स्वरोजगार से 25 लोगों को रोजगार दे रहा युवा

स्वरोजगार से 25 लोगों को रोजगार दे रहा युवा

मनीष ने डेढ़ लाख रुपए की पूंजी व सीमित संसाधनों के साथ अपना स्वरोजगार शुरू किया था और आज उनका वार्षिक टर्नओवर लगभग 24-25 लाख रुपए है. because शुरुआत में परिवार के सदस्यों ने ही स्वरोजगार के कार्य को आगे बढ़ाया. लेकिन आज वह 20-25 लोगों को रोजगार दे रहे हैं. मनीष की सफलता से […]

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 स्याल्दे बिखौती मेला : उत्तराखण्ड की लोक सांस्कृतिक धरोहर

स्याल्दे बिखौती मेला : उत्तराखण्ड की लोक सांस्कृतिक धरोहर

डॉ. मोहन चन्द तिवारी द्वाराहाट की परंपरागत लोक संस्कृति से जुड़ा उत्तराखण्ड का प्रसिद्ध स्याल्दे बिखौती का मेला पाली पछाऊँ क्षेत्र का सर्वाधिक लोकप्रिय रंग रंगीला  त्योहार है. चैत्र मास की अन्तिम रात्रि ‘विषुवत्’ संक्रान्ति 13 या 14 अप्रैल को प्रतिवर्ष द्वाराहाट से 8 कि.मी.की दूरी पर स्थित विमांडेश्वर महादेव में बिखौती का मेला लगता […]

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 ‘फूल संगराँद’ से शुरु होकर ‘अर्द्ध’ से होते हुए ‘साकुल्या संगराँद’ तक चलता रहता है उत्सव

‘फूल संगराँद’ से शुरु होकर ‘अर्द्ध’ से होते हुए ‘साकुल्या संगराँद’ तक चलता रहता है उत्सव

सदंर्भ : फूलदेई दिनेश रावत वसुंधरा के गर्भ से प्रस्फुटित एक—एक नवांकुर चैत मास आते—आते पुष्प—कली बन प्रकृति के श्रृंगार को मानो आतुर हो उठते हैं. खेतों में लहलहाती गेहूँ—सरसों की because फसलों के साथ ही गाँव—घरों के आस—पास पयां, आड़ू, चूल्लू, सिरौल, पुलम, खुमानी के श्वेत—नीले—बैंगनी, खेत—खलिहानों के मुंडैरों से मुस्कान बिखेरती प्यारी—सी फ्योंली […]

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 अपने पहाड़ लौटने का सपना अपने साथ  ही ले गई प्यूलीं

अपने पहाड़ लौटने का सपना अपने साथ  ही ले गई प्यूलीं

डॉ. कुसुम जोशी         फ्यूंली (प्यूंली) के खिलते ही पहाड़ जी उठे, गमक चमक उठे पहाड़ पीले रंग की प्यूंली से, कड़कड़ाती ठन्ड पहाड़ से विदा लेने लगी, सूखे या ठन्ड से जम आये नदी नालों में पानी की कलकल ध्वनि लौटने लगी, फ्यूंली के साथ खिलखिला उठी प्रकृति, रक्ताभ से बुंराश, राई […]

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 वक्त के साथ ‘फूलदेई’ भी बदल गई

वक्त के साथ ‘फूलदेई’ भी बदल गई

ललित फुलारा टोकरी और भकार- दोनों ही छूट गया. बुरांश और फ्योली भी आंखों से ओझल हो गई. बस स्मृतियां हैं जिन्हें ईजा, आंखों के आगे उकेर देती है. देहरी पर सुबह ही फूल रख दिए गए हैं. ईजा के साथ-साथ हम because भी बचपन में लौट चले हैं. तीनों भाई-बहन के हाथों में टोकरी […]

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 बेमौसम बुराँश

बेमौसम बुराँश

कहानी प्रतिभा अधिकारी ट्रेन दिल्ली से काठगोदाम को रवाना हो गयी, मनिका ने तकिया लगा चादर ओढ़ ली,  नींद कहाँ आने वाली है उसे अभी; अपने ननिहाल जा रही है वह ‘मुक्तेश्वर’. उसे मुक्तेश्वर की संकरी सड़कें और हरे-धानी लहराते खेत और बांज के वृक्ष दिखने लगे हैं अभी से, इस बार खूब मस्ती करेगी वह… […]

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 खाँकर खाने चलें…!!

खाँकर खाने चलें…!!

‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—11 रेखा उप्रेती शुरू जाड़ों के दिन थे वे. बर्फ अभी दूर-दूर पहाड़ियों में भी गिरी नहीं थी, पर हवा में बहती सिहरन हमें छू कर बता गयी थी कि खाँकर जम गया होगा… इस्कूल की आधी छुट्टी में पाँचवीं कक्षा में पढ़ने वाले सीनियर्स ने प्रस्ताव रखा “हिटो, खाँकर खाने […]

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