शंहशाह: लक्ष्मी पूजन कर गंगा-जमुनी तहजीब की अनूठी मिसाल पेश करते थे!

मुगलों का जश्ने-ए-चराग

मंजू दिल से… भाग-22

  • मंजू काला

“जश्ने- ए-चराग” के संदर्भ में कुछ कहने से से पहले मैं दीपावली की व्याख्या कुछ अपने अनुसार करना चाहूंगी चाहुंगी. दीपावली शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के दो शब्दों ‘दीप’ अर्थात ‘दिया’ व ‘आवली’ अर्थात ‘लाइन’ या ‘श्रृंखला’ के मिश्रण से हुई है. इसके उत्सव में घरों के द्वारों व मंदिरों पर लक्ष प्रकाश की श्रंखलाओं को because प्रज्वलित किया जाता है. गृहस्थ चाहे वह सुदूर हिमालय का हो या फिर समुद्र तट पर मछलियाँ पकड़ने वाला हो, सौदा सुलफ का इंतमजात करते हैं तो गृहवधुएं घरों की विथिकाओं और दालानों को अपने धर्म व परंम्परा के अनुसार सुंदर आलेपनों व आम्रवल्लिकाओं से सुसज्जित किया करती हैं. पहाडी़ घरों के ओबरे जहाँ उड़द की दाल के भूडो़ं से महक उठते हैं तो वहीं राजस्थानी रसोड़े में मूंगडे़ का हलवा, सांगरे की सब्जी व प्याज की कचौड़ी परोसने की तैयारी हो रही होती हैं.

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अयोध्या जहाँ राजा राम के स्वागत के लिए दीपमालाएं सजा रही होती है तो  वहीं केरल राजाबली के स्वागत के लिए रौशनियां कर रहा होता है. ओणम के अलावा दीपावली में भी केरलवासी because राजाबली की ही पूजा करते हैं. दीपावली जिसे दिवाली भी कहते हैं, उसे अन्य भाषाओं में अलग-अलग नामों से पुकार जाता है जैसे- उड़िया में लोग इस त्यौहार को दीपावली कहते हैं, तो हमारे बांग्ल बंधु दीपाबाली नाम से शंख और मछली के आकार में संदेश बनाते हुए रोशनियों के इस उत्सव को मनाते हैं. सिंधी इसे दियारी कहते हैं और मारवाड़ी  दियाळी…

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हम सभी जानते हैं कि हमारी संस्कृति उत्सव प्रधान है… और उत्सव की प्राचीन परंपरा उल्लास और मंगल से जुड़ी हुई है, जब जीवन में उल्लास हो व तन-मन में सरसता हो तब वह समय उत्सव का होता है. दीपोत्सव की परंपरा अनादि काल से भारतीय संस्कृति की अक्षुण्ण पहचान रही है और मिडिल स्कूल में मैं अपने पाठ्यक्रम में पन्नाधाय के त्याग के बारे में पढते हुए राजपूताने की “दीप-दान” की परंपरा से बाल्यकाल से ही वाकिफ हो चूकी हूँ. वैदिक काल हो या उत्तर वैदिक काल, because   दीपावली के साथ कोई न कोई प्रसंग, और सामाजिक या धार्मिक परम्परा जुड़ी हुई है. काल के प्रवाह में इस परंपरा में कई नई व्यवस्थाएं और परंपराएं सम्मिलित हुई है.. मसलन दुल्ला-भाटी की कहानी भी दीपोत्सव से ताल्लुक़ रखती है.

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वैदिक वांग्मय.. से हम जान पाते हैं कि दीपोत्सव मनाने के लिए केवल घी के दीये प्रयोग में लाये जाते थे और सामान्य प्रायोजन के लिए खाद्य तेल के दीए जलाने का उल्लेख मिलता है. because वर्तमान आधुनिक युग में कृत्रिम विद्युत और मोमबत्ती तक यह परंपरा आ चुकी है. यहाँ तक तो ठीक है.  लेकिन प्राचीन परम्परागत संस्कृति में पटाखों के प्रवेश को मैं एक विकृति ही मानती हूँ. और इस विकृति का हमारे देश से परिचय कराने वाले मुगल थे.

