साहित्‍य-संस्कृति

गांधी जी का राष्ट्रवाद जो आज भी सपना बनकर रह गया

गांधी जी का राष्ट्रवाद जो आज भी सपना बनकर रह गया

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गांधी जी का राष्ट्रवाद-2 डॉ. मोहन चंद तिवारी (दिल्ली विश्वविद्यालय के गांधी भवन में so 'इंडिया ऑफ माय ड्रीम्स' पर आयोजित ग्यारह दिन (9जुलाई -19 जुलाई, 2018 ) के समर स्कूल के अंतर्गत गांधी जी के राष्ट्रवाद और समाजवाद पर दिए गए मेरे व्याख्यान का द्वितीय भाग, जिसमें वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में गांधी जी के 'राष्ट्रवाद' की अवधारणा पर विचार किया गया है.) शिव     टीवी चैनलों में 'राष्ट्रवाद' पर आजकल जिस तरह बेमतलब की गैर जिम्मेदार बहस से लोगों को भरमाया जाता है, so उससे जाहिर है कि आजादी मिलने के 73 साल के बाद आज भी हमारा देश 'राष्ट्रवाद' के बारे में कितना अनभिज्ञ बना हुआ है. शिव हमारे देश का दुर्भाग्य रहा है कि ब्रिटिश काल की साम्राज्यवादी इतिहास चेतना के अनुरूप आज भी स्कूलों और विश्व विद्यालयों की पाठ्यपुस्तकों में छात्रों को 'नेशनलिज्म' के जो पाठ so पढ़ाए जाते हैं उनमें यही बताया जात...
हिन्दू धर्म विश्व का सर्वोत्कृष्ट राष्ट्रवादी धर्म है

हिन्दू धर्म विश्व का सर्वोत्कृष्ट राष्ट्रवादी धर्म है

साहित्‍य-संस्कृति
गांधी जी का राष्ट्रवाद-1 डॉ. मोहन चंद तिवारी (दिल्ली विश्वविद्यालय के गांधी भवन में 'इंडिया ऑफ माय ड्रीम्स' पर आयोजित ग्यारह दिन (9जुलाई -19 जुलाई, 2018 ) के समर स्कूल के अंतर्गत गांधी जी के राष्ट्रवाद because और समाजवाद पर दिए गए मेरे व्याख्यान का सारपूर्ण लेख,जो आज भी प्रासंगिक है) गांधी जी के अनुसार दुनिया के जितने भी धर्म हैं उनमें हिन्दूधर्म ही एकमात्र ऐसा राष्ट्रवादी धर्म है,जिसमें कट्टरता का अभाव है और जो सब से अधिक सहिष्णु है. because गांधी जी के अनुसार "हिन्दूधर्म न केवल मनुष्यमात्र की बल्कि प्राणिमात्र की एकता में विश्वास रखता है." - (यंग इंडिया,20-10-1927) ज्योतिष गौरतलब है कि 13 जुलाई, 1947 में because 'हरिजन सेवक' पत्रिका में समाजवादी कौन है? इस विषय पर लिखते हुए गांधी जी ने कहा था- “सारी दुनिया के समाज पर नज़र डालें तो हम देखेंगे कि हर जगह द्वैत ही द्वैत है. ए...
भारत में सिनेमा की यात्रा के पड़ाव

