प्रकृति व संस्कृति के समन्वित उल्लास का पर्व है फूल संगरांद

बीना बेंजवाल, साहित्यकार

चैत्र संक्रांति का पर्व प्रकृति व संस्कृति के समन्वित उल्लास से मन को अनुप्राणित कर देता है. बचपन की दहलीज से उठते हुए मांगलिक स्वर बुरांशों से लकदक जंगलों से होते हुए जब उत्तुंग हिमशिखरों को छूने लगते हैं तो मन को आवेष्टित किए हुए क्षुद्रताओं एवं संकीर्णताओं के कलुष वलय छंटने लगते हैं. ये लोकपर्व एक वृक्ष दृष्टि के साथ न केवल अपनी जड़ों से जोड़ता है वरन् लोकमंगल की ऊर्ध्वमुखी सोच से भी समृद्ध करता है. अपनी फुलकण्डियाँ लिए घर के बाहर खड़े नन्हें फुलारियों का संबोधन भीतर की तमाम जड़ता को तोड़ हर देहली-द्वार पर फूलों के साथ आत्मीय रिश्तों की भी एक रंगोली सजाने लगता है. सांस्कृतिक संपदा एवं प्राकृतिक सौंदर्य की धनी उत्तराखण्ड की यह धरती चैत्र संक्रांति पर फूल संगरांद या फूलदेई का अपना लोकपर्व कुछ इसी अंदाज में मनाती है. वैसे तो इस राज्य के हर पर्व, त्योहार एवं उत्सव की अपनी विशिष्ट महत्ता है पर सृष्टि के अजस्र औदार्य से जीवन में बहुरंगी छटा बिखेरती फूलदेई का अपना एक अलग ही महत्त्व है!! अब तो देश क्या विदेशों में भी इस पर्व के मांगलिक स्वर गूंजने लगे हैं.

उत्तराखंड में बसंत का आगमन चैत्र संक्रांति से होता है. यह पर्व कहीं-कहीं आठ दिन तो कहीं महीने भर उल्लास के साथ मनाया जाता है. जंगल बुरांशों से लद जाते हैं. खेतों में फ्यूंली की रंगत देखते ही बनती है. कहीं घास के बीच लुका-छिपी खेलते डुंडी बिराळी के फूल तो कहीं खेतों की मेंड़ों पर इठलाते हवा संग गुनगुनाते फूलों के ये रंग पयांपाती के संग लोकजीवन में नई उमंग भर देते हैं. प्रकृति का यह अतुल वैभव बचपन के लिए पहाड़ पर फूलों का उत्सव लेकर आता है. फ्यूली की पंखुरियों पर आज भी ओसकणों सी झिलमिलाने लगती हैं बचपन की वे स्मृतियाँ…!

सालभर से बंद कोणजियां बाहर निकल आती थीं. ये फुलकण्डियाँ कभी अनाज या पैसे देकर खरीदी जातीं या बड़े-बुजुर्गों द्वारा घर पर ही बनाई जाती थीं. जंगल से रिंगाल काटकर लाने से फुलकण्डी बनने तक की वह यात्रा तब हमें उत्साह से भर देती थी. धीरे-धीरे आकार लेती फुलकण्डियाँ देख बालमन जंगल के प्रति कृतज्ञता से भर जाता था. इसी रिंगाल से बनी कलम से हम पाटी पर लिखते थे. पाटी भी जंगल देता था. घास-लकड़ी लाने के लिए कण्डियाँ और सोल्टियाँ ही नहीं वसंत आने पर हम पर फूलों का यह वैभव भी लुटा देता था. कहीं बुरांशों की रक्तिम आभा तो कहीं मेळू के धवल पुष्प गुच्छों की सुंदर छटा वाला जंगल बहुत भाता था. लोकगीतों में सेरों के बिड्वाळ जमने वाली पयां डाळी जंगलों में अपने चमकीले पत्तों से लदकर इतिहास प्रसिद्ध पावन पद्म वृक्ष के रूप में मिलती थी. वनस्पति जगत मानव चेतना के समस्त शक्ति स्रोतों का स्फुरण कर देता था. पहाड़ का विशिष्ट सांस्कृतिक समाज वसंत का सुंदर विधान रचती प्रकृति से ऊर्जस्वित होने लगता था.

तब स्कूलों की दीवारें आजकल की तरह इतनी ऊँची नहीं होती थीं कि वसंत की पुकार बच्चों तक न पहुँचे. स्कूल का रास्ता वसंत के आँगन से होकर जाता था. बस्ते का जितना मान था, फुलकण्डियों की भी उतनी ही शान थी. किताबों से दोस्ती जंगल में बुरांस से बतियाने में आड़े नहीं आती थी. फूल चुनने वाली उँगलियाँ कलम की भी सहेलियाँ होतीं. बचपन प्रकृति का संगीत सुनता था, पतझड़ पर वसंत की जीत देखता था. फूलदेई घर की क्यारी से लेकर खेत और जंगल से एक अटूट रागात्मक संबंध जोड़ देती थी. फूलों के अनगिनत नाम, उनका रूप-रंग, गंध, आकार बिना रटे ही याद रहते थे. प्रकृति से इतना जुड़ाव कि कुंठा और तनाव मन को छू न सकें.

