रवांई के एक कृषक की ईमानदारी का फल
- ध्यान सिंह रावत ‘ध्यानी’
मुझे आरम्भ से ही बुजुर्गों के पास उठना-बैठना बहुत भाता रहा है. अपने दादा जी के पास बैठकर मैं अनेकों किस्से-कहानियाँ बड़े ही चाव से सुना करता था. एक दिन घर पर हमारे निकट के करीबी रिश्तेदार का आना हुआ जो तब करीब बयासी (82) वर्ष के थे अब इस दुनिया में नहीं हैं. स्व. सब्बल सिंह रावत. रात्रि को भोजन के उपरांत जब मैंने उनके लिए बिस्तर लगाया तो सोने से पूर्व उन्होंने तेल मांगा और अपनी कमीज उतार कर दाहिने हाथ की बाजू में मालिश करने लगे. मेरी नज़र उनके उस हाथ पर पड़ी तो मुझे लगा सम्भवतः इन्हें कभी इस हाथ में बहुत गहरी चोट लगी होगी. मुझ से रहा नहीं गया और मैं ने पूछ ही लिया-‘‘नाना जी आपके इस हाथ में क्या कभी कोई चोट लगी थी?’’
मेरी जिज्ञासा और उत्सुकता को भांपते हुए उन्होंने मुझे अपने पास बैठने को कहा. उसी रजाई का एक छोर निकाल कर मैं भी कुछ देर के लिए वहीं बैठ गया. फिर एक बहुत दर्दनाक किस्सा जो उन्होंने मुझे सुनाया उसे सुनकर मैं दंग रह गया.
‘‘बेटा दरअसल हुआ यूं कि आज से करीब पचपन साल पहले की बात है तब यमुना घाटी के बड़कोट तक यातायात सुलभ हो चुका था. इस ओर बसें गिनी-चुनी ही चला करती थी. मैं प्रातः ही अपने गांव से अपनी खेती के लिए निकला था जो दो किमी की दूरी पर बर्नीगाड़ के पास ठीक सड़क से लगी हुई हैं. वहां आलू की फसल लगा रखी थी और आलू खोदकर हमने उनकी ढ़ेर खेत में लगा रखी थी. फसल सड़ न जाये और किसी तरह विकासनगर तक पहुंचा कर बेच दूं तो थोड़ा बहुत रूपये मिल जांए अपना गुजार निकल जाए. इस उम्मीद के साथ कि नौगांव से किसी ट्रक वाले से बात कर आलू किसी तरह विकासनगर तक पहुंचा दूं. पैदल ही निकल पड़ा था.
मैंने ड्राइवर को तनिक ट्रक रोकने और मुझे नीचे उतार देने की बात कही थी, किन्तु परिचालक ने या दरवाजा सही नहीं लगाया था वह खुला गया. मैं चलते ट्रक से नीचे गिर पड़ा. ट्रक ड्राइवर जब तक ब्रेक लगाता और वे नीचे उतरते तब तक मैं उसके नीचे आ गया और खून से लतपथ बेहोश हो चुका था. मेरा यही हाथ टायर के नीचे आ गया जो पूरी तरह से कट कर चकनाचूर हो चुका था.
मैं मुश्किल से दो मील ही चला हूंगा कि पीछे से एक ट्रक आता हुआ दिखाई पड़ा. मैं सड़क के किनारे उस ट्रक के आने की की प्रतीक्षा में खड़ा रहा. जैसे ही ट्रक आया मैं ने उसे रुकने का इशारा किया तो एक क्षण के लिए ट्रक ड्राइवर ने ब्रेक लगाया तो मैं ने झट से दरवाजे पर लगी हत्थी को पकड़कर अन्दर घूस गया. वहां पहले से ही तीन-चार लोग बैठे थे मेरे लिए बैठने की क्या खड़े रहने तक की जगह तक नहीं बन पा रही थी. मैंने सोचा इससे अच्छा तो मैं पैदल ही निकल जाता. मैंने ड्राइवर को तनिक ट्रक रोकने और मुझे नीचे उतार देने की बात कही थी, किन्तु परिचालक ने या दरवाजा सही नहीं लगाया था वह खुला गया. मैं चलते ट्रक से नीचे गिर पड़ा. ट्रक ड्राइवर जब तक ब्रेक लगाता और वे नीचे उतरते तब तक मैं उसके नीचे आ गया और खून से लतपथ बेहोश हो चुका था. मेरा यही हाथ टायर के नीचे आ गया जो पूरी तरह से कट कर चकनाचूर हो चुका था. मेरी टाँग भी बुरी तरह छिल गयी थी. एक पैर की हड्डी टूट गयी थी. शरीर में कई जगह गहरे घाव हो गये थे. खून को रोकने के लिए उन्होंने अपनी ओर से जितना बन पड़ा पूरा ही प्रयास किया. किसी तरह उन्होंने मुझे कपड़े में लपेट लिया, यह समझ कर कि अभी इसमें प्राण बाकी हैं तो नौगाँव अस्पताल तक पहुंचा दिया. वहां तैनात डॉक्टरों ने मेरी गम्भीर स्थिति को देखते हुए मुझे तत्काल देहरादून के लिए रेफर कर दिया. मेरे दामाद शूरवीर परमार ने सुना तो वे तत्काल अस्पताल में पहुंच गये. तब छोटी गाड़ियाँ इस ओर ना के बराबर थी और न ही किसी के पास अपनी कोई ऐसी ‘पर्सनल’ गाड़ी ही थी कि तत्काल मुझे ले जाने के लिए मिल पाती. सौभाग्य से विकास नगर के लिए एक बस मिल गई तो उन्होंने मुझे हर्बटपुर (देहरादून) के क्रिश्चियन मिशनरी ‘लेमन अस्पताल’ में ले गये और वहां भर्ती कर दिया.
