‘फूल संगराँद’ से शुरु होकर ‘अर्द्ध’ से होते हुए ‘साकुल्या संगराँद’ तक चलता रहता है उत्सव

सदंर्भ : फूदे

  • दिनेश रावत

वसुंधरा के गर्भ से प्रस्फुटित एक—एक नवांकुर चैत मास आते—आते पुष्प—कली बन प्रकृति के श्रृंगार को मानो आतुर हो उठते हैं. खेतों में लहलहाती गेहूँ—सरसों की because फसलों के साथ ही गाँव—घरों के आस—पास पयां, आड़ू, चूल्लू, सिरौल, पुलम, खुमानी के श्वेत—नीले—बैंगनी, खेत—खलिहानों के मुंडैरों से मुस्कान बिखेरती प्यारी—सी फ्योंली के पीले फूल और बांज, बुराँश, खर्सू, मोरू, अंयार की हरियाली के बीच से अद्वितीय लालिमा का संचार करते बुराँश के सुर्ख लाल फूलों की उन्मुक्त मुस्कान और अनुपम सौंदर्य देखते ही बनती है.

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प्रकृति के इसी मनोरम दृश्य को देखकर उसी के निकटव नैकट्य में जीवन यापन करने वाला सीधा—सच्चा—सरल because लोक मानस इस प्रकार आनंदित—उत्साहित—उल्लासित हो उठता है कि उसके मन में भी जीवन को ऐसे ही अद्भुत व अनुपम बनाने की उत्कंठा जाग उठती है. फलतः प्रकृति प्रदत्त इन्हीं उपादानोंसे वह अपने घर—मकान व जीवन का श्रृंगार करते हुए वह नव संवत् स्वागत के साथ सुख—शांति—समृद्धि व सफलतम् जीवन की कामना के साथ आरोग्यम्, धन—धान्य, पशु—मवेशी तक के लिए समृद्धि वखुशहाली के लिए प्रार्थनारत् हो जाता है.

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चैत्र संक्रांति को गाँव—घरों की बालिकाएं भोर होते ही टोलियाँ बनाकर हाथों में रिंगाल की टोकरियाँ पकड़ पुष्प लेने के लिए खेत—वनों की ओर निकल पड़ती हैं. लोकमान्यतानुसार because सूर्योदय के पश्चात पुष्प जूठे हो जाते हैं इसलिए सुकुमारियों की टोलियाँ सूर्योदय से पहले ही फूलों की टोकरियाँ भर लाती हैं. एक के बाद एक करते हुए हर घर की देहली—द्वार की पूजा करती हैं, फूल चढ़ाती हैं, गीत गाते हुए पुष्पोत्सव मनाते हैं. इस दौरान फूल चढ़ाती लड़कियों को लोग चावल, तिल, गुड़ और पैसे उपहार स्वरूप देते हैं.

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पुष्पोत्सवका यह त्यौहार because कहीं सिर्फ एक दिन मेष—संक्रांति को मनाया जाता है तो कहीं सप्ताह, पखवाड़े और कहीं महीने भर चलता रहता है. सौर चैत्र मास के पहले दिन मनाये जाने वाले इस त्यौहार को नव वर्ष का त्योहार भी माना जाता है, जो ‘फूलदेई’ और ‘फूल संगराँद’के रूप में प्रसिद्ध है.

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इस दौरान गीतों के माध्यम से सुखद व सफल भविष्य की कामना के साथ से मन—मुख से जो भाव शब्दायित होते हैं, because स्थान व क्षेत्र विशेष के आधार पर भाषाई दृष्टि से भले ही भिन्नता लिए हों किन्तु भाव की दृष्टि से समान ही होते हैं. ‘फूल देई, छमादेई, दैणी द्वार, भर भकार’ कुमाऊँ—गढ़वाल के अधिकांश क्षेत्रों में खासी प्रचलित हैं, जबकि रवाँई में प्रचलित लोकगीत के बोल निम्नवत हैं —

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‘सुकळु करो नौऊं बरस तुमकू भगवान.
तुमाराभकारभर्यान, because अन्न—धन्नफूल्यान
आँदीरयारितु मास, so फूलदारया फूल
बच्याँरौला हम—तुम, but फेर आली संगराँद..

पुष्पोत्सवका यह त्यौहार कहीं सिर्फ because एक दिन मेष—संक्रांति को मनाया जाता है तो कहीं सप्ताह, पखवाड़े और कहीं महीने भर चलता रहता है. सौर चैत्र मास के पहले दिन मनाये जाने वाले इस त्यौहार को नव वर्ष का त्योहार भी माना जाता है, जो ‘फूलदेई’ और ‘फूल संगराँद’के रूप में प्रसिद्ध है.

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रवाँई के संदर्भ में देखे तो इस क्षेत्र में पुष्पोत्सव का यह त्योहार फूलदेई से अधिक फूल संगराँद के रूप में लोक प्रसिद्ध है. सामाजिक—सांस्कृतिक विशिष्टता हेतु ख्यात रवाँई का भी so गहतना से अध्ययन—विश्लेषण करने इस क्षेत्र विशेष में भी त्यौहार को लेकर विविधता नज़र आती है. रवाँई के निचले क्षेत्रों में ‘फूल संगराँद’ का यह त्योहार चैत्र मास संक्रांति से आरम्भ होकर यह महीने भर चलता है. त्योहार के पहले यानी संक्रांति के दिन देहरी पूजन में फूलों के स्थान पर’छामरा’ की पत्तियों—टहनियों को मुख्यद्वार व पूजा स्थल पर लगाया जाता हैं. मुख्य द्वार व पूजा स्थल के but अतिरिक्त इस दौरान घरों में बने चूल्हा पूजन की परम्परा भी लोक प्रचलित है. पूजा के दौरान चूल्हे पर भी छामरा की पत्तियाँ तथा पुष्प अर्पित किये जाते हैं. छामरा के लौकिक महत्व को लोकगीत की इन पंक्तियों के माध्यम से समझा जा सकता है:—

