पुस्तक-समीक्षा

बचपन की यादों को जीवंत करती किताब

बचपन की यादों को जीवंत करती किताब

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 ‘मेरी यादों का पहाड़’डॉ. अरुण कुकसाल‘आ, यहां आ. अपनी ईजा (मां) से आखिरी बार मिल ले. मुझसे बचन ले गई, देबी जब तक पढ़ना चाहेगा, पढ़ाते रहना.’ उन्होने किनारे से कफन हटाकर मेरा हाथ भीतर डाला और बोले ‘अपनी ईजा को अच्छी तरह छू ले.’ मैंने ईजा (मां) के पेट पर अपनी हथेली रखी. किसी ने कहा ‘भा डरल (बच्चा डरेगा). क्या कर रहे हो?’ बाज्यू (पिता) ने कुछ नहीं सुना. मुझसे बोले, ‘कितना कहा, बुला देता हूं, बुला देता हूं. नहीं मानी. कहती रही, उसकी पढ़ाई का हर्जा हो जाएगा. पढ़ाने ही की धुन थी. नहीं बुलाने दिया. कल-परसों भी मैंने कहा-तू बचती नहीं है, शायद. बुला देता हूं. फिर वही जवाब. कल मैंने जबरदस्ती जवाब भेजा.’............ ‘जाने कितना पढ़ाना चाहती थी. पढ़ाने का ही सुर था उसे इजू.... ‘देखो तो ? खुद कभी इस्कूल नहीं गई. फिर भी दो-दो बेटों का पढ़ा गई’ (पृष्ठ-196). ....................... ‘मैं फूट पड़ा, ‘...
आत्मकथा में बस ‘अ’ और ‘ह’ बाकी कथा

आत्मकथा में बस ‘अ’ और ‘ह’ बाकी कथा

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कॉलम: किताबें कुछ कहती हैं…प्रकाश उप्रेतीकिसी को गिराया न ख़ुद को उछाला, कटा ज़िंदगी का सफर धीरे-धीरे. जहाँ आप पहुँचे छ्लांगे लगाकर, वहाँ मैं भी आया मगर धीरे-धीरे.. रामदरश मिश्र जी की इन पंक्तियों से विपरीत यह because आत्मकथा है. स्वयं उनका जिक्र भी आत्मकथा में है. ज्योतिष आत्मकथा 'स्व' से सामाजिक होनी की कथा है. वर्षों के 'निज' को सार्वजनिकता में झोंक देने की विधा आत्मकथा है. बशर्ते वह 'आत्म' का 'कथ्य' हो. 20वीं सदी के मध्य हिंदी साहित्य में because अनेक चर्चित आत्मकथाएं लिखी गईं  जिनमें निजी अनुभवों के साथ–साथ एक विशिष्टता बोध भी रहा . दरअसल आत्मकथा से जिस नैतिक ईमानदारी की अपेक्षा की जाती है वह इन आत्मकथाओं में कम ही देखने को मिली. रूसो ने आत्मकथा को ‘कंफैशन्स’ नाम दिया तो उसके पीछे का भाव था, स्वीकार्य करने का साहस लेकिन हिंदी में जो भी आत्मकथाएँ खासकर  पुरुषों के द्वार...
दृढ़ इच्छा शक्ति से मिला मुकाम : महेशा नन्द

दृढ़ इच्छा शक्ति से मिला मुकाम : महेशा नन्द

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डॉ. अरुण कुकसाल‘गांव में डड्वार (अनाज मांगने की कटु प्रथा) मांगने गई मेरी मां जब घर वापस आई तो उसकी आखें आसूओं से ड़बडबाई हुई और हाथ खाली थे. मैं समझ गया कि आज भी निपट 'मरसा का झोल' ही सपोड़ना पड़ेगा.... गांव में शिल्पकार-सर्वण सभी गरीब थे इसलिए गरीबी नहीं सामाजिक भेदभाव मेरे मन-मस्तिष्क को परेशान करते थे.... मैं समझ चुका था कि अच्छी पढ़ाई हासिल करके ही इस सामाजिक अपमान को सम्मान में बदला जा सकता है. पर उस काल में भरपेट भोजन नसीब नहीं था तब अच्छी पढ़ाई की मैं कल्पना ही कर सकता था. पर मैंने अपना मन दृड किया और संकल्प लिया कि नियमित पढ़ाई न सही टुकड़े-टुकड़े में उच्च शिक्षा हासिल करूंगा. मुझे खुशी है कि यह मैं कर पाया. आज मैं शिक्षक के रूप में समाज के सबसे सम्मानित पेशे में हूं..... पर जीवन में भोगा गया सच कहां पीछा छोड़ता है. अतीत में मिली सामाजिक ठ्साक वर्तमान में भी उतनी ही चुभती है. तब मे...
जो मजा बनारस में, न पेरिस में, न फारस में…

जो मजा बनारस में, न पेरिस में, न फारस में…

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कॉलम: किताबें कुछ कहती हैं...प्रकाश उप्रेतीइस किताब ने 'भाषा में आदमी होने की तमीज़' के रहस्य को खोल दिया. 'काशी का अस्सी' पढ़ते हुए हाईलाइटर ने दम तोड़ दिया. लाइन- दर- लाइन लाल- पीला करते हुए because कोई पेज खाली नहीं जा रहा था. भांग का दम लगाने के बाद एक खास ज़ोन में पहुँच जाने की अनुभूति से कम इसका सुरूर नहीं है. शुरू में ही एक टोन सेट हो जाता और फिर आप उसी रहस्य, रोमांस, और औघड़पन की दुनिया में चले जाते हैं. यह उस टापू की कथा है जो सबको लौ... पर टांगे रखता है और उसी अंदाज में कहता है- "जो मजा बनारस में, न पेरिस में, न फारस में". ज्योतिष"धक्के देना और धक्के खाना, जलील करना और जलील होना, गालियां देना और गालियां पाना औघड़ संस्कृति है. अस्सी की नागरिकता के मौलिक अधिकार और कर्तव्य. because इसके जनक संत कबीर रहे हैं और संस्थापक औघड़  कीनाराम. चंदौली के गांव से नगर आए एक आप्रवासी संत....