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दीपोत्सव के आगमन के तीन-चार हफ्ते पहले ही महलों की साफ-सफाई और रंग-रोगन के दौर चला करते थे. ज्यों-ज्यों पर्व के दिन नजदीक आने लगते, त्यों-त्यों खुशियां परवान because चढ़ने लगतीं थीं. महलों के गलियारे शहजादियों की खिल-खिलाटों और शहजादों के कह-कहों से गुलजार होने लगते थे.  दीयों की रोशनी से समूचे किले जग-मगा उठते थे, जिसे इस मौके के लिए खासतौर पर सजाया-संवारा जाता था.

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ऐसा माना जाता है कि मुगलकाल से पहले भारत में पटाखों का उपयोग नहीं होता था. केवल बारुद का उपयोग वन्य पशुओं को भगाने के लिए किया जाता था, लेकिन जब मुगल because साम्राज्य भारत में स्थापित हुआ तो मिट्टी के पात्र और कागज में लपेट कर पटाखों की शुरुआत भारत में हुई, मुगल अपने यहाँ विवाह आदि अवसरों पर धमाकों के लिए बारुद का उपयोग करते थे और उत्सव मनाते थे. चूंकि उस काल में मुगल ही भारत के शासक थे तो यथा राजा तथा प्रजा के अनुसार भारत के मुगल आश्रित सेवकों ने उनका अनुसरण करना प्रारंभ किया. चूंकि दीपावली भारत का सबसे प्रमुख  त्यौहार माना जाता  था तो इस त्यौहार पर उल्लास प्रकट करने के लिए.. आमजन पटाखों का प्रयोग करने लगे थे.

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‘जश्ने -ए-चराग़’ की बात करूँ because तो पुरातन काल से ही हमारे प्यारे हिंदोस्तान का किरदार कुछ ऐसा रहा है कि जिस भी शासक ने सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व की भावना से सत्ता चलाई, उसे हमारे देशवासियों ने भरपूर प्यार व स्नेह दिया. फिर बात चाहे मुगलों की हो या अंग्रेजों की हिंदुस्तान ने उनको दिया ही..है, लिया नहीं है उनसे. हमारे देशवासियों की सद्भावना की बदौलत ही उन्होंने हमारे देश पर वर्षों तक राज किया है.

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मुझे लगता है कि मुगलकाल से हम यदि औरंगजेब को छोड़ दें, तो सारे मुगल शहंशाह सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व पर यकीन रखते थे. उन्होंने कभी मजहब के साथ सियासत का घालमेल नहीं किया और अपनी हुकूमत में हमेशा उदारवादी तौर-तरीके अपनाए. यही वजह है कि उन्होंने भारत पर लंबे समय तक राज किया. मुगलों की हुकूमत के दौरान धार्मिक स्वतंत्रता अपना धर्म पालन करने तक सीमित नहीं थी, बल्कि उन्होंने एक ऐसा नया माहौल बनाया, जिसमें सभी धर्मों को मानने वाले एक-दूसरे की खुशियों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे.

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मुगलकाल में विभिन्न हिंदू और मुसलिम त्यौहार खूब उत्साह और बिना किसी भेदभाव के मनाए जाते थे. अनेक हिंदू त्यौहार मसलन दीपावली, शिवरात्रि, दशहरा और रामनवमी को मुगलों ने because राजकीय मान्यता दी थी. मुगलकाल में खासतौर से दिवाली पर एक अलग ही रौनक होती थी.  दीपोत्सव के आगमन के तीन-चार हफ्ते पहले ही महलों की साफ-सफाई और रंग-रोगन के दौर चला करते थे. ज्यों-ज्यों पर्व के दिन नजदीक आने लगते, त्यों-त्यों खुशियां परवान चढ़ने लगतीं थीं. महलों के गलियारे शहजादियों की खिल-खिलाटों और शहजादों के कह-कहों से गुलजार होने लगते थे.  दीयों की रोशनी से समूचे किले जग-मगा उठते थे, जिसे इस मौके के लिए खासतौर पर सजाया-संवारा जाता था.

