फूलों का उत्सव: सांझा चूल्हा और ग्वाल पुजै 

मंजू दिल से… भाग-28

  • मंजू काला

फूल से मासूम बच्चे, ताजे फूलों सी उनकी मुस्कराहट, पहाड़ी  झरने सी उनकी चाल,  दूर  पहाड़ी में बजती मंदिर की घंटियां मासूम नन्हें—नन्हें हाथों में सजी खूबसूरत रिंगाल की छोटी-छोटी टोकरियां और प्यारे से उत्तराखंड का प्यारा सा उत्सव “फूलदेई”

जी हां, दुनिया में शायद उत्तराखंड के पहाड़ों में ही ऐसा उत्सव मनाया जाता है, जो रंग—बिरंगे फूलों और प्यारे से मासूम बच्चों के साथ मनाया जाता है. रिंगाल की खुबसूरत टोकररियों में पुलम, खुबानी बुरंस, फ्योंली,आडू़,और न जाने कितने रंग—बिरंगे फूल लेकर आते हैं ये मासूम बच्चे. और हर घर की देहरी पर ये खूबसूरत फूल बिखेरते हैं. मुँह अंधेरे में जागकर जंगलों से लाल सुर्ख बुराँश के फूल चून—चून कर लाते हैं औऱ फिर खेतों की मुंडेर से सूरज की किरणों की तरह मुस्कराती सरसों—सी पीली फ्योंली को अपनी टोकिरयों में सजा कर निकल जाती है स्कूलियाओं की टोलियां. जब ये नन्हें स्कूलिया गाते हैं “फूल देई, क्षमा देई” तो लगता है चांदनी और मोगरे के फूल झर रहे हों झररर से!

अब बात सांझे चूल्हे की! पंजाब के सांझे चूल्हे के बारे में तो हम सब जानते है- नहीं जानिएगा तो कभी  जरूर बताऊंगी न, लेकिन इन नन्हें फ़रिश्तों का भी एंक सांझा चूल्हा होता है हुजेरे-ए-आला! जब ये अपनी मीठी जुबान से सद-गृहस्थ गांववासियों को शुभकामनाएं देते हैं, तो बदले में उनको सौगात में मिलती है चावल की मुट्ठी, गुड़, नारियल और यथा सम्भव दक्षिणा!

फूलों के इस उत्सव पर मिली सौगात को सभी बच्चे एक जगह एकत्र करते हैं, फिर ढूंढते हैं कोई थोड़ा खुला मैदान, पेड़ों का झूरमु और जी हां! पानी का धारा! फिर होती है कवायद रसोई बनाने की।

अपने हाथों से रांधते हैं ये मासूम रसोइये, बनाते हैं गुलगुले, आलु की तरकारी (झोल) सीताफल का रैठा और ये सब बनता है उनके सांझे चूल्हे में..!

जी, आयोजक भी बच्चे, मेजबान भी बच्चे और मेहमान भी बच्चे. जब बच्चे सांझे चूल्हे पर पकवान बनाते हैं, तो वहां पर पत्थर के एक टूकड़े को भगवान का रूप दे देते हैं औऱ उस पर हलद—कूंक की पिठाई लगाकर अपने बनाए व्यंजनों का भगवान को भोग लगाते हैं. इस ‘ग्वालपुजै’ में जगदीश्वर, मूरत में ही नहीं अपितु इन नन्हें बच्चों के रूप में आकर इन स्वादिष्ट व्यंजनों का आनंद उठाते है!

आ…! कहीं घुघुती बोल उठी है, पौ फूटने वाली है शायद! (माँ कहती हैं कि इस वक्त पहाडों में घुगुती के माध्यम से खुदेड़ गीत गाते हैं!

नोट- हलद-कूँक एक पर्व भी है  जो कि महाराष्ट्र मे मनाया जाता है कहते हैं झाँसी की रानी “लक्ष्मीबाई” इस पर्व को बहुत धूमधाम से मनाती थीं. महिलाओं ने अँग्रेज़ी हुकुमत के खिलाफ हुए युद्ध के समय महारानी लक्ष्मीबाई को फूल औऱ हलद कूँक के साथ अपने आभूषण भी दान स्वरूप भेंट किये थे, ताकी हथियार बनाए जा सकें।

(मंजू काला मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल से ताल्लुक रखती हैं. इनका बचपन प्रकृति के आंगन में गुजरा. पिता और पति दोनों महकमा-ए-जंगलात से जुड़े होने के कारण,  पेड़—पौधों, पशु—पक्षियों में आपकी गहन रूची है. आप हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं. आप ओडिसी की नृतयांगना होने के साथ रेडियो-टेलीविजन की वार्ताकार भी हैं. लोकगंगा पत्रिका की संयुक्त संपादक होने के साथ—साथ आप फूड ब्लागर, बर्ड लोरर, टी-टेलर, बच्चों की स्टोरी टेलर, ट्रेकर भी हैं. नेचर फोटोग्राफी में आपकी खासी दिलचस्‍पी और उस दायित्व को बखूबी निभा रही हैं. आपका लेखन मुख्‍यत: भारत की संस्कृति, कला, खान-पान, लोकगाथाओं, रिति-रिवाजों पर केंद्रित है.)

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