भारत में सिनेमा की यात्रा के पड़ाव

साहित्‍य-संस्कृति
भारत में सिनेमा के सवा सौ साल (7 जुलाई, 2021) होने के अवसर पर विशेष   प्रो. गिरीश्वर मिश्र आज सिनेमा ज्ञान, चेतना because और सामाजिक जागरूकता, मूल्य बोध, परवरिश के तौर तरीकों को आकार देने वाली शक्ति के रूप में स्थापित हो चुका है. भारत में नाटकों की परम्परा तो पुरानी है, लगभग दो हजार साल पहले से संस्कृत और प्राकृत के नाटक मिलते हैं. कालिदास, शूद्रक, विशाखदत्त, भास और भवभूति के नाटक अद्भुत हैं. पर यथार्थ की चाक्षुष और श्रव्य कथात्मक अभिव्यक्ति करता सिनेमा समाज की सांस जैसा सिनेमा दर्पण का काम करता है और उसे देख क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है इसका पता चलता है. संस्कृति सिनेमा के जरिये साथ एक समानांतर संस्कृति विकसित हो रही है जो मनोरंजन के साथ साथ, वेश-भूषा और फैशन की प्रवृत्ति को तय करने के साथ  बहुत सारे विषयों पर नजरिये को भी प्रभावित करती है. मसलन प्रेम, सेक्स, आपसी रिश्ते,...
अचानक याद आना एक गीत का

अचानक याद आना एक गीत का

साहित्‍य-संस्कृति
चारु तिवारी ‘गरुड़ा भरती, कौसाणी ट्रेनिंगा...!’ उन दिनों हमारे क्षेत्र बग्वालीपोखर में न सड़क थी और न बिजली. मनोरंजन के लिये सालभर में लगने वाला ‘बग्वाली मेला’ और ‘रामलीला’. बाहरी दुनिया से परिचित होने का because एक माध्यम हुआ- रेडियो. वह भी कुछ ही लोगों के पास हुआ. सौभाग्य से हमारे घर में था. रेडियो का उन दिनों लाइसेंस होता था. उसका हर साल पोस्ट आॅफिस से नवीनीकरण कराना पड़ता था. इसी रेडियो की आवाज से हम दुनिया देख-समझ लेते. हमारे सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम थे- ‘उत्तरायण’ और ‘गिरि गुंजन’. बाद में ‘बिनाका गीतमाला’, ‘क्रिकेट की कैमेंट्री’, ‘रेडियो नाटक’, ‘वार्ताओं’, ‘बीबीसी’ और समाचारों से भी हमारा रेडियो के साथ नाता जुड़ा, लेकिन शुरुआती दिनों में कुमाउनी गीत सुनना ही हमारी प्राथमिकता थी. .पासिंग आउट परेड उन दिनों एक गीत बहुत प्रचलित था- ‘गरुड़ा भरती कौसाणी ट्रैनिंगा, देशा का लिजिया लड़ैं में ...
दुदबोलि के पहरू थे मथुरा दत्त मठपाल

दुदबोलि के पहरू थे मथुरा दत्त मठपाल

साहित्‍य-संस्कृति
कृष्ण चन्द्र मिश्रा कुमाउनी भाषा के कवि और दुदबोलि के पहरू(रक्षक) मथुरादत्त मठपाल 'मनख' का जन्म 29 जून 1941 ईस्वी को हुआ. इनकी जन्म स्थली अल्मोड़ा जिला के भिक्यासैंण ब्लॉक का नौला गांव था. यह गांव पश्चिमी रामगंगा because नदी के बाएं किनारे पर बसा हुआ है. इनके पिता स्व. हरिदत्त मठपाल स्वतन्त्रा संग्राम सेनानी थे. देश आजाद होने से पहले वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सक्रिय सदस्य थे. इनकी माँ कान्ति देवी कर्मठ महिला थीं. इनका परिवार संपन्न था. मथुरादत्त मठपाल मठपाल जी की पढ़ाई गांव के प्राइमरी स्कूल से शुरू हुई, सन् 1951 ई0 में प्राथमिक विद्यालय विनायक से दर्जा 5 पास किया, मानिला मिडिल स्कूल से 8 वीं कक्षा पास की. रानीखेत नेशनल हाईस्कूल से सन् 1956 ई0 में दसवीं और रानीखेत because मिशन इण्टर कॉलेज से इण्टरमीडिएट पास किया. लखनऊ विश्वविद्यालय में बी0एस0सी0 प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया किन्तु...
वेदान्त-प्रवक्ता आचार्य शंकर का अवदान  

