Tag: Uttarakhand Culture

जागर, आस्था और सांस्कृतिक पहचान की परंपरा

जागर, आस्था और सांस्कृतिक पहचान की परंपरा

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—18 प्रकाश उप्रेती आज बात बुबू (दादा) और हुडुक की. पहाड़ की आस्था जड़- चेतन दोनों में होती है . बुबू भी दोनों में विश्वास करते थे. बुबू 'जागेरी' (जागरी), 'मड़-मसाण', 'छाव' पूजते थे और किसान आदमी थे. उनके रहते घर में एक जोड़ी भाबेरी बल्द होते ही थे. खेती और पूजा उनकी आजीविका का साधन था. उनका व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था. तकरीबन 5 फुट 8 इंच का कद, ललाट पर चंदन, कानों में सोने के कुंडल, हाथ में चांदी के कड़े, सर पर सफेद टोपी जिसमें एक फूल, बदन पर कुर्ता- भोटु और धोती, हाथ में लाठी जिसमें ऊपर की तरफ एक छोटा सा घुँघरू रहता व नीचे लोहे का 'सम'(लोहे की नुकीली चीज) और आवाज इतनी कड़क की गाँव गूँजता था. इलाके भर में उनको सब जानते थे. जब भी जागेरी लगाने जाते थे तो कंधे पर एक झोला होता था जिसमें हुडुक, लाल वाला तौलिया, मुरली (बाँसुरी), 'थकुल बजेणी आंटु' (थाली बजाने वाल...
सामूहिक और सांस्कृतिक चेतना का मेला- स्याल्दे बिखौती

सामूहिक और सांस्कृतिक चेतना का मेला- स्याल्दे बिखौती

इतिहास, उत्तराखंड हलचल, संस्मरण, हिमालयी राज्य
चारु तिवारी । सुप्रसिद्ध स्याल्दे-बिखौती मेला विशेष । सत्तर का दशक। 1974-75 का समय। हम बहुत छोटे थे। द्वाराहाट को जानते ही कितना थे। इतना सा कि यहां मिशन इंटर कॉलेज के मैदान में डिस्ट्रिक रैली होती थी। हमें लगता था ओलंपिंक में आ गये। विशाल मैदान में फहराते कई रंग के झंडे। चूने से लाइन की हुई ट्रैक। कुछ लोगों के नाम जेहन में आज भी हैं। एक चौखुटिया ढौन गांव के अर्जुन सिंह जो बाद तक हमारे साथ वालीबाल खेलते रहे। उनकी असमय मौत हो गई थी। दूसरे थे महेश नेगी जो वर्तमान में द्वाराहाट के विधायक हैं। ये हमारे सीनियर थे। एक थे बागेशर के टम्टा। अभी नाम याद नहीं आ रहा। उनकी बहन भी थी। ये सब लोग शाॅर्ट रेस वाले थे। अर्जुन को छोड़कर। वे भाला फेंक, चक्का फेंक जैसे खेलों में थे। महेश नेगी जी का रेस में स्टार्ट हमें बहुत पसंद था। वे स्पोर्टस कालेज चले गये। बाद में राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भी जीते।...
संस्कृति का समागम, समृद्धि की ओर बढ़ते कदम

संस्कृति का समागम, समृद्धि की ओर बढ़ते कदम

उत्तराखंड हलचल, साहित्‍य-संस्कृति
प्रदीप रावत (रवांल्टा) रवांई की समृद्ध संस्कृति को नए फलक पर ले जाने का मंच है रवांई लोक महोत्सव। इस लोक महोत्सव में रवांई की समृद्ध संस्कृति का अद्भुत समागम देखने को मिलता है। इसमें स्कूल के नन्हें कलाकारों से लेकर चोटी के कलाकारों तक हर किसी की प्रस्तुति होती है। संस्कृति के इस समागम को देखने और आत्मसात करने ना केवल रवांई घाटी के लोग बल्कि जौनसार—बावर, जौनपुर और जौनपुर से लगे टिहरी जिले के लोग भी आते हैं। इतना ही नहीं, अपने तीन साल के साफर में रवांई लोग महोत्सव ने अपनी पहचान राष्ट्रीय स्तर तक बनाई है। इस महोत्सव को देखने और जानने के लिए जहां दिल्ली और दूसरे राज्यों से पत्रकार और संस्कृति विशेषज्ञ आए थे, वहीं लोक संस्कृति पर शोध कर रहे शोधार्थी भी गुजरात से शोध के लिए पहुंचे थे। पहला दिन : स्कूली बच्चों के नाम 28 से 30 दिसंबर तक चले तीन दिवसीय रवांई लोक महोत्सव का पहला दिन स्कूली...
आमा बीते जीवन की स्मृतियों को दोहराती होंगी

