- डॉ. कुसुम जोशी
फ्यूंली (प्यूंली) के खिलते ही पहाड़ जी उठे, गमक चमक उठे पहाड़ पीले रंग की प्यूंली से, कड़कड़ाती ठन्ड पहाड़ से विदा लेने लगी, सूखे या ठन्ड से जम आये नदी नालों में पानी की कलकल ध्वनि लौटने लगी, फ्यूंली के साथ खिलखिला उठी प्रकृति, रक्ताभ से बुंराश, राई के फूलो की पीली आभा, गुलाबी कचनार, आडू, खुबानी, प्लम, के सफेद, गुलाबी फूल, इन सब से खिल उठे हैं पहाड़, पशु, पक्षी सब.
पहाड़ी सुन्दरी प्यूंली जब हंसती तो झरझर जी उठता था उसका घर आंगन, उसके पहाड़, गुनगुनाती हुई जंगल जाती घास काटती, लकड़ी बीनती, सारा जंगल, चिड़िया पशु पक्षी भी उसके साथ गुनगुनाते, रंग बिरंगी तितलियां पूरे जंगल को रंग से भर देती.
… पूरा पहाड़ झूम उठा उनकी प्यूंली रानी बनेगी, पर जैसे जैसे रस्म आगे बढ़ रही थी, प्यूंली का दिल पहाड़ से दूर जाने के नाम से घबराने लगा था, पहाड़ भी महसूस करने लगे की उनकी खुशी जा रही है अब. चली गई प्यूंली अपनो को उदास छोड़ कर और खुद उदासी में डूब कर.
एक दिन शिकार की तलाश में राजकुमार भटकते हुआ उसी जंगल में आ पहुंचा जहां प्यूंली घास काटती गुनगुना रही थी, चिड़िया भी चहक रही थी, और जंगल महक रहा था.
मासूम सी प्यूंली को देखते ही राजकुमार उसके प्रेम में गिरफ्तार हो गया, ह्रदय तो प्यूंली का भी धड़का था पर प्यूंली तो सिर्फ पहाड़ के साथ जीना जानती थी.
उनके प्रथम दृष्टि के प्रेम के गवाह बनी ये प्रकृति, और बरसा दिया अपना आशीर्वाद. उसके मां पिता से हाथ मांग लिया राजकुमार ने, पूरा पहाड़ झूम उठा उनकी प्यूंली रानी बनेगी, पर जैसे जैसे रस्म आगे बढ़ रही थी, प्यूंली का दिल पहाड़ से दूर जाने के नाम से घबराने लगा था, पहाड़ भी महसूस करने लगे की उनकी खुशी जा रही है अब. चली गई प्यूंली अपनो को उदास छोड़ कर और खुद उदासी में डूब कर.
घर उदास था, जंगल, चिड़िया, पशु पक्षी, पहाड़ नदी नाले, सब उदासी में डूब गये, और प्यूंली की उदासी धीरे धीरे बढ़ती जा रही थी, राजकुमार का प्रेम भी उसे उबार नही पा रहा था, प्यूंली का बिगड़ता स्वास्थ्य राजकुमार की चिन्ता का कारण बनने लगा.
सारे जतन, वैद्य, हकीम हार गये प्यूंली अशक्त होती चली गई, एक दिन दुखी राजकुमार से बोली, “तुम मुझे मेरे पहाडों में छोड़ दो, वहीं में ठीक हो जाऊंगी”.
अपने पहाड़ लौटने का सपना अपने साथ ही ले गई, राजकुमार ने उसके अन्तिम वचनों की लाज रखी और उसकी राख को उसके प्रिय पहाड़ो में छिड़का दिया. जहां-जहां राख गिरी प्यूंली अपनी पीली आभा के साथ बंसत के स्वागत के लिये खिल उठती है, और जी उठते हैं पहाड़, नदी नाले, पेड़, पशु पक्षी, और रंग बिरंगी तितलियां, और लोग भी.
“नही नही प्यूंली ऐसी हालत में तुम्हें भेज कर… क्या कहेगें तुम्हारे मां बाप… लोग, एक राजा होकर बीमार पत्नी को मायके भेज दिया… पहले तुम बिल्कुल ठीक हो जाओ तभी मैं तुम्हें पडाड़ भेज सकता हूं”.
विरोध नही कर पाई प्यूंली …ठीक है पर एक बात मेरी भी मान लेना अगर में पहले ही मर गई तो पहाड़ में ही मेरी राख को छिड़का देना.
नहीं-नहीं तुम्हें कुछ नही होगा ये कहता राजकुमार उदास हो गया.
नहीं बची प्यूंली …अपने पहाड़ लौटने का सपना अपने साथ ही ले गई, राजकुमार ने उसके अन्तिम वचनों की लाज रखी और उसकी राख को उसके प्रिय पहाड़ो में छिड़का दिया. जहां-जहां राख गिरी प्यूंली अपनी पीली आभा के साथ बंसत के स्वागत के लिये खिल उठती है, और जी उठते हैं पहाड़, नदी नाले, पेड़, पशु पक्षी, और रंग बिरंगी तितलियां, और लोग भी.
आज भी बसन्त के साथ चैत्र की आहट संक्रांति पर्व घर की नन्ही बेटियां प्यूंली, बुंराश, कचनार, राई सरसों के फूल, चावल गुड़ थाली में सजा के गांव भर की देहरी में जाती और देहरी पूजती हैं,और गाती है.
फूल देई, छम्मा देई
दैणी द्वार भर भर भकार
ये देईस् बारम्बार नमस्कार
फूले द्वार..फूल देई -छम्मा देई.
(फूलों से भरी हो ये देहरी, सबको क्षमा करने योग्य बने ये देहरी, खूब दान करे ये देहरी इस देहरी के अनाज भंडार हमेशा भरे रहें, इस देहरी को प्रणाम ये देहरी हमेशा फूल फूले)
प्यूंली “पहाड़ की बेटी” हर बरस लौट आती है और अपने उदास और वीरान होते पहाड़ के जीवन की खुशियां लौटा लाती है हर साल फिर फिर…