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बाबर तो दिवाली के त्यौहार को अल्लाह द्वारा प्रदत्त ‘एक खुशी का मौका’ मानता था. वह खुद दीपावली को जोश-ओ-खरोश से मनाया करता था. इस दिन पूरे किले को दुल्हन की तरह सजा कर कई पंक्तियों में लाखों दीप प्रज्वलित किए जाते थे. इस मुकद्दस मौके पर शहंशाह बाबर अपनी गरीब रियाया को नए कपड़े और मिठाइयां भेंट because किया करता था. बाबर ने अपने बेटे हुमायूं को भी दिवाली के जश्न में शामिल होने की समझाइश (समझ) दी थी. बाबर के उत्तराधिकारी के तौर पर हुमायूं ने न सिर्फ इस परंपरा को बरकरार रखा, बल्कि इसमें और दिलचस्पी लेकर इसे और आगे बढ़ाया.    हुमायूं दीपावली हर्षोल्लास से मनाता था. इस मौके पर  वह महल में महालक्ष्मी के साथ और भी हिंदू देवी-देवताओं की पूजा भी करवाता था,  और अपनी गरीब अवाम को सोने के सिक्के उपहार में देता था.

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लक्ष्मी-पूजा के बाद एक विशाल मैदान में  because आतिशबाजी चलाई जाती थी, फिर 101 तोपें चलाई जाती थीं. और कहते हैं कि फिर इसके बाद बादशाह हुमायूं शहर में रोशनी देखने के लिए निकल जाते थे. ‘तुलादान’ की हिंदू परंपरा में भी हुमायूं की दिलचस्पी थी.

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शहंशाह अकबर के शासनकाल  की जहाँ तक बात है तो उस समय देश के अंदर गंगा-जमुनी तहजीब  खूब फल- फूल रही थी. अकबर इस्लाम के साथ-साथ अन्य सभी धर्मों का सम्मान करता था. because ‘दीन-ए-इलाही’ का गठन उसने इसी हेतु किया था.

जहांगीर ने खुद अकबर के मुताल्लिक अपने ‘तुजुक’ यानी जीवनी में लिखा है- “अकबर ने हिंदुस्तान के रीति-रिवाज को आरंभ से सिर्फ ऐसे ही स्वीकार कर लिया, जैसे दूसरे देश का ताजा मेवा या नए मुल्क का नया सिगार या यह कि अपने प्यारों और प्यार करने वालों की हर बात प्यारी लगती है.”

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एक लिहाज से हम देखें, तो अकबर ने भारत में because राजनीतिक एकता ही नहीं, सांस्कृतिक समन्वय का भी महान कार्य किया है, इसीलिए इतिहास में उन्हें अकबर महान के रूप में याद किया जाता है.

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अकबर ने अपनी सल्तनत में विभिन्न समुदायों के कई त्यौहारों को शासकीय अवकाश की फेहरिस्त में शामिल किया था. हरेक त्यौहार में खास तरह के आयोजन होते, जिनके लिए शासकीय खजाने से because दिल खोलकर अनुदान दिया जाता था. दिवाली मनाने की शुरुआत दशहरे से ही हो जाती थी.   दशहरा- पर्व पर शाही घोड़ों और हाथियों के साथ व्यूह रचना तैयार कर सुसज्जित छतरी के साथ जुलूस निकाला जाता था. राहुल सांकृत्यायन, जिन्होंने हिंदी में अकबर की एक जीवनी लिखी है, वे  उस किताब में लिखते हैं-

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“अकबर दशहरा उत्सव बड़ी ही शान-शौकत because से मनाता था. ब्राह्मणों से पूजा करवाता था, माथे पर टीका लगवाता था, मोती-जवाहर से जड़ी राखी हाथ में बांधता था, अपने हाथ पर बाज बैठाता था,और किलों के बुर्जों पर शराब रखी जाती थी, गोया कि सारा दरबार इसी रंग में रंग जाता था.”