मेरे करीबी लोगों ने मिलकर ट्रक मालिक से इलाज हेतु उस जमाने सत्तर हजार रूपये में समझौता किया. जब मैं पूरी तरह होश में आया और उनसे सुना कि मेरे इलाज के लिए सत्तर हजार रूपये में समझौता हो चुका है. वह समझौता मुझे किसी भी दशा में मंजूर नहीं था.
ट्रक मालिक भी आ गया था. मेरी पत्नी और सगे सम्बन्धियों ने सुना तो वे भी रोते-बिलखते अगले दिन अस्पताल में पहुंच गये. सबका रो-रोकर बुरा हाल था. किसी ने मेरा वह कटा हुआ हाथ भी अस्पताल तक ले आया. मुझे कोई होश नहीं था. दूसरे दिन ईश्वर की कृपा से मैं जब होश में आया तो मैंने अपने को अस्पताल के बैड पर पाया. सभी लोगों की खुशी का ठिकान न रहा. चलो अब तो खतरे से बाहर हैं. मेरे बच्चे भी छोटे थे एक ही बेटी की शादी हुई थी बाकि पढ़ाई कर रहे थे. मेरे करीबी लोगों ने मिलकर ट्रक मालिक से इलाज हेतु उस जमाने सत्तर हजार रूपये में समझौता किया. जब मैं पूरी तरह होश में आया और उनसे सुना कि मेरे इलाज के लिए सत्तर हजार रूपये में समझौता हो चुका है. वह समझौता मुझे किसी भी दशा में मंजूर नहीं था.
मैं तो अस्पताल के बैड पर जीवन और मौत के बीच उपजे संघर्ष से न जाने क्या-क्या सोच रहा था. मेरे मस्तिष्क पटल पर पूर्व जन्म में किये पापों का काल्पनिक चित्रण व अपने जीवन के इस पड़ाव तक की यात्रा का मूल्यांकन मंडरा रहा था. आखिर मैंने ऐसा क्या कर दिया जो मुझे ये दुर्दिन देखने पड़ रहे हैं. कभी सोचता मैं मर ही क्यों नहीं गया. अब जी कर क्या करूंगा जब न हाथ होगा और न पैर.
डॉक्टरों ने मेरी पत्नी को कहा- ‘‘तुम्हारे आदमी का हाथ यदि नहीं लगा तो इसे कन्धे के पास से काटा जा सकता है.’’ ऐसा सुन वह अपनी जीभ काटकर आत्महत्या करने पर उतारू हो गयी. किसी तरह डॉक्टरों ने उसे आश्वस्थ किया कि ‘‘हम पूरी कोशिश करेंगे किन्तु तुम धैर्य बनाय रखें.’’ मेरे हाथ का आपरेशन हुआ. बन्दर की हड्डियों को जोड़कर मेरे चकनाचूर हुए हाथ में जोड़ी गयी.
