते थे. तब भी मैं प्रकृति को महसूस करना चाहती थी शायद. पर प्रकृति ही एक जादू कर देती और मैं कहीं दूर विचरण के लिए निकल पड़़ती. ये बहती हवा, ये पेड़, आकाश, मिट्टी और दूब की हरी घास जैसे मेरे साथ—साथ बड़े हो रहे थे. तब जाने क्यों ऐसा लगता था, सब कुछ जीवन का ही हिस्सा है, कुछ भी बुरा नही लगता था. किन्तु आज एक जगह बैठकर स्मृतियों में सब कुछ लौटा ला रही हूं जैसे कि पनघट वाले आम के बगीचे और जंगलों से घास लाती या मंगरे के धारे तथा सिमलधार वाले नौले से पानी भरती औरतें अपनी चिरपरिचित आवाज में हुलार भर रही है... जैसे ओ रे पनियारियों, या ओ रे घसियारियों और उनकी ये आवाज पहाड़ों से टकराकर उनके पास वापस आ जाती है.  मुझे जाने ऐसा क्यों लगता था कि पनघट के गावँ से नीचे के गावों में रेडियों में एक पुराना...
ये हमारा इस्कूल

ये हमारा इस्कूल

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—10 प्रकाश उप्रेती ये हमारा इस्कूल- 'राजकीय प्राथमिक पाठशाला बिनोली स्टेट' है. मौसम के हिसाब से हमारे इस्कूल का समय तय होता था. जाड़ों में 10 से 3 बजे तक चलता था और गर्मियों में 7 से 1 बजे तक. एक ही मासाब थे जिनके भरोसे पूरा इस्कूल चलता था. कभी वो बीमार, निमंत्रण, ब्याह- बरेती, हौ बहाण, घा- पात ल्याण के लिए जाते तो इस्कूल का समय बदल जाता था. मासाब कंधे में लाठी और उसी पर एक झोला लटकाए आते थे. हम उनको दूर से देखकर ही मैदान में एक-एक हाथ का गैप लेकर लाइन बना लेते और खुद से ही प्रार्थना शुरू कर देते थे. इस्कूल में पाँच साल पूरा होने पर ही दाखिला मिलता था लेकिन ईजा हमें तीन- चार साल से ही भेज देतीं थीं. पढ़ने के लिए नहीं बल्कि 'घर पन कल- बिल नि होल कबे' (मतलब घर पर हल्ला- गुल्ला नहीं होगा) भेज देती थीं. हर किसी की दीदी या भाई इस्कूल में पढ़ ही रहे होते थ...
रामलीला पहाड़ की

रामलीला पहाड़ की

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—6 रेखा उप्रेती रंगमंच की दुनिया से पहला परिचय रामलीला के माध्यम से हुआ. हमारे गाँव ‘माला’ की रामलीला बहुत प्रसिद्ध थी उस इलाके में. अश्विन माह में जब धान कट जाते, पराव के गट्ठर महिलाओं के सिर पर लद कर ‘लुटौं’ में चढ़ बैठते तो खाली खेतों पर रंगमंच खड़ा हो जाता. उससे कुछ दिन पहले ही रामलीला की तालीम शुरू हो चुकी होती. देविथान में एक छोटी-सी रंगशाला जमती. सोमेश्वर से उस्ताद जी हारमोनियम लेकर आते और गीतों का रियाज़ चलता. सभी भूमिकाएँ पुरुष ही निभाते… डील-डौल के साथ-साथ अच्छा गाने की प्रतिभा तय करती कि कौन किसका ‘पार्ट खेलेगा’. छोटी छोटी लडकियाँ सिर्फ सखियों की भूमिका निभातीं. मेरी दीदियाँ अपने-अपने समय में कभी राधा, कभी कृष्ण, कभी गोपी बनकर रामलीला के पूर्वरंग का सक्रिय हिस्सा बन चुकी थीं. मैं सिर्फ दर्शक की भूमिका में रही. पूर्वरंग के अलावा दो अन्य स्थलों पर स...
क्रूरता की पराकाष्टा, चीन की कूटनीतिक चाल

क्रूरता की पराकाष्टा, चीन की कूटनीतिक चाल

समसामयिक
प्रेम पंचोली दुनियाभर के अधिकांश देश कोरोना जैसी महामारी से जूझ रहे है। अपने अपने स्तर से लोग इस महामारी का मुकाबला कर रहे है। हालात ऐसी है कि विश्व पटल पर जनाधारित कार्यों निगरानी रखने वाले विश्व स्वास्थ्य संगठन की कार्रवाई भी मौजूदा समय में निष्क्रिय दिखाई दे रही है। ऐसा लोग सोसल मीडिया पर संवाद कायम कर रहे है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन दुनिया के लोगों की सेवा के लिए एक निगरानी करने वाली विश्वसनीय संस्था है। यदि ऐसी संस्थाएं लोगों का विश्वास खो रही है तो मानवता खतरे में जा रही है। जिस पर आज ही सोचा जाना लाजमी है। वुहान शहर में आप जैसे प्रवेश करेंगे आपको 200 मी. लम्बी सुरंग से गुजरना पड़ता, ताकि आप पूर्ण रूप से सैनिटाईज होकर जाये। ये ऐसे सवाल हैं, जिन पर भरोसा किया जा सकता है। अर्थात चीन को मालूम था कि वे इस मानवजनित कोरोना वायरस से निपट लेंगे। सन्देह क्यों है? इसलिए कि वुहान श...
हम बच्चे ‘हक्के-बक्के’ जैसे किसी ने अचानक ‘इस्टैचू’ बोल दिया हो

हम बच्चे ‘हक्के-बक्के’ जैसे किसी ने अचानक ‘इस्टैचू’ बोल दिया हो

संस्मरण
चलो, बचपन से मिल आयें भाग—1 डॉ. अरुण कुकसाल बचपन में हम बच्चों की एक तमन्ना बलवान रहती थी कि गांव की बारात में हम भी किसी तरह बाराती बनकर घुस जायं. हमें मालूम रहता था कि बडे हमको बारात में ले नहीं जायेगें. पर बच्चे भी ‘उस्तादों के उस्ताद’ बनने की कोशिश करते थे. गांव से बारात चलने को हुई नहीं कि आगे जाने वाले 2 मील के रास्ते तक पहुंच कर गांव की बारात का आने का इंतजार कर रहे होते थे. नैल गांव जाने वाली बारात की याद है. हम बच्चे अपने गांव की पल्ली धार में किसी ऊंचे पत्थर पर बैठ कर सामने आती बारात में बाराती बनने को उत्सुक हो रहे थे. बारात जैसे-जैसे हमारे पास आ रही थी, हमारा डर भी बड़ रहा था. हमें मालूम था पिटाई तो होगी परन्तु मार खाकर बाराती बनना हमें मंजूर था. वैसे भी रोज की पिटाई के हम अभ्यस्थ थे. शाम होने को थी. बड़े लोग वापस हमको घर भेज भी नहीं सकते थे. क्या करते ? नतीजन, बुजुर्गो...