बचपन की यादों को जीवंत करती किताब

0
664

 ‘मेरी यादों का पहाड़’

  • डॉ. अरुण कुकसाल

‘आ, यहां आ. अपनी ईजा (मां) से आखिरी बार मिल ले. मुझसे बचन ले गई, देबी जब तक पढ़ना चाहेगा, पढ़ाते रहना.’

उन्होने किनारे से कफन हटाकर मेरा हाथ भीतर डाला और बोले ‘अपनी ईजा को अच्छी तरह छू ले.’ मैंने ईजा (मां) के पेट पर अपनी हथेली रखी.

किसी ने कहा ‘भा डरल (बच्चा डरेगा). क्या कर रहे हो?’

बाज्यू (पिता) ने कुछ नहीं सुना. मुझसे बोले, ‘कितना कहा, बुला देता हूं, बुला देता हूं. नहीं मानी. कहती रही, उसकी पढ़ाई का हर्जा हो जाएगा. पढ़ाने ही की धुन थी. नहीं बुलाने दिया. कल-परसों भी मैंने कहा-तू बचती नहीं है, शायद. बुला देता हूं. फिर वही जवाब. कल मैंने जबरदस्ती जवाब भेजा.’…………

‘जाने कितना पढ़ाना चाहती थी. पढ़ाने का ही सुर था उसे इजू…. ‘देखो तो ? खुद कभी इस्कूल नहीं गई. फिर भी दो-दो बेटों का पढ़ा गई’ (पृष्ठ-196).

…………………..

‘मैं फूट पड़ा, ‘मेरी ईजा (मां) नहीं है. मुझे सब मारते हैं’….

‘मेरी ईजा है ? तुम्हारी ही ईजा मरी है, मेरी नहीं ? तुम यहां पढ़ने आए हो. मेरा काम पढ़ाना है. पाठ याद करके आया करो. रोने से कुछ नहीं मिलेगा. पढ़ोगे तभी कुछ बनोगे.’

……मैं सोच में पड़ गया-हां, मेरी ईजा मास्साब (ददा बड़े भाई) की भी तो ईजा थी. उन्हें भी ईजा के न रहने का उतना ही दुःख होगा. फिर भी वे पढ़ा रहे हैं. मैंने सोच लिया, मैं भी मन लगाकर पढूंगा और कक्षा में रोऊंगा नहीं’ (पृष्ठ-219).

मां, पिता, भाई और भाभी की बचपन में दी सीख को ‘देबी’ आज 78 वर्ष की उमर में भी सीने पर लगाये हुए हैं. तभी तो पढ़ना और पढा़ने से उनके जीवन की हर सुबह और शाम गुलजार रहती है. किशोर देवेंद्र सिंह मेवाड़ी ‘अन्वेषक’ आज की तारीख में देवेंद्र मेवाड़ी हैं. देश-दुनिया के प्रतिष्ठित विज्ञान लेखक, साहित्यकार, अध्येयता, घुमक्कड़, प्रशिक्षक और मोटीवेटर. अब तक 30 से अधिक पुस्तकें उनकी प्रकाशित हुई हैं. उत्त्कृष्ट विज्ञान लेखक और साहित्यकार के बतौर कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से उन्हे नवाजा गया है. इन सबसे हटकर एक ऐसा महान व्यक्तित्व जो हर समय हमारे आस-पास ही रहता है जिसके सानिध्य में हम उसके स्नेह से गदगदा- इतरा और पहाड़ी में कहें भभरी जाते हैं.

पर इतना होने के बावजूद भी देबी के पिता (जैसे उनको विश्वास न हो) जिज्ञासावश उनसे आज भी पूछते हैं, हों ‘हं च्यला (बेटा), तुझे अब भी याद है-हम गाय-भैंसों के बागुड़ के साथ पहाड़ से माल-ककोड़ जाते थे, तू भेसानि-धार में पढ़ता था, ईजा ये करती थी, वो करती थी, वह सब याद है तुझे?’

हमारे ‘पहाड़ की पहाड़ जैसी जिन्दगी’ का जीवंत कथानक हैं. जिसमें पूरे पहाड़ की वन्यता का स्पर्श और जनजीवन का स्पंदन है. यह किताब बातपोश बनकर बोलती हुई पाठकों से मुखातिब है. और समझदार बातपोश की तरह पाठक को अपने मोहपाश में बांधे रखती है. किस्सागोई कला की तारतम्यता और दिलचस्पी बनी रहे इसके लिए बीच-बीच में पाठकों से ‘ओं’ बुलाकर ‘हुंगर’ (हाजरी) लगना नहीं भूलती है. 