मैंने उन सब को आगाह कर बता दिया- ‘‘खबरदार जो इन लोगों से एक पैसा भी मेरे इलाज के लिए लिया तो. मुझे मरना मंजूर है किन्तु इनका एक आना अपने इलाज पर खर्च करना कतई मंजूर नहीं है. मेरी बात सुन कर सभी भौचक्के रह गये थे. यहां तक कि डॉक्टर भी असमन्जस में पड़ गये. लोगों ने मुझे बहुत समझाया किन्तु मैं अपनी बात पर ही अटल रहा. यद्यपि मैं आर्थिक रूप से अपने इलाज के लिए सक्षम कतई नहीं था. बच्चे सब छोटे थे रोजी-रोटी का एक मात्र साधन अपनी खेती-बाड़ी थी. कमाने वाला मैं ही था. खैर मेरी हट के आगे उनके रुपये वापस कर दिये गये. डॉक्टरों ने तत्काल खून के लिए कहा तो गाँव के कई जवान आगे आ गये. रिश्तेदारों ने मिलकर मेरी मद्द की. डॉक्टरों ने मेरी पत्नी को कहा- ‘‘तुम्हारे आदमी का हाथ यदि नहीं लगा तो इसे कन्धे के पास से काटा जा सकता है.’’ ऐसा सुन वह अपनी जीभ काटकर आत्महत्या करने पर उतारू हो गयी. किसी तरह डॉक्टरों ने उसे आश्वस्थ किया कि ‘‘हम पूरी कोशिश करेंगे किन्तु तुम धैर्य बनाय रखें.’’ मेरे हाथ का आपरेशन हुआ. बन्दर की हड्डियों को जोड़कर मेरे चकनाचूर हुए हाथ में जोड़ी गयी. बैड पर लेटा रहा. तीन सप्ताह के बाद डाक्टर ने आकर मुझसे हाथ की अंगुलियों को हिलाने के लिए कहा. ईश्वर की कृपा और डॉक्टरों की मेहनत से ऐसा चमत्कार हुआ कि मैं इस हाथ की अंगुलियों को बहुत हल्के से जैसे हिला पाया था. सभी की खुशी का ठिकाना न रहा. डॉक्टर ने कहा-‘‘सब्बल सिंह तुम बहुत सौभाग्यशाली हो ‘गॉड’ ने तुम्हारी निष्ठा और ईमानदारी को सुन लिया है अब तुम्हारा हाथ ठीक हो जायेगा.’’ मुझे भी जैसी हिम्मत मिल गयी थी. मैं ठीक हो जाऊँगा…. ’’
मुझे एक कसाई दिखाई पड़ा जो एक भैंस को बड़ी निष्ठुरता से काट रहा था. मैंने कहा-‘‘अरे भले आदमी तुम्हें इस पर दया नहीं आ रही देख कैसी तड़फ नही है बेचारी! तो वह कहने लगा किस बात की दया? मैंने लाई ही काटने के लिए है रुपये दिये हैं. दोष मेरा नहीं उसका है जिसने इसे तुझे बेचा है.’’
मैंने उनसे जानना चाहा कि आपने ट्रक मालिक से रूपये लेन से मना क्यों किया था जबकि वह तो बहुत पैसे वाला आदमी था ? तो उन्होंने मुझे बताया, ‘‘भगवान के घर देर है बेटा अंधेर नहीं, मर जाओ पर लालच मत करो. रुपये लेने के लिए मेरा जी नहीं चाह रहा था. देखा जाय तो उनकी कोई गलती भी नहीं थी और अगर मैं ले भी लेता तो ईश्वर मुझे कभी माफ नहीं करता. वह घड़ी ही ऐसी थी.
दूसरा मुझे अपने जीवन की एक घटना याद आयी जिसने मुझे दृढ़ बना दिया था. ‘‘एक बार मैं सहारनपुर गया. गलती से मेरा ‘बैग’ एक मिस्त्री के पास चला गया उसका मेरे पास रह गया. हम दोनों एक ही बस में सहारनपुर गये थे. किसी तरह पता चला कि उसका घर बहुत तंग गलियों के पश्चात कहीं है तो मैं उसकी खोज में एक गली से होकर गुजर रहा था. मुझे एक कसाई दिखाई पड़ा जो एक भैंस को बड़ी निष्ठुरता से काट रहा था. मैंने कहा-‘‘अरे भले आदमी तुम्हें इस पर दया नहीं आ रही देख कैसी तड़फ नही है बेचारी! तो वह कहने लगा किस बात की दया? मैंने लाई ही काटने के लिए है रुपये दिये हैं. दोष मेरा नहीं उसका है जिसने इसे तुझे बेचा है.’’
ईश्वर की कृपा से आज तक मैं जिन्दा हूं भले ही मुझे कष्ट आये. मैंने जीवन पर्यंत इस हाथ से खूब काम किया है. मेरे दो बेटे आज देश की सेवा में हैं. छोटे बेटे के पेट में उग्रवादियों से मुठभेड़ के दौरान एक गोली भी लगी थी जो उसके पेट से होकर निकल गयी किन्तु वह भी इलाज के बाद एकदम स्वस्थ हो गया और दुगुने उत्साह से भारत की सेवा कर रहा है.
मैं मन ही मन उसकी इस क्रूरता की सजा भगवान तुझे निश्चित देगा, की बात सोचता हुआ आगे निकल गया. बस! वह बात मैं अपने पर भी लागू कर रहा था. कि यदि मैं मर गया तो एक पाप का बोझ अपने सिर पर लेकर जाऊँगा और यातना भोगूंगा इधर मेरे बच्चे उस पाप के रुपयों की गठरी से आजीवन दबे रहेंगे. यदि जिन्दा भी रहा तो जीवन पर्यन्त उस ऋण से उऋण नहीं हो पाऊँगा. सारे रुपये लौटा दिये.
ईश्वर की कृपा से आज तक मैं जिन्दा हूं भले ही मुझे कष्ट आये. मैंने जीवन पर्यंत इस हाथ से खूब काम किया है. मेरे दो बेटे आज देश की सेवा में हैं. छोटे बेटे के पेट में उग्रवादियों से मुठभेड़ के दौरान एक गोली भी लगी थी जो उसके पेट से होकर निकल गयी किन्तु वह भी इलाज के बाद एकदम स्वस्थ हो गया और दुगुने उत्साह से भारत की सेवा कर रहा है.
(लेखक प्राध्यापक, कवि एवं साहित्यकार हैं)