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अकबर के नौ रत्नों में से एक अबुल फजल ने अपनी मशहूर किताब ‘आईना-ए-अकबरी’ में शहंशाह अकबर के दीपावली पर्व मनाए जाने का तफसील से जिक्र किया है. अबूल फजल ने लिखा हैं की अकबर दिवाली की सांझ अपने पूरे राज्य में मुंडेरों पर दीये प्रज्वलित करवाता था. किले की सबसे लंबी मीनार पर बीस गज लंबे बांस पर कंदील लटकाए जाते थे. (जिन्हें आकाश दीप कहा जाता था) यही नहीं, महल में पूजा दरबार आयोजित किया जाता था. इस मौके पर संपूर्ण साज-सज्जा कर, दो गायों को कौड़ियों की माला गले में पहनाई जाती थी, फिर ब्राह्मण उन्हें शाही बाग में लेकर आते थे. ब्राह्मण जब शहंशाह को आशीर्वाद प्रदान करते, तब because शहंशाह खुश होकर उन्हें मूल्यवान उपहार प्रदान करते थे. अबुल फजल ने अपनी किताब में अकबर के उस दीपावली समारोह का भी ब्योरा लिखा है, जब शहंशाह कश्मीर में थे. अबुल फजल लिखते हैं-

“दीपावली पर्व जोश-खरोश से मनाया गया. हुक्मनामा जारी कर नौकाओं, नदी-तटों और घरों की छतों पर प्रज्वलित किए गए दीपों से सारा माहौल रोशन और भव्य लग रहा था.”

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दिवाली के दौरान शहजादे और दरबारियों को राजमहल में जुआ खेलने की भी इजाजत होती थी.  जैसा कि सब जानते हैं कि दिवाली के बाद गोवर्धन पूजा होती है, मुगलकाल में गोवर्धन पूजा भी because बड़ी श्रद्धा के साथ संपन्न होती थी.  यह दिन गोसेवा के लिए निर्धारित होता था. गायों को अच्छी तरह नहला-धुला कर, सजा-संवार कर उनकी पूजा की जाती थी. शहंशाह अकबर खुद इन समारोहों में शामिल होते थे और अनेक सुसज्जित गायों को उनके सामने लाया जाता… था, जिसका जिक्र अबूल फजल ने किया है.

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कलाप्रेमी जहांगीर के शासनकाल में तो दिवाली का अपना अलग ही रंग  था. जहांगीर भी दिवाली मनाने में अकबर से पीछे नहीं था. ‘तुजुक-ए-जहांगीर’ के मुताबिक साल 1613 से 1626 तक जहांगीर ने हर साल अजमेर में दिवाली मनाई थी. वह अजमेर के एक तालाब के चारों किनारों पर दीपमालाओं की जगह हजारों मशालें प्रज्वलित करवाता था. because इस मौके पर शहंशाह जहांगीर अपने हिंदू सिपहसालारों को कीमती नजराने भेंट करता था. इसके बाद फकीरों को नए कपड़े, मिठाइयां बांटी जातीं थीं. यही नहीं, आसमान में इकहत्तर तोपें दागी जातीं और बड़े-बड़े पटाखे चलाए जाते थे.

