Tag: उत्तराखंड

पलायन  ‘व्यक्तिजनित’ नहीं ‘नीतिजनित’ है

पलायन  ‘व्यक्तिजनित’ नहीं ‘नीतिजनित’ है

उत्तराखंड हलचल
भाग-एक पहले कृषि भूमि तो बचाइये! चारु तिवारी  विश्वव्यापी कोरोना संकट के चलते पूरे देश में लॉक डाउन है. अभी इसे सामान्य होने में  समय लगेगा. इसके चलते सामान्य जन जीवन प्रभावित हुआ है. देश में नागरिकों  का एक बड़ा तबका है जो अपनी रोटी रोजगार के लिए देश के महानगरों या देश से बाहर रह रहा है. उसके सामने अब अपने जीवन यापन का संकट खड़ा हो गया है. स्वाभाविक रूप से उसका सबसे सुरक्षित ठिकाना अपना गांव-घर ही है. यही कारण है बड़ी संख्या में  शहरों से लोग अपने-अपने गांव जा रहे हैं. उत्तराखंड एक ऐसा राज्य है, जहां  से पिछले तीन-चार दशकों  से पलायन तेज हुआ है. राज्य बनने के दो दशक बाद तो यह रुकने की बजाय बढ़ा है. कोरोना के चलते बड़ी संख्या में लोग पहाड़ लौटे हैं. लोगों  को लगता है कि इसी बहाने लोग गांव में  रहने का मन बनायेंगे. सरकार भी इसे एक अवसर मान रही है. उत्तराखंड ग्राम विकास  एवं पलायन आ...
अब घट नहीं आटा पीसने जाते हैं

अब घट नहीं आटा पीसने जाते हैं

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—6 प्रकाश उप्रेती इसको हम- जानहर, जंदरु, जांदरी कहते हैं. यह एक तरह से घरेलू चक्की है. उन दिनों बिजली तो होती नहीं थी. पानी की चक्की वालों के पास जाना पड़ता था. वो पिसे हुए का 'भाग' (थोड़ा आटा) भी लेते थे. इसलिए कई बार घर पर ही 'जानहर' चलाकर अनाज पीस लिया जाता था. पहाड़ अधिकतर चीजों में आत्मनिर्भर था. उसके पास अपनी जरूरतों के हिसाब से संसाधन थे और ये समझ भी कि उनका सर्वोत्तम उपयोग किस तरह करना है. तकनीक और मशीनों से बहुत दूर इस समझ के बलबूते ही जीवन चलता था. घर में रोज अम्मा (दादी) जानहर चलाती थीं. अम्मा एक बार में दो समय की रोटी भर के लिए ही पीस पाती थीं. मगर जब अम्मा और ईजा(मां) साथ मिलकर पीसते थे तो फिर कुछ आटा अगले दिन के लिए भी बच जाता था. यह तब ही होता था जब बाहर का कोई काम न हो. नहीं तो ईजा बाहर के कामों में ही लगी रहती थीं. जानहर से बड़ी आवाज ...
नाराज़ होने की जगह ‘पहाड़वाद’ की बात क्यों नहीं करते जनाब?

नाराज़ होने की जगह ‘पहाड़वाद’ की बात क्यों नहीं करते जनाब?

उत्तराखंड हलचल
ललित फुलारा लगातार 'पहाड़वाद' के सवाल को उठा रहे हैं. दिल्ली/एनसीआर में बड़े ओहदों पर बैठे पहाड़ियों की अपनों के प्रति निष्क्रियता और पहाड़ी अस्मिता पर जोरदार कटाक्ष कर रहे हैं. इसे लेकर विवाद भी हो रहा है. युवा समर्थन कर रहे हैं तो कई लोगों को उनकी यह बातें चुभ भी रही है. हिमांतर ने इसी विषय पर उनसे पूछा था जिसके जवाब में उन्होंने हमें यह लेख लिखकर दिया है- ललित फुलारा प्रिय साथियों/पहाड़ियों... जब मैं स्नातकोत्तर का विद्यार्थी था, तो हर तरह के 'वाद' का विरोध करता था. मुझे लगता था ये चीजें हमारे भीतर हर तरह की कट्टरता को बढ़ावा देती हैं. भाषाई अस्मिता/क्षेत्रीय अस्मिता का धुर विरोधी भी रहा. अपनी सत्ता के भाव का अर्थ ही है, अपने भीतर अहंकार का भाव लाना, श्रेष्ठता का बोध होना. पर भाषाई और क्षेत्रीय अस्मिता से मुझे बेहद लगाव और प्रेम रहा.... जब मैं 'पहाड़वाद' कह रहा हूं, तो आपक...
कब लौटेगा पाई में लूण…

कब लौटेगा पाई में लूण…

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—3 प्रकाश उप्रेती आज बात- ‘पाई’ की. पहाड़ के हर घर की शान ‘पाई’ होती थी. पाई के बिना खाना बनने वाले गोठ की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. पाई दरअसल लकड़ी की बनी वह चीज थी जिसमें पिसा हुआ लूण और चटनी रखते थे. मोटी लकड़ी को तराश कर उसको एक या दो खाँचों का बनाया जाता था. इन खाँचों में ही लूण और चटनी रखी जाती थी. इस पूरे ढाँचे को बोला जाता था-पाई. ईजा हमेशा पाई में लूण और चटनी पीसकर रख देती थीं. हमारे घर में एक बड़ी और दो छोटी पाई थीं. छोटी पाई पर हम बच्चों का अधिकार होता था. हम अपनी-अपनी पाई को छुपाकर रख देते थे. जो बडी पाई थी वह जूठी न हो इसलिए ईजा हमारी पाई में चटनी और नमक अलग से रख देती थीं. ईजा कहती थीं- "ये ले आपणी पाई हां धर ले" (अपनी पाई में (नमक, चटनी) रख ले). हम बड़ी उत्सुकता से रखकर पाई को फिर गोठ में कहीं छुपा देते थे ताकि कोई और न खा ले. ई...
जंगल जाते, किम्मु छक कर खाते