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पैलिउपचि काली बादली/ तब उपचि धरती पिरऽथवी
तब उपचि माता धरती-2/ because तबऽउपचिछामा की डाळी
तबऽ माता नऽगौंतऽ so सिंचाई/ तबऽ माता नऽधूपऽधुपैई
छामाडाळीदोपतिहोई/ because दोपतीडाळीचोपतीहई.

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पुष्पोत्सव के इस त्योहार को हर्षोल्लास के साथ अपने ही अंदाज में मनाया जाता है. देहरी पूजन के साथ दरवाजों पर बुराँश के फूलों की माला सजायी जाती है. because इसमें उल्लेखनीय यह है कि माला बनाने के लिए किसी तागे का सहारा नहीं लिया जाता बल्कि बुराँश की पत्तियों के सहारे ही माला तैयार की जाती है. बुराँश के फूलों को इन्हीं के सहारे गूंथ कर मालाएं तैयार की जाती हैं.

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अर्थात् सृष्टि के उद्भव के समय अखिल ब्रह्माण्ड में सर्वप्रथम काले बादल उमड़े. गर्जनाएं हुई और सूर्य से एक तप्त अंश विरल because हुआ. मेघों की बुंदाबांदी पाकर पृथ्वी रुपी तप्त अंगारा शीतल होता चला गया और ममत्व की माया से युक्त होकर धरती माँ के रूप में सामने आया. वसुंधरा के गर्भ से सर्वप्रथम जिस पादप का नवांकुर प्रस्फुटित हो जीव जगत के उद्भव का आधार बना है, वही ‘छामरा’ हैं.

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पुष्पोत्सव त्योहार के दूसरे दिन से देहरी—द्वार पूजन के दौरान छामरा पत्तियों के स्थान पर नाना—प्रकार के पुष्प चढ़ाये जाते हैं.पुष्पोत्सव के पन्द्रहवें दिनयानीमाह की 15गते को so ‘अर्द्ध’मनायी जाती है, जिसे’छौरोऊँकू अर्द्ध’ कहते हैं.अर्द्ध के दिन फूल चढ़ाने वाली बालिकाएं सभी घरों से चावल, उड़द, गुड़ व दक्षिणाआदिउपहार स्वरूपलेती हैं.वनों की ओर जाकर खिचड़ी बनाते हुए त्योहार मनाती हैं. माह के अंतिम दिन घरों में साकुल्या, स्वाले—पकोड़े बनाए जाते हैं. जंगलों से बुराँश लाकर बाबाई कीरस्सी तैयार कर उस पर बुराँश के फूलों की माला बनाकर because घर के मुख्य दरवाजों पर सजायी जाती है.माला के मध्य में साकुल्यों को पिरोने की परम्परा भी प्रचलित रही है. साकुल्यों को विशेष महत्व होने पर यह संक्रांद’साकुल्यासंगराँद’ के रूप में लोक प्रसिद्ध है.

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घर में बने पकवानों का but लोकपूजित देवी—देवताओं को भोग लगाकर आपस में ही मिल बाँटकर नहीं बल्कि नाते—रिश्तेदारी तक पहुँचाते हैं. ससुराल गयी सभी दियाण्यिों के लिए साकुल्यिों की गिल्टीस्वाले—पकोड़ों के साथ ससम्मान उनके ससुराल पहुँचायी जाती है, जिसे ‘चैत because की दोफारी’ कहते हैं. दूसरी तरफ रवाँई के मोरीक्षेत्रत्योहार का स्वरूप कुछ भिन्नता लिए हुए है.

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इस क्षेत्र में महीने भर कोई because विशेष हल—चल नहीं रहती किंतु चैत्र मास समाप्ति और बैसाख आरम्भ के दिन पुष्पोत्सव के इस त्योहार को हर्षोल्लास के साथ अपने ही अंदाज में मनाया जाता है. देहरी पूजन के साथ दरवाजों पर बुराँश के फूलों की माला सजायी जाती है. इसमें उल्लेखनीय यह है कि माला बनाने के लिए किसी तागे का सहारा नहीं लिया जाता बल्कि बुराँश की पत्तियों के सहारे ही माला तैयार की जाती है. so बुराँश के फूलों को इन्हीं के सहारे गूंथ कर मालाएं तैयार की जाती हैं. जिसके लिए पत्तियों को तीर नुमा बनाकर एक के बाद एक पत्ति को परस्पर आपस में जोड़ा जाता है और इन्हीं पत्तियों के मध्य में बुराँश के फूल सजाये जाते हैंऔर उन्हें दरवाजों पर लगाया जाता है. इसी के साथ विशु का शुभारम्भ भी हो जाता है.

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इस प्रकार से रवाँई क्षेत्र में पुष्पोत्सव को यह त्योहार ‘फूल संगराँद’ से शुरु होकर अर्द्ध से होते हुए ‘साकुल्यासंगराँद’ के साथ पूर्णता का प्राप्त होता है.

(लेखक साहित्यकार एवं वर्तमान में अध्यापक के रूप कार्यरत हैं)

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