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अकबर का उत्तराधिकारी जहांगीर दिवाली के दिन को शुभ माननकर चौसर जरूर खेलता  था. इस दिन राजमहल को खासतौर से मुख्तलिफ (खास) तरह की रंग-बिरंगी रोशनियों से सजाया जाता था. because जहांगीर रात में अपनी बेगम नूरजहाँ के साथ हाथी पर बैठकर आतिशबाजी का मजा लेने के लिए    किले से बाहर  निकलता था. रौशनी में नहाई हुई “दिल्लिका” तब हुलस कर अपने बादशाह का इस्तेकबाल कोर्नीश कर-कर किया करती थी.

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मुगल बादशाह शाहजहां जितनी शान-ओ-शौकत के साथ ईद मनाते थे ठीक उसी तरह दीपावली भी. दीपावली पर किला रोशनी में नहा जाता था और किले के अंदर स्थित मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना की because जाती थी. इस मौके पर शाहजहां अपने दरबारियों, सैनिकों और अपनी रिआया में मिठाई बंटवाता था. शाहजहां के बेटे दारा शिकोह ने भी इस परंपरा को इसी तरह से जिंदा रखा. दारा शिकोह इस त्यौहार को पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाता था और अपने नौकरों को बख्शीश बांटता था. उसकी भी  शाही सवारी रात के वक्त शहर की रोशनी देखने निकलती थी.

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किताब ‘तुजुके जहांगीरी’ में दीपावली पर्व की भव्यता और रौनक तफसील से बयां की गयी है. मुगल वंश के आखिरी बादशाह, बहादुर शाह जफर का दिवाली मनाने का अंदाज जुदा था. उसकी दिवाली तीन दिन पहले से शुरू हो जाती थी. दिवाली के दिन वह तराजू के एक पलड़े में बैठता था और दूसरा पलड़ा सोने-चांदी से भर दिया जाता था. because तुलादान के बाद यह धन-दौलत गरीबों को दान कर दी जाती थी. तुलादान की रस्म-अदायगी के बाद किले पर रोशनी की जाती थी. कहार खील-बतीशे, खांड और मिट्टी के खिलौने घर-घर जाकर बांटते थे. गोवर्धन पूजा जब आती, तो इस दिन दिल्ली की रिआया अपने गाय-बैलों को मेंहदी लगा कर और उनके गले में शंख और घुंघरू बांध कर जफर के सामने पेश करते थे. तब बादशाह जफर उन्हें इनाम देते और मिठाई खिलाते थे.

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मुगलकाल में हिंदू तथा मुसलिम समुदायों के छोटे कट्टरपंथी तबके को छोड़ सभी एक-दूसरे के त्योहारों में बगैर हिचकिचाहट भागीदार बनते थे. दोनों समुदाय अपने मेलों, भोज तथा त्योहारों को एक साथ मनाते थे. दिवाली का पर्व न केवल दरबार में पूरे जोश-खरोश से मनाया जाता, अपितु आम लोग भी उत्साहपूर्वक इस त्यौहार का आनंद लेते थे. because दिवाली पर ग्रामीण इलाकों के मुसलिम अपनी झोंपड़ियों व घरों में रोशनाई करते थे तथा  जुआ खेलते थे. वहीं मुसलिम महिलाएं इस दिन अपनी बहनों और बेटियों को लाल चावल से भरे घड़े उपहारस्वरूप भेजतीं थीं, यही नहीं, दिवाली से जुड़ी सभी रस्मों को भी पूरा किया करतीं थीं. लाल किले का मीना बाजार… आतिशबाजियों, किमखाब के वस्त्रों, और सोने चांदी के जेवरातों से सज जाया करता था.