हां ‘देबी’ को सब कुछ याद है. और ‘देबी’ ही क्यों ? सच्ची बात तो यह है हम सबके मन-मस्तिष्क में बचपन का पहाड़ हर समय गदबदाता और बुदबुदाता रहता है. भूलना भी चाहे तो आदमी की ‘टक’ उसे कहां भूलने देती है. तभी तो देवेंद्र मेवाड़ी जी की किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ जीवन में जो हम छोड़ आये हैं, के किस्से दर किस्से सुनाती जाती है.

पर ये किस्से भर नहीं हैं. हमारे ‘पहाड़ की पहाड़ जैसी जिन्दगी’ का जीवंत कथानक हैं. जिसमें पूरे पहाड़ की वन्यता का स्पर्श और जनजीवन का स्पंदन है. यह किताब बातपोश बनकर बोलती हुई पाठकों से मुखातिब है. और समझदार बातपोश की तरह पाठक को अपने मोहपाश में बांधे रखती है. किस्सागोई कला की तारतम्यता और दिलचस्पी बनी रहे इसके लिए बीच-बीच में पाठकों से ‘ओं’ बुलाकर ‘हुंगर’ (हाजरी) लगना नहीं भूलती है.

सही कहूं, कभी लगता है यह किताब पास बैठी मां है, पिता है, भाई-भाभी हैं, संगी-साथी हैं, शिक्षक हैं या फिर ईष्टदेवी-देवता हैं, जो बार-बार आगाह करते हैं कि देख ‘देबी’ तुझे जीवन में वहां जाना है. हमारा क्या ? हम तो दुनिया से चला-चली की बेला में हैं, पर हम तुझमें हमेशा मौजूद रहेंगे.

पहाड़ी जीवन की विशिष्टता और विकटता के साथ यह किताब ‘देबी’ के बचपन के माध्यम से पूरे पहाड़ की आप-बीती को उजागर करती है. क्योंकि ये केवल ‘देबी’ के बचपन के किस्से क्या हुए, हमारा-आपका बचपन भी तो ऐसा ही तो बीता. बस जरा समय और स्थान का तड़का अलग से हुआ होगा, पहाड़ी जनजीवन का मूल स्वाद तो एक जैसा ही होने वाला हुआ.

आप पढ़ना चाहोगे ‘देबी’ के बचपन के किस्से, चलो कुछ आपकी नज़र पेश हैं-

‘घिनौड़ी (गौरेया) क्यों नहीं जाती ईजा’

‘उसको नहीं लगता होगा जाड़. तू तो बस जड़-कंजड़ पूछता रहता है ! चल, पाटी-दवात निकालकर कुछ लिखता क्यों नहीं ? कहकर काम में लग जाती ईजा’ (पृष्ठ-33).

अब भला, हममें से किसको याद नहीं आया होगा अपना बचपन ? तब मां ही तो थी हमारे लिए दुनिया की सबसे महाज्ञानी.

‘अपने गांव से पहली बार बाहर पैर रखे. आगे-आगे गाय-भैसों का बागुड (झुंड). बागुड़ में सबसे आगे मुखिया भैंस के गले में लटका बड़ा और भारी घांण (घंटा) बीच-बीच में बजता…घन-मन्…घन-मन् ! उसके पीछे दूसरी भैंस और उनकी थोरी-कटिया. फिर ठुल ददा. उनके बाद गाएं और बैल. फिर घोड़ा. उसके पीछे बाज्यू, मैं, ईजा और बड़ी भौजी. घोड़े के खांकर खनकते रहते…खन्-खन्, खन्-खन्…. ज्यों-ज्यों चलते गए-गांव, धूरा, बांज-बुरोंज, अंयार, काफल, रंयाज के पेड़ पीछे छूटते गए. पहले चीड़ के ऊंचे पेड़ आये, फिर शाल के, फिर कई अनजाने पेड़-पौधे…..ईजा के सिर पर कपड़े में बंधी छापरी (टोकरी) में रास्ते में खाने के लिए माष के रोट, कुश्यौल (मीठा चावल), खीर और हलुवा…..मैं जहां थकता या चढ़ाई आ जाती, वहां घोड़े की गून के ऊपर बैठा दिया जाता. मैं घोड़े की गर्दन के लंबे बालों की झूत और पीठ पर कसे सूंड़े को कसकर पकड़ लेता (पृष्ठ-35).

मूल गांव कालाआगर से माल-ककोड़ की जाने की पैदल यात्राओं में पहाड़ और तराई की पारिस्थिकीय विभिन्नता और निर्भरता की समझ ‘देबी’ को ऐसी ही तो हुई होगी.