आमा बीते जीवन की स्मृतियों को दोहराती होंगी

संस्मरण, साहित्‍य-संस्कृति
नीलम पांडेय वे घुमंतु नही थे, और ना ही बंजारे ही थे। वे तो निरपट पहाड़ी थे। मोटर तो तब उधर आती-जाती ही नहीं थी। हालांकि बाद में 1920 के आसपास मोटर गाड़ी आने लगी लेकिन शुरुआत में अधिकतर जनसामान्य मोटर गाड़ी को देखकर डरते भी थे, रामनगर से रानीखेत (आने जाने) के लिए बैलगाड़ी और पैदल ही सफर करने की लंबी कठिन यात्रा को जब वे पूरा कर लेते तो वापस लौटते हुए, एक दो रात्रि चैन का पड़ाव रानीखेत में भी गुजारा करते थे। आने—जाने की इसी प्रक्रिया में पड़ाव के साथ-साथ कुछ जगह रहने के ठिकाने भी बनते गए। उनके पास मेरे लिए पढ़ने के आलावा भविष्य बनाने का अचूक उपाय भी था, जो एक लोक गीत के रूप में मुझे रटाया भी गया था "बानरे आंखी छिलूकै की राखी, बौज्यू मै बनार कैं दिया, बानर जांछ हांई फांई बौजयू मैं बानर कै दिया," मां को विश्वास हो गया था इस गीत और पारम्परिक कहानियों से मैं पांचवीं पास भी कर लूं तो ...
तार-तार होती गांवों की परंपरा, घर-घर पैदा हो रहे नेता

तार-तार होती गांवों की परंपरा, घर-घर पैदा हो रहे नेता

समसामयिक
पंचायत चुनाव किस्त— 1 शशि मोहन रवांल्टा मारी तो शरीप कंसराओ... मारी तो शरीप ये उंच बौख क डांडा कंसराओ ह्यू पड़ी बरिफ ये।। कंसराओ (कंसेरू) भटाओ (भाटिया) केशनाओ (कृष्णा).... हेड़ खेलण जाणू ये.... कंसराओ, भटाओ, केशनाओ.... हिमालय तीन गांवों का यह गीत अपने आप में एक because बहुत ही गहन संदेश छिपाए हुए है, जिसमें तीन गांवों की एकता को गीत के माध्यम से बखूबी दर्शाया गया है। इस लोक गीत के माध्यम से यह बताने की कोशिश की है कि इन तीनों की गांवों की एकता अटूट है। बर्फ हिमालय की ऊंची चोंटियां because जब बर्फ से आच्छादित हो जाती हैं, तो हम रवांल्टे अपने उच्च हिमालय क्षेत्र में आखेट करने जाते हैं जो हमारे हक—हकूक में शामिल है। जब हिमालय की because ऊंची चोटियों के साथ—साथ हमारे गांव—गोठ्यार तक बर्फ से लक—दक हो आते हैं तो उस दौरान हम हिमालय के वांशिदें अपनी पुरानी परंपराओं को आगे बढ़ाते ह...
गढ़वाल में राजपूत जातियों का इतिहास

गढ़वाल में राजपूत जातियों का इतिहास

इतिहास, उत्तराखंड हलचल
नवीन नौटियाल उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊं में विभिन्न जातियों का वास है। गढ़वाल की जातियों का इतिहास भाग-2 में गढ़वाल में निवास कर रही क्षत्रिय/राजपूत जातियों के बारे में बता रहे हैं नवीन नौटियाल क्षत्रिय/राजपूत : गढ़वाल में राजपूतों के मध्य निम्नलिखित विभाजन देखने को मिलते हैं- 1. परमार (पँवार) :- परमार/पँवार जाति के लोग गढ़वाल में धार गुजरात से संवत 945 में आए। इनका प्रथम निवास गढ़वाल राजवंश में हुआ। 2. कुंवर : इन्हें पँवार वंश की ही उपशाखा माना जाता है। ये भी गढ़वाल में धार गुजरात से संवत 945 में आए। इनका प्रथम निवास भी गढ़वाल राजवंश में हुआ । 3. रौतेला : रौतेला जाति को भी पंवार वंश की उपशाखा माना जाता है। 4. असवाल : असवाल जाति के लोगों का सम्बंध नागवंश से माना जाता है। ये दिल्ली के समीप रणथम्भौर से संवत 945 में यहाँ आए। कुछ विद्वान इनको चह्वान कहते हैं। अश्वारोही होने से ये असवाल...