फूल संगरांद आते ही बचपन सयाना हो जाता था. सुबह-सुबह मंगलगीत गाकर घर की देहलियों पर फूल रखते हुए बच्चे भगवान के फुलारी कहलाते. सूर्योदय होते ही बस्ता पीठ पर लगा स्कुल्या बन जाते, शाम को जंगल में गायें चराते हुए ग्वाले बन जाते. कभी घसियारिन तो कभी पनिहारिन की भूमिका निभाते. हर छोटी भूमिका जीवन की मजबूत आधारशिला बनती.

जंगल से घर आते ही अपनी-अपनी कोणजियाँ थाम खेतों की ओर निकल पड़ते. तब खेत इनके-उनके नहीं होते थे. चैत सबके लिए अपने उपवन के द्वार खोल देता. लोक का आनंद समवेत स्वर में छलकने लगता. खेतों में झूमती सरसों लुभाती. गेहूँ के पौधों से लिपटी कूरी घास पाँव उलझाती. एक खेत से दूसरे खेत कूदते-फांदते खूब फूल चुने जाते. पहले दिन जितने तोड़ते दूसरे दिन बीठों पर ये फूल उससे ज्यादा खिले मिलते. फुलकण्डिया जब फ्यूली से उलछुल भर जातीं तो घर की ओर लौट पड़ते और उन्हें राई-सरसों की क्यारियों में रख देते. फ्यूली के इन फूलों के अलावा बुरांस, मेळू के फूल और पयां के पत्ते भी हमारी इन कोणजियों की शोभा बढ़ाते. बचपन भांति-भांति के फूल चुनते हुए दुधबोली में उच्चरित फुलारी, फुलकण्डी, फुलचोला, घोघा जैसे शब्द भी चीन्हता जाता. और फिर ‘फुलारी’ बन प्रकृति देवी के प्रतीक ‘घोघा’ को कंधों पर नचाने लगता.

सुबह-सुबह अपनी फुलकण्डियाँ उठा, कुछ गले में लटका घर-घर जा़ते. हर घर की खुशहाली की कामना करते हुए देहलियों पर फूलों की सौगात रखते जाते-

जै घोघा माता फ्यूंल्या फूल, दे दे माई दाळ चैंळ
रंगीला-रंगीला फूल ऐगीं, डाळा बोटळा हर्यां ह्वैगीं.
पोन-पंछी दौड़ी गैन, डाळ्यूँ फूल हैंसदा रैन.
तुमारा भण्डार भर्यान, अन्न-धन्नल बरकत ह्वैन.

कभी किसी घर के आगे जाकर जोर-जोर से गाने लगते- द्योला द्योला किलै नि द्यौला होंदी-खांदी मौ.

प्रकृति के साथ बचपन का यह अनूठा अनुबंध! मंगलपाठ करके पुष्पोत्सव मनाने का वह निराला ढंग!!

सुख-समृद्धि की कामना करती फुलारियों की टोलियों का घर-घर स्वागत होता. वह घर जहाँ खोळी के गणेश और मोरी के नारैण बिराजते थे. छज्जे-तिबारियों में बैठे बुजुर्ग इन बच्चों के रूप में अपना बचपन फिर से जी रहे होते. फुलारियों को देने के लिए चूल्हे पर रखी बाट्टी में चैलाय के खील उछल रहे होते और कहीं लोक संस्कृति की मिठास में सनी भेली रखी होती. कहीं चावल मिलते तो कहीं पैसे जो फुलचोला (सामूहिक भोज) के दिन काम आते. घोघा (देवडोली) को सुसज्जित कर पूरे गाँव में घुमाया एवं नचाया जाता. गाँव के हर घर की देहली पर फूल डालने के बाद हम सब फुलारी बौड़ी के महादेव के पास इकट्ठा होते. कोणजियों में बचे फूल महादेव पर चढ़ा दिये जाते और रंग-बिरंगे फूलों की वह बड़ी राशि पुष्पोत्सव को सार्थक कर देती. फिर आठवें दिन फुलचोला होता. बड़ों का कोई हस्तक्षेप नहीं. नन्हीं दुनिया का निराला प्रबंध. कोई लकड़ी बीनकर लाता, कोई आग जलाता. कोई पानी सारता तो कोई दाल साफ करता. कहीं बर्तनों की ढूंढ़ तो कहीं मसालों की माँग होती. चूल्हों में हिर्र-हिर्र हिरकती आग नन्हें हाथों से पकाये जाते उस भोजन का स्वाद बढ़ा देती. इस उल्लास में प्रकृति भी जी भर कर साथ देती.