‘……ले भेट पकड़. दोनों हाथ जोड़कर सिलाम कर. कह, हे भूमिया देवता मेरी ईजा को ठीक कर दो. मैं अस्यान भाऊ छौं. मेरी बिनती सुन लो. हां, कह पोथी….

वे बाज्यू, जिनकी कड़ी नड़क (डांट) से कंपकंपी छूट जाती थी. भभूत का टीका लगाते-लगाते ‘हार्डच’ की आवाज सुनकर बीमार का भूत भाग जाता था. वे बाज्यू चुपचाप रो रहे थे कि कहीं मैं उठ न जाऊं. ईजा थी तो हम इसी खाट पर सोते थे, इधर-इधर बाज्यू और ईजा, बीच में मैं. लेकिन, अब बाज्यू और मैं ही रह गए थे. मैं बाज्यू की सिसकी सुुनकर न्यों (बहाना) लगाकर चुपचाप पड़ा रहा. वे नहीं जान पाए कि मेरी नींद खुल गई है. ऐसा कई बार हुआ’ (पृष्ठ-202).

‘रैट ? त किभै ?’ ( रैट क्या हुआ? )

‘रैट माने चूहा’

‘अच्छा बता धैं, ‘गोरु-बाछ चर रहे हैं’ को कैसे कहेगा अंग्रेजी में ?’

‘इतना अभी सिखाया ही नहीं’

‘पैं कब सिखलै ?’ कहकर वे इधर-उधर या सड़क की दीवाल पर बैठने के लिए निकल जाते.

कई बार इस-उस से मुस्कराकर कह रहे होते ‘अब देबी अंग्रेजी भी पढ़ रहा है. गिट-पिट कुछ बोलता है…. फिर जैसे कहीं खो जाते और उदासी का वही गाना गुनगुनाने लगते-गोपीचंद अमर भए काहै से….’ (पृष्ठ-208).

परिवार में पिता सबसे मजबूत और कड़क माना जाता है, परन्तु उसके मन की छटपटाहट की गूंज उसके अकेलेपन में ही विलीन हो जाती है. ‘देबी’ को बचपन में ही इसका आभास हो गया था.

……………

‘क्यों आया ?’

‘मैं कहां आया ? मुझे तो पता भी नहीं था कि यहां से ये लोग जा रहे हैं. इसी ब्यौले ने याद किया कि यहां तो भूत रहता है. तब मुझे पता लगा. यह डरा और मैं चिपट गया.’

‘तो अब जाता है या मार लगाऊं.’

बचपन में ग्रामीण पहाड़ी जन-जीवन में सुने किस्से, लोक कथायें, फसक, तुकबंदियां, लोरियां, घटनाओं का एक जीता-जागता संसार इस किताब में हैं. मेवाड़ी जी एक कुशल बातपोश की किस्सागोई शैली में उनको मिले बचपन उपदेशों और नसीहतों को बखूबी रेखाकिंत कर जाते हैं.

‘नहीं, महाराज मारो मत. कान पकड़ता हूं. गलती हो गई. मैं जाता हूं. थोड़ा-बहुत चढ़ावा चढ़ा देना मेरे लिए वहीं रौखड़ में…’

दूल्हे के मुंह से इतनी बातें भूत बोल गया, ठैरा ! इससे एक और सीख मिली कि डरना नहीं चाहिए और न फालतू में भूतों को याद करना चाहिए’ (पृष्ठ-68).

बचपन में ग्रामीण पहाड़ी जन-जीवन में सुने किस्से, लोक कथायें, फसक, तुकबंदियां, लोरियां, घटनाओं का एक जीता-जागता संसार इस किताब में हैं. मेवाड़ी जी एक कुशल बातपोश की किस्सागोई शैली में उनको मिले बचपन उपदेशों और नसीहतों को बखूबी रेखाकिंत कर जाते हैं.

बल, इंटर की परीक्षा देते हुए भीमताल में फाळ (कूद) मारने की भी सोची ‘देबी’ ने पर ददा के त्याग की बात जब समझ में आई तो ये कुविचार त्यागने में देरी भी नहीं की. ‘…और, बाहर निकलकर तेजी से नीचे सड़क की ओर भागूंगा और वहां से सीधे ताल में कूद जावूंगा….लेकिन, ददा ? वे छुट्टी लेकर मुझे परीक्षा दिलाने यहां लाए हैं. आगे भी पढ़ाना चाहते हैं. चाहते हैं कि भाई कुछ बन जाए. और मैं ?…धक्-धक, धक्-धक्…मैं जोर से धड़कते अपने दिल की धड़कनें सुन रहा था. मेरे आंसू निकल आए. ताल में कूदने का विचार हटा तो पेपर को एक बार फिर नीचे से ऊपर की ओर देखा’…(पृष्ठ-277).