जंगल जाते, किम्मु छक कर खाते

संस्मरण
प्रकाश उप्रेती मूलत: उत्तराखंड के कुमाऊँ से हैं. पहाड़ों में इनका बचपन गुजरा है, उसके बाद पढ़ाई पूरी करने व करियर बनाने की दौड़ में शामिल होने दिल्ली जैसे महानगर की ओर रुख़ करते हैं. पहाड़ से निकलते जरूर हैं लेकिन पहाड़ इनमें हमेशा बसा रहता है। शहरों की भाग-दौड़ और कोलाहल के बीच इनमें ठेठ पहाड़ी पन व मन बरकरार है. यायावर प्रवृति के प्रकाश उप्रेती वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. कोरोना महामारी के कारण हुए 'लॉक डाउन' ने सभी को 'वर्क फ्राम होम' के लिए विवश किया. इस दौरान कई पाँव अपने गांवों की तरफ चल दिए तो कुछ काम की वजह से महानगरों में ही रह गए. ऐसे ही प्रकाश उप्रेती जब गांव नहीं जा पाए तो स्मृतियों के सहारे पहाड़ के तजुर्बों को शब्द चित्र का रूप दे रहे हैं। इनकी स्मृतियों का पहाड़ #मेरे #हिस्से #और #किस्से #का #पहाड़ नाम से पूरी एक सीरीज में दर्ज़ है। श्रृंखला, पहाड़ और वहाँ के जीवन क...
उत्तराखंड में बेहतर रोजगार का जरिया हो सकती है केसर की खेती!

उत्तराखंड में बेहतर रोजगार का जरिया हो सकती है केसर की खेती!

अभिनव पहल, उत्तराखंड हलचल, हिमालयी राज्य
जे. पी. मैठाणी आजकल आप नकली केसर यानी कुसुम के कंटीले फूलों के बारे में भी ये सुनते हैं की ये केसर है लेकिन सावधान रहिये. ये नकली है इसके झाड़ीनुमा पौधो पर गुच्छों में उगने वाले फूलों को सुखकर केसर जैसा रंग निकलता है. इसलिए कृपया सावधान रहिये! जैसे ही हम केसर का नाम सुनते हैं हमें कश्मीर का ध्यान आता है. पूजा पाठ, भोजन , प्रसाद, आयुर्वेदिक ओषधियां और इसके अलावा केसर के कई उपयोग हैं. केसर के तंतु जो धागे जैसे होते हैं वो फूल के मध्य भाग के बारीक रेशे वाले पुंकेसर होते हैं. केसर के फूल की पंखुड़ियों से केसर नहीं बनता बल्कि फूल के मध्य भाग में जो धागे सदृश तंतु यानी पुंकेसर होते हैं उनको सुखाकर असली केसर बनती है! इसकी खेती सबसे अधिक खेती कश्मीर के पम्पौर और किश्तवाड़ में होती है. आजकल आप नकली केसर यानी कुसुम के कंटीले फूलों के बारे में भी ये सुनते हैं की ये केसर है लेकिन सावधान रहिये. य...
किन्नौर का कायाकल्प करने वाला डिप्टी कमिश्नर

किन्नौर का कायाकल्प करने वाला डिप्टी कमिश्नर

संस्मरण, हिमाचल-प्रदेश
कुसुम रावत मेरी मां कहती थी कि किसी की शक्ल देखकर आप उस ‘पंछी’ में छिपे गुणों का अंदाजा नहीं लगा सकते। यह बात टिहरी रियासत के दीवान परिवार के दून स्कूल से पढ़े मगर सामाजिक सरोकारों हेतु समर्पित प्रकृतिप्रेमी पर्वतारोही, पंडित नेहरू जैसी हस्तियों को हवाई सैर कराने वाले और एवरेस्ट की चोटी की तस्वीरें पहली बार दुनिया के सामने लाने वाले एअरफोर्स पायलट, किन्नौर की खुशहाली की कहानी लिखने वाले और देश में पर्यावरण के विकास का खाका खींचने वाले वाले दूरदर्शी नौकरशाह नलनी धर जयाल पर खरी बैठती है। देश के तीन प्रधानमंत्रियों के साथ काम करने वाले इस ताकतवर नौकरशाह ने हमेशा अपनी क्षमताओं से एक मील आगे चलने की हिम्मत दिखाई जिस वजह से वह भीड़ में दूर से दिखते हैं। जीवन मूल्यों के प्रति ईमानदारी, प्रतिबद्वता व संजीदगी से जीने का सलीका इस बेजोड़ 94 वर्षीय नौकरशाह की पहचान है। यह कहानी एक रोचक संस्मरण है कि क...
नए कलेवर के साथ हिमांतर देखें वीडियो

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आपका अपना हिमांतर अब नए कलेवर में आपके सामने मौजूद है। हम वीडियो के जरिए भी आपके साथ बात करेंगे। हिमालय के ज्वलंत मुद्दों को उठाएंगे। आप हमें यूट्यूब पर भी देख सकते हैं।