वेदान्त-प्रवक्ता आचार्य शंकर का अवदान  

साहित्‍य-संस्कृति
शंकराचार्य जयन्ती के पर विशेष  प्रो. गिरीश्वर मिश्र ‘वेदान्त’ यानी वेदों का सार भारतीय चिंतन की एक वैश्विक देन है और उसके अद्वितीय पुरस्कर्ता आचार्य शंकर हैं जो  ब्रह्म  को’ एकमेवाद्वितीयम्’  मानते है. अर्थात ब्रह्म एक ही है. ब्रह्म से अलग कोई भी चीज  वास्तविक नहीं है. और ब्रह्म के भाग या हिस्से नहीं हो सकते. अक्सर इस संसार  के दो कारण माने जाते हैं जड़ because और चेतन परन्तु  वेदान्त एक ही तत्व मानता है  जैसे मकड़ी अपना जाला बुनने के लिए किसी अन्य बाहरी  वस्तु पर निर्भर नहीं करती  वरन अपने ही पेट से तंतु निकाल निकाल कर जाला तैयार करती है. अपने दृष्टिकोण को दृढ़ता से रख आचार्य शंकर ने बौद्ध और मीमांसक मतों के सम्मुख बड़ी चुनौती रखी. उन्होंने वेद  को भी महत्त्व दिया और युक्ति का भी उपयोग किया. मूलांक प्रचलित अनुश्रुतियों, मिथकों और कथाओं के नायक आचार्य शंकर की जीवन गाथा वैचारिक नवोन...
हास्य, व्यंग्य नहीं, हमारे दर्द के कवि हैं शेरदा अनपढ़

हास्य, व्यंग्य नहीं, हमारे दर्द के कवि हैं शेरदा अनपढ़

साहित्‍य-संस्कृति
ललित फुलारा 'कुमाउनी शब्द संपदा' पेज पर प्रसिद्ध कवि-गीतकार शेरदा "अनपढ़" की कविताओं के विभिन्न आयाम पर केंद्रित चर्चा 'हमार पुरुख' में वरिष्ठ पत्रकार चारु तिवारी, साहित्यकार because देवेन मेवाड़ी और डॉ दिवा भट्ट ने अपने विचार रखे. चारु तिवारी ने शेरदा अनपढ़ की कविता और जीवन यात्रा पर प्रकाश डालते हुए कहा कि शेरदा अनपढ़ हास्य, व्यंग्य नहीं, हमारे दर्द के कवि हैं. मूलांक उनका कविता संसार मानवीय संवेदनाओं का संसार है. हर गीत और कविता में जीवन का भोगा हुआ यथार्थ है. जो बोल नहीं सकते, शेरदा की कविताएं उनकी आवाज हैं. जनसंघर्ष, because आध्यात्म, प्रकृति और प्रेम के साथ ही समसामयिक विषयों को संबोधित करने वाले कवि हैं, शेरदा . उनके साहित्यिक अवदान को जितना समेटा जाए, उतना फैलता जाता है. अपनी कविता के बारे में वह कहते थे ... मैं कविता हंसकर भी लिखता हूं, रोकर भी, बीच बाजार में भी लिखता हूं और...
फैशन की बातें- बीते दौर की