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पलायन की पीड़ा झेल रहे पहाड़ में लोकपर्वों की सुदीर्घ हिमालयी परंपराओं में से एक पुष्पमंडित एवं मंगल गीतों से ध्वनित फूलदेई की यह भव्य-उज्ज्वल लोक परंपरा क्या बची रह पाएगी? क्या पहाड़ के कठोर एवं श्रमसाध्य जीवन में उल्लास एवं उमंग भरने वाले फूलों के ये मनभावन रंग खो जाएंगे? क्या बचपन की दहलीज से उठने वाले घर-घर की खुशहाली की उदात्त भावना से अनुप्राणित ये लोक-मंगल के स्वर शहरी संस्कृति की चकाचैंध एवं उसकी स्वार्थलिप्सा के शोर में गुम हो जाएंगे? कई दिशाओं से आती परिवर्तन की आंधियों से जूझते एवं संक्रमण के दौर से गुजरते पहाड़ पर मकर संक्रांति एवं बिखोत (वैशाखी) के बीच फूल संगरांद क्या उसी तरह फुलकण्डी-सी सजी मिलेगी? क्या हमारी सामाजिक संरचना एवं ये सांस्कृतिक परंपरा विघटित होने से बची रह पाएगी? हिमाच्छादित चोटियाँ को छूकर आई सूरज की किरणों-सी उजली यह परंपरा फुलकण्डियों के रूप में क्या हमारे भण्डार भरती रहेगी? समृद्धि के द्वार खोलती रहेगी? वसंत जिन पहाड़ी धारों में खिलकर लोक-जीवन में उतरता था, वहाँ बाजार सज रहा है. क्या वासंती लोकगीतों को संजोए रखने वाली हमारी लोकभाषा बची रहेगी? लोक-जीवन का यह साझा उल्लास सूने गाँवों का एकालाप तो नहीं बन जाएगा.

सामूहिकता की हमारी इस ताकत और रीति-रिवाजों की हमारी इस दौलत को आधुनिकता कुतर तो नहीं देगी? कभी साग-भाजी की क्यारियों से लेकर लहलहाते खेतों तथा हरे-भरे वनों तक हाथ थामकर ले जाने वाली पगडंडियाँ लपलपाती सड़कों की ग्रास बनती रहेंगी. फुलकण्डिया रीत रही हैं, लोकसंस्कृति छीज रही है. खेत बंजर. जंगल साफ. खुशियों का मैत वसंत पहाड़ पर खुद निर्मैत्या हो रहा है. चैत को न्यूतने वाली ढोल-दमाऊ की भौण खो रही है. धियाणियों तक भेटोली की समौण कौन पहुंचाए. फुलारियों के लिए आँखें बिछाए रखने वाले घर पलायन के कारण खण्डहर हो रहे हैं. हमारी वो दरांती-कुदाल इन्हीं खण्डहरों में कहीं दब गई हैं जो पहाड़ी धार में छुणककर वसंत को धाद लगाती थीं. जो माटी के मन की फाँस खोलकर फ्यूंली को आवाज देती थीं. फ्यूंली-सा बचपन हमारी बरगदी इच्छाओं तले कुम्हला रहा है. फूलों के ये इन्द्रधनुषी रंग पाटी-बोळख्या और कलम के साथ ही बचपन की स्मृति से छँटने लगे हैं.

ऐसे अनगिनत सवालों और घोर चिन्ताओं से घिरे मन को सामाजिक संस्थाओं द्वारा और व्यक्तिगत स्तर पर की जा रही फूलदेई पर्व मनाने की पहल आश्वस्त करती है. हमारी सांस्कृतिक समृद्धि के प्रतीक इस लोकपर्व की रंगत अब राजभवन में आयोजित पुष्प प्रदर्शनी में भी देखी जा रही है. ‘धाद’ संस्था द्वारा ‘हरेला’ पर्व की तरह फूलदेई की विशेष सांस्कृतिक पहचान से भी देश-दुनिया को अवगत कराने का सराहनीय कार्य किया जा रहा है. रुद्रप्रयाग जिले में मन्दाकिनी घाटी के अगस्त्यमुनि में ‘दस्तक’संस्था की ओर से विगत 12 वर्षों से फूलदेई उत्सव एवं घोघा जातरा प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है.

गुप्तकाशी में ‘होली हिमालया सोसाइटी द्वारा पुष्पोत्सव मनाया जाता है. आसपास के गांवों से फुलारियों की टोलियां आकर अपनी प्रस्तुतियां देती हैं. इस अवसर पर सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं का भी आयोजन किया जाता है. इस वर्ष ऊखीमठ में सोसियल हेरिटेज आर्ट की ओर से फूलदेई महोत्सव मनाया गया. जिसमें केदारघाटी से 31 फुलारी टीमों ने भाग लिया. सामाजिक सरोकारों से जुड़े शशिभूषण मैठाणी ‘पारस’ 18 वर्षों से देश के विभिन्न राज्यों में फूलदेई पर्व मनाकर हमारी इस सांस्कृतिक समृद्धि से देश-दुनिया को परिचित करा रहे हैं. पाण्डवाज ग्रुप श्रीनगर द्वारा फूलदेई पर बनाया गया वीडियो खूब लोकप्रिय हो रहा है. इस वर्ष शिक्षा विभाग के निर्देशानुसार राज्य के विद्यालयों में भी फूलदेई हर्षोल्लास से मनाई गई.

आपको सपरिवार उत्तराखंड के लोकपर्व फूदे की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं…

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