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एक बात और कहना चाहुंगी के मुगल शहंशाह ही नहीं, बंगाल तथा अवध के नवाब भी दिवाली शाही अंदाज में  मनाया करते थे. अवध के नवाब तो दीप पर्व आने के सात दिन पहले ही because अपने तमाम महलों की विशेष साफ-सफाई करवाते थे. महलों को दुल्हन की तरह सजाया जाता था. महलों के चारों ओर तोरणद्वार बना कर खास तरीके से दीप प्रज्वलित किए जाते थे. बाद में नवाब खुद अपनी प्रजा के बीच में जाकर दिवाली की मुबारकबाद दिया करते थे. उत्तरी राज्यों में ही नहीं, दक्षिणी राज्यों में भी हिंदू  त्यौहारों पर उमंग और उत्साह कहीं कम नहीं दिखाई देता था.

मैसूर में तो दशहरा हमेशा से ही because जबर्दस्त धूमधाम से मनाया जाता रहा है.. और आज भी हम मैसूर को  दशहरा फेस्टिवल व  मैसूर पैलैस   की वजह से ज्यादा जानते हैं.  हैदर अली और टीपू सुल्तान, दोनों ही विजयदशमी पर्व के समारोहों में हिस्सा लेकर अपनी प्रजा को आशीष दिया करते थे.  मुगल शासकों ने  दशहरा पर्व पर भोज देने की जो  परंपरा  आरंभ की थी वह आज भी कायम है.

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शाहजहाँ के द्वारा बसाया गये जहांनाबाद  की प्रसिद्धि से उत्सुक होकर इंग्लेंड का एक यात्री  एन्ड्रयू 1904 में दिल्ली  आया और मुंशी ज़काउल्लाह से  मिला. ज़काउल्लाह ने लाल किले के because अंदर का रहन-सहन, अदब-ओ-अहतराम देखा था, जिसे एन्ड्रयू ने किताब Zakaullah of Delhi में तफसील से मुगलों की दिवाली को कुछ इस तरह से बयां किया है कि दिवाली के लिए  किले में  आगरा, मथुरा, भोपाल, और लखनऊ से बेहतर हलवाई बुलवाए जाते थे.. मिठाई बनाने के लिए देसी घी गांवों से लिया जाता था…  महल के अंदर से लेकर बाहर और आस पास की जगहें रोशन कर दी जाती थी…

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कॉलम्निस्ट (समीक्षक) फिरोज बख्त because अहमद लिखते हैं कि पूजा सामग्री चांदनी चौक के कटरा नील से ली जाती थी.. फिरोज लिखते हैं की दीवाली के लिए आतिशबाज़ी, जामा मस्जिद के पीछे के इलाके पाइवालान से आती थी… शाहजहां के दौर में दीवाली की आतिशबाजी देखने के रानियां, शहजादियां, शहजादे कुतुब मीनार जाते थे..

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1885 में आई बज्म-ए-आखिर में because भी मुंशी फैजुद्दीन ने लाल-किले में मनाए जाने दीवाली के जश्न का जिक्र किया है. फैजुद्दीन ने अपनी ज़िंदगी के बहुत सारे साल मिर्जा इलाही बख्श के सेवक के तौर पर बिताए.. थे, उन्होंने किताब में दीवाली के जश्न को ‘पहले, दूसरे, तीसरे दिये’ के तौर पर बयां किया है..

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पहला दिया या छोटी दीपावली के दौरान कोई भी महल से बाहर, या बाहर वाला महल के अंदर नहीं आ जा सकते थे… क्योंकि तब भी दीवाली के मौके पर काले जादू का डर  होता था. साल 1885 में छपी बज़्म-ए-आखिर में मुंशी फ़ैज़उद्दीन देहलवी ने मुगलों के काल में भी दिवाली के दिन तंत्र साधना का जिक्र किया है. इससे बचने के लिए because दिवाली के दिन किसी भी कर्मचारी को महल परिसर से बाहर जाने का इजाजत नहीं होती थी. महल में कोई भी सब्जी इस रोज नहीं मंगाई जाती थी. अगर कोई बैंगन, कद्दू, चुकंदर या गाजर खाना चाहे तो उसे छीलकर  ही इस्तेमाल किया जाता था. ऐसी मान्यता थी कि इन फल-सब्जियों के जरिए महल के हरम की औरतों पर बाहरी व्यक्ति काला जादू कर सकता है.