फैशन की बातें- बीते दौर की

साहित्‍य-संस्कृति
भुवन चंद्र पंत जिन्दगी भले कितनी तंगहाली में गुजरे लेकिन फैशन को अपने अन्दाज में अपनाना हमारे शौक से ज्यादा मजबूरी बन जाती है. मजबूरी इसलिए कि यदि हम जमाने के अनुसार नहीं चलते तो गंवार व बुर्जुआ कहलायेंगें. बाजार भी इस नस को बखूबी जानता है और हरेक की सामर्थ्य के अनुकूल विकल्प तैयार कर लेता है. बात कर रहे हैं because पिछले 50-60 के बीच बदलते फैशन की, जिसके हम प्रत्यक्षदर्शी रहे. मुमकिन है कि आज की नई पीढ़ी को उस पर यकीन भी नहीं होगा कि कभी ऐसा भी वक्त रहा होगा, जब पैर का जूता भी आम इन्सान को नसीब नहीं था. आज तो पैदा हुए बच्चे को जूते पहना दिये जाते हैं, भले वो चलना न सीखा हो. एक दौर वो भी था, जब पांचवी दर्जे तक तो जूते पहनना अमीर शोहदों की चीज हुआ करती थी. अंक शास्त्र दर्जा 6 में जाने के बाद लाल अथवा सफेद रंग के कपडे़ के जूते मिला करते, जिनके तलवे यदि घिस कर सीधे पैर जमीन को छुए, इससे फ...
गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर उनकी मानव-दृष्टि

गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर उनकी मानव-दृष्टि

साहित्‍य-संस्कृति
प्रो. गिरीश्वर मिश्र कवि, चिन्तक और सांस्कृतिक नायक गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर साहित्य और कला के क्षेत्र में नव जागरण के सूत्रधार थे. आध्यात्म, साहित्य, संगीत और नाटक के परिवेश में पले बढे और यह सब उनकी स्वाभाविक प्रकृति और रुचि के अनुरूप भी था. बचपन से ही उनकी रुचि सामान्य और साधारण का अतिक्रमण करने में रही पर वे because ऋषि परम्परा, उपनिषद, भक्ति साहित्य, कबीर जैसे संत ही नहीं, सूफी और बाउल की लोक परम्परा आदि से भी ग्रहण करते रहे. कवि का मन मनुष्य, प्रकृति, सृष्टि और परमात्मा  के बीच होने वाले संवाद की ओर आकर्षित होता रहा. प्रकृति के क्रोड़ में जल, वायु, आकाश, और धरती की भंगिमाएं उन्हें सदैव कुछ कहती सुनाती सी रहीं. तृण-गुल्म, तरु-पादप, पर्वत-घाटी, नदी-नद और पशु-पक्षी को निहारते और गुनते कवि को सदैव विराट की आहट सुनाई पड़ती थी. अंक शास्त्र विश्वात्मा की झलक पाने के लिए कवि अपने को तै...
टैगोर का शिक्षादर्शन-‘असत्य से संघर्ष और सत्य से सहयोग’

टैगोर का शिक्षादर्शन-‘असत्य से संघर्ष और सत्य से सहयोग’

साहित्‍य-संस्कृति
रवीन्द्रनाथ टैगोर के जन्मदिन पर विशेष डॉ. अरुण कुकसाल ‘किसी समय कहीं एक चिड़िया रहती थी. वह अज्ञानी थी. वह गाती बहुत अच्छा थी, लेकिन शास्त्रों का पाठ नहीं कर पाती थी. वह फुदकती बहुत सुन्दर थी, लेकिन उसे तमीज नहीं थी. राजा ने सोचा ‘इसके because भविष्य के लिए अज्ञानी रहना अच्छा नहीं है’....उसने हुक्म दिया चिड़िया को गंभीर शिक्षा दी जाए. कोविड पंडित बुलाए गए और वे इस निर्णय पर पंहुचे कि चिड़िया की शिक्षा के लिए सबसे जरूरी हैः एक पिंजरा. और फिर पिंजरे में रखकर चिड़िया ज्ञान पाने लगी. लोगों ने कहा so ‘चिड़िया के तो भाग्य जगे !’.......... ‘महाराज, because चिड़िया की शिक्षा पूरी हो गई’. राजा ने पूछा, but ‘वह फुदकती है ? भतीजे-भानजों because ने कहा, ‘नहीं !’ ‘उड़ती so है ?’ ‘एकदम नहीं !’ ‘चिड़िया लाओ,’ butराजा ने आदेश दिया. कोविड चिड़िया लाई गई. उसकी सुरक्षा में because कोतवाल, सिपाही और...