जाड़ों की बरसात में जब पड़ते ‘घनगुड़’ थे

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मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—2

  • प्रकाश उप्रेती

आज बात– ‘घनगुड़’ की. पहाड़ों पर जाड़ों में जब बरसात का ज़ोर का गड़म- गड़ाका होता था तो ईजा कहती थीं “अब घनगुड़ पडील रे”. मौसम के हिसाब से पहाड़ के जंगल आपको कुछ न कुछ देते रहते हैं. बारिश तो शहरों में भी होती है लेकिन घनगुड़ तो अपने पहाड़ में ही पड़ते हैं.

घनगुड़ को मशरूम के परिवार की सब्जी के तौर पर देखा जाता था. इनका कुछ हिस्सा जमीन के अंदर और कुछ बाहर होता था. जहाँ पर मिट्टी ज्यादा गीली हो समझो वहीं पर बहुत सारे घनगुड. बारिश बंद होने के बाद शाम के समय हम अक्सर घनगुड़ टीपने जाते थे. ईजा बताती थीं- “पार भ्योव पन ज्यादे पड़ रह्नल” (सामने वाले जंगल में ज्यादा पड़े होंगे). हम वहीं पहुँच जाते थे. घनगुड़ हम कच्चे भी खाते थे और इनकी सब्जी भी बनती थी. ईजा कहती थीं- “घनगुड़क साग सामेणी तो शिकार फेल छू” (घनगुड़ की सब्जी के सामने तो मटन फेल है)…

“सब खा हा छै, येतुक्क के साग बनाऊं” (सब तो खा आया, इतने की क्या सब्जी बनाऊं). ईजा फिर खुद थोड़ा टीपकर लाती थीं और रात को घनगुड़ व आलू की मसालेदार सब्जी लोहे की कढ़ाई में बनती थी. मेरी ज़बान पर अब भी वो स्वाद जस का तस बना हुआ है, भूला ही नहीं जा सकता कभी!

घनगुड़ की दरअसल अलग-अलग किस्में होती थी. कोई झुंगरी, मनु, बकबक इस तरह कुछ और भी. यह सब उनके स्वाद के अनुसार तय हुई किस्में थी. जब भी घनगुड़ टीपने जाते थे तो कुछ तो हम ऐसे ही कच्चा खा जाते थे. थोड़ा बहुत घर के लिए टीपकर लाते थे. ईजा कहती भी थीं- “सब खा हा छै, येतुक्क के साग बनाऊं” (सब तो खा आया, इतने की क्या सब्जी बनाऊं). ईजा फिर खुद थोड़ा टीपकर लाती थीं और रात को घनगुड़ व आलू की मसालेदार सब्जी लोहे की कढ़ाई में बनती थी. मेरी ज़बान पर अब भी वो स्वाद जस का तस बना हुआ है, भूला ही नहीं जा सकता कभी!

हर किसी के अंदर ‘न मिले तो’ का भय ही शायद इस बात के लिए सहमत कर लेता होगा. इसलिए फिर मिल-जुलकर ही टीपते थे. हाँ, कभी ‘बांट’ करते हुए जरूर झगड़ा हो जाया करता था. उसके लिए बड़ा, मेरे लिए छोटा, उसको दो झुंगरी दे दिया, मुझे एक, ज्यादा तो मुझे मिले थे… इस तरह के अनंत बिंदु बहस और झगड़े के होते थे.

घनगुड़ सभी को नहीं मिलते थे. हम सब बच्चे घनगुड़ टीपने जाते थे लेकिन कुछ को बहुत सारे मिलते और कुछ जो किस्मत के मारे होते उन्हें दिखाई ही नहीं देते थे. इसलिए घनगुड़ टीपने जाने से पहले हम सबके बीच एक समझौता होता था कि जिसको जितने मिलेंगे, सबको एक साथ रख कर घर जाते हुए बांटा जाएगा. ‘शेयरिंग इज़ केयरिंग’ के आने से सालों पहले पता नहीं कैसे हम सबमें यह समझ आ गयी थी. पर जो भी था इस बात पर कोई मतभेद नहीं होता था, अमूमन सबकी सहमति होती थी.

घनगुड़

हर किसी के अंदर ‘न मिले तो’ का भय ही शायद इस बात के लिए सहमत कर लेता होगा. इसलिए फिर मिल-जुलकर ही टीपते थे. हाँ, कभी ‘बांट’ करते हुए जरूर झगड़ा हो जाया करता था. उसके लिए बड़ा, मेरे लिए छोटा, उसको दो झुंगरी दे दिया, मुझे एक, ज्यादा तो मुझे मिले थे… इस तरह के अनंत बिंदु बहस और झगड़े के होते थे.

पहाड़ों में आज भी घनगुड़ पड़ते हैं लेकिन अब कोई टीपने जाता नहीं. ईजा घास काटने और पानी लेने आते-जाते हुए घनगुड़ टीप लाती हैं. कहती हैं- “ये हमर पहाड़ेक स्नोमान होय” (ये हमारे पहाड़ की अमूल्य चीज है). ईजा कभी-कभी घनगुड़ की सब्जी बना भी लेती हैं. पहाड़ की हर सब्जी, हर फल को ईजा चखती जरूर हैं. उनके होने को वो बचाए और जिलाए रखती हैं. नहीं तो अब कौन उनको खाएगा..

घनगुड़ किसको ज्यादा मिलते हैं, इसको लेकर कई किवदंतियाँ प्रचलित थीं. अम्मा (दादी) और ईजा (माँ) से इनको लेकर कई कथाएँ सुनी थी जैसे-

  •  जो बच्चा बचपन में ज्यादा गिरता रहता हो उसे ज्यादा मिलते हैं.
  • बचपन में जो बच्चा ज्यादा गंदा रहता था उसे ज्यादा मिलते हैं.
  • साँवले लोगों को ज्यादा मिलते हैं.

इस तरह की कई और किवदंतियाँ भी प्रचलित थी पर नतीजतन यही की जिसको ज्यादा मिले उसका मजाक भी उड़ाया जाता था.

पहाड़ों में आज भी घनगुड़ पड़ते हैं लेकिन अब कोई टीपने जाता नहीं. ईजा घास काटने और पानी लेने आते-जाते हुए घनगुड़ टीप लाती हैं. कहती हैं- “ये हमर पहाड़ेक स्नोमान होय” (ये हमारे पहाड़ की अमूल्य चीज है). ईजा कभी-कभी घनगुड़ की सब्जी बना भी लेती हैं. पहाड़ की हर सब्जी, हर फल को ईजा चखती जरूर हैं. उनके होने को वो बचाए और जिलाए रखती हैं. नहीं तो अब कौन उनको खाएगा..

दुनिया में खान-पान से लेकर बहुत चीजों में आए बदलावों के बावजूद ईजा को घनगुड़ प्यारे हैं. बहुत कुछ बदलने के बाद भी उस थोड़े को ईजा समेटे रखना चाहती हैं जिसे हम नष्ट करने पर आमदा हैं.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं।)

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