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‘तीसरे दिये’ यानी बड़ी दीवाली वाले because दिन बादशाह को सोने-चांदी में तौला जाता था.. फिर उस सोने-चांदी को अवाम में बंटवाया जाता था. . इसके अलावा एक काली भैंस, काला कंबल, मस्टर्ड ऑयल, सतनजा भी बादशाह की तरफ से बतौर सदक़ा गरीब लोगों में  बांटा जाता था..

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बड़ी दिवाली यानी बड़े दिये के because दिन बादशाह महल को जगमग करने का हुक्म देते थे.. खील-बताशे और छोटे-छोटे मिट्टी के घर/खिलौने व गन्ने दासियां घर-घर देने जाती थी… शहजादे व शहजादी की तरफ से बनाए गए छोटे-छोटे मिट्टी के घरों को खील-बताशों से भरा जाता था, फिर उनके आगे एक-एक दिया जलाया जाता था…

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एक रौशन चौकी भी होती थी… जिसपर  वाद्ययंत्र, शहनाई,  सितार, वीणा वगैरह रखे जाते थे,    इसी  रौशन चौकी पर बैठ कर मियां तानसेन रागों पर अपना हुनर पेश किया करते थे. नौबत भी आतिशबाजी होने पर बजाई जाती थी…शहनाई, ड्रम बजाने को नौबत कहते थे, जिसे शाही नौबत खाने में भी बजाया जाता था… because महल के हर कोने में गन्ने रखे जाते थे…  जिनपर नींबू बंधे रहते थे.. अगली सुबह वे नौकरों में बांट दिए जाते थे.. दीवाली जश्न का खास हिस्सा रथ बान भी हुआ करता था…   रथ के सांड के खुर मेंहदी से रंगे जाते थे.  गले में घंटियां बांधी जाती थी.. सोने-चांदी के तारों से कढ़ाई कर बनाया गया पोश, सांड पर बादशाह के बैठने से पहले बिछाया जाता था…

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हालांकि धर्म के नाम पर समाज को बांटने की फितरत भले ही कुछ कट्टरपंथियों और सांप्रदायिक ताकतों में आज भी कायम है लेकिन इतिहास गवाह है कि मुगलकालीन दौर में because ज्यादातर बादशाह न सिर्फ रोशनी का त्यौहार पूरी शिद्दत से मनाते थे बल्कि कुछ शंहशाह तो बाकायदा लक्ष्मी पूजन कर गंगा-जमुनी तहजीब की अनूठी मिसाल पेश करते थे. इतिहास को तरोड़ने और मरोड़ने के इस दौर में मेरा ख्याल है कि हमारे सभी त्यौहारों को सहिष्णुता की आवश्यकता है. त्यौहारों को धर्म के चश्मे से न देखा जाए तो बेहतर होगा.

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(मंजू काला मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल से ताल्लुक रखती हैं. इनका बचपन प्रकृति के आंगन में गुजरा. पिता और पति दोनों महकमा-ए-जंगलात से जुड़े होने के कारण,  पेड़—पौधों, पशु—पक्षियों में आपकी गहन रूची है. आप हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं. आप ओडिसी की नृतयांगना होने के साथ रेडियो-टेलीविजन because की वार्ताकार भी हैं. लोकगंगा पत्रिका की संयुक्त संपादक होने के साथ—साथ आप फूड ब्लागर, बर्ड लोरर, टी-टेलर, बच्चों की स्टोरी टेलर, ट्रेकर भी हैं. नेचर फोटोग्राफी में आपकी खासी दिलचस्‍पी और उस दायित्व को बखूबी निभा रही हैं. आपका लेखन मुख्‍यत: भारत की संस्कृति, कला, खान-पान, लोकगाथाओं, रिति-रिवाजों पर केंद्रित है.)

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