‘मेरी यादों का पहाड़’ किताब 21 अध्यायों का फैलाव लिए हुई है. जीवन, जगत और जीविका के आपसी रिश्तों का सदभाव और संघर्ष इनमें गुंथा हुआ है. जो इस तथ्य और सच को पुख्ता करते हैं कि ‘जो जीत गया, वो जी गया’. किताब की शुरुवात ही जिम कार्बेट के ‘मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं’ से होती है. ज्ञातव्य है कि 11 अप्रैल, 1930 को देवेंद्र मेवाड़ी जी के कालाआगर गांव के पास ही ‘कार्पेट साब’ ने 64 लोगों को मारने वाले असत्ती ‘श्यूं’ बाघ को मारा था. पिंजरे में बंद शिकार के रूप में ‘हुजुर, मैं भैटन्या छ’ जैसी जंगबहादुर की बहादुरी का रोमांच अपने आप में अनूठा है.

यह किताब लोक शब्द-सम्पदा, लोक ज्ञान-विज्ञान, लोक व्यवहार-रिवाज, लोक संस्कृति और लोक साहित्य का भंडार है. हमारी कुमाऊंनी लोकभाषा की समृद्धि, उसकी हनक, उसकी फसक, उसके तेवर, उसकी अनोखी अदा, उसका शब्द-विन्यास, उसका सौन्दर्य, उसका प्रवाह-प्रभाव, उसके ‘बल’ और ‘ठैरा’ की ताकत का कमाल देखना और समझना हो तो ‘मेरी यादों का पहाड़’ किताब आपको गुदगुदायेगी और गौरव की अनुभूति भी प्रदान करायेगी.

जरा, इस अनोखी अदा वाली एकतरफा बातचीत का आंनद तो आप ले लें-

‘जु छैं हौ इन ? जां जनारीं ?….ले गोरु ?’

वे मुझे ही सुना रहे हैं-जाने कौन हैं ये ? कहां जा  रहे हैं जाने ? लेकिन, मेरी ओर नहीं, अपनी गाय-भैंसों की ओर देखकर कह रहे हैं. कान शायद मेरी ओर ही लगे हैं.

‘कां जान्य छा हो ?…आहिए…ले…कजारा !’

वे तो मुझसे भी बोल रहे हैं और अपनी भैंसों व कजारा बैल से भी ! अब जिससे जो कह रहे हैं, वह समझ ले !

मुझे तो जवाब देना ही पड़ेगा, कहीं बुरा न मान जांए.

‘है, इनत बोलान ले नैं. किलै कां जान्य छा हो ?…ले, चनूली !’

अब चनूली भैंस को भी डांट रहे हैं और मुझे भी सुना रहे हैं. कह रहे हैं-अरे, ये तो बोलते भी नहीं. क्यों कहां जाने वाले हैं हो ?’ (पृष्ठ-9)

‘एक आंखर और’ कहकर देवेंद्र मेवाड़ी जी किताब को विराम देते हैं. ‘ईजू, कथा तो और भी हुई. कहने को तो कम जो क्या हुआ ? मन करता है, कहता रहूं, बस कहता ही रहूं. आप सुनते रहें और ‘ओं’ कहकर हुंगर देते रहें.

आप ही बताइए, बातों का क्या है ? ज़िंदगी की किताब के पन्ने पलटते जाओ और सुनाते जाओ. है कि नहीं ? मैंने भी यही किया.

देवेन्द्र मेवाड़ी जी को उनके विज्ञान लेखों, संस्मरणों और यात्रा वृतांतों से विशेष ख्याति मिली है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ उनके बचपन की धरोहर के रूप में सामने आया है. हाल ही में आधार प्रकाशन से ‘दिल्ली से तुंगनाथ वाया नागनाथ’ यात्रा संस्मरण भी बेहद लोकप्रिय हुआ है. फेसबुक में ‘काफल ट्री’ पेज पर ‘कहो देबी कथा कहो’ संस्मरण ने पाठकों में धूम मचाई है.

आपका यह देबी इंटर के बाद गांव से शहर जाएगा. सुनते हैं वह रात में भी बिजली के उजाले से जगमगाता रहता है. वहीं रहेगा, वहीं पढ़ेगा. पढ़-लिखकर यह भी नौकरी खोजेगा. कहां मिलेगी, नौकरी ? द, कु जानौ ! कहीं भी जाएगा, अपने पहाड़ को कभी नहीं भूलेगा. ईजू, जिसके परान (प्राण) पहाड़ में ही अटके हों, वह कहीं भुला सकता है अपने पहाड़ को ? मन-पंछी तो उड़ान भरता ही रहेगा अपने पहाड़ की ओर. अपने छूटे घर-घोंसले की ओर. वैसे ही जैसे हर साल गर्मियों में मल्या (स्नो पिजन) लौटकर आते हैं, दूर देस से अपने घौंसलों की ओर.

आज बस यहीं तक.

मेरी यादों के पहाड़ की यहां तक की कथा आपने पढ़ी, कान लगाकर सुनी और हुंकारी भरी. तो, ईजू खूब जी रया, भाल् ह्वै रया, फिरि मिलुल (जीतें रहे, कुशल-मंगल बनी रहे, फिर मिलेंगे)…….(पृष्ठ-284).

देवेन्द्र मेवाड़ी जी को उनके विज्ञान लेखों, संस्मरणों और यात्रा वृतांतों से विशेष ख्याति मिली है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ उनके बचपन की धरोहर के रूप में सामने आया है. हाल ही में आधार प्रकाशन से ‘दिल्ली से तुंगनाथ वाया नागनाथ’ यात्रा संस्मरण भी बेहद लोकप्रिय हुआ है. फेसबुक में ‘काफल ट्री’ पेज पर ‘कहो देबी कथा कहो’ संस्मरण ने पाठकों में धूम मचाई है.

मेवाड़ी जी के शुरुवाती लेखन के दौरान ‘मेरी यादों का पहाड़’ नैनीताल समाचार में 3 किस्तों में छपा. फिर उसी में 3 दशक बाद ‘मेरा गांवः मेरे लोग’ शीर्षक के तहत 30 किस्तें छपी. नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया से वर्ष-2013 में प्रकाशित यह किताब उसके सर्वाधिक बिकनी वाली किताबों में शामिल है.

स्कूल-कालेज में जो विज्ञान पढ़ा था वह जीवन में कब-कहां याद रहा मालूम नहीं परन्तु देवेन्द्र मेवाड़ी के रचित विज्ञान साहित्य ने एक व्यवहारिक और वैज्ञानिक समझ से किशोरावस्था में दोस्ती जो कराई वो अभी तक कायम है. जिंदादिल, जिम्मेदार और जानकार व्यक्तित्व में किस्सागोई की गज़ब की प्रतिभा ने उनको सामाजिक दायित्वशीलता को निभाने में मदद की है.

वाकई, यह किताब देवेंद्र मेवाड़ी जी के बचपन की यादों के दायरे से कहीं आगे बीसवीं सदी के उत्तराखंड की कथा-व्यथा को उदघाटित करती है. आज के युवा उस समय के पहाड़ और उसके वाशिंदों की धड़कन को सुने-समझे इसके लिए यह किताब उत्तराखंड के पुस्तकालयों, विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में उपलब्ध हो तो कितना अच्छा हो. नीति नियंता इस किताब को पढ़े तो उनकी पहाड़ के प्रति बनी समझ में कुछ सुधार और संवेदनशीलता का भाव बढ़े.

मैंने देवेन्द्र मेवाड़ी को अस्सी के दशक से पढ़ना शुरू किया था. जीवन में विज्ञान की जो कुछ भी समझ बनी उसमें देवेन्द्र मेवाड़ी जी के विज्ञान लेखों का महत्वपूर्ण योगदान है. स्कूल-कालेज में जो विज्ञान पढ़ा था वह जीवन में कब-कहां याद रहा मालूम नहीं परन्तु देवेन्द्र मेवाड़ी के रचित विज्ञान साहित्य ने एक व्यवहारिक और वैज्ञानिक समझ से किशोरावस्था में दोस्ती जो कराई वो अभी तक कायम है. जिंदादिल, जिम्मेदार और जानकार व्यक्तित्व में किस्सागोई की गज़ब की प्रतिभा ने उनको सामाजिक दायित्वशीलता को निभाने में मदद की है. वे अपने जीवनीय ज्ञान, हुनर और अनुभवों को देश-दुनिया के दूर-दराज के इलाकों और स्कूल-कालेजों में जाकर हजारों बच्चों और युवाओं को सुना चुके हैं और 78 वर्ष की उम्र में भी यह सिलसिला अनवरत जारी है और जारी रहेगा.

(लेखक एवं प्रशिक्षक, चामी गांव (असवालस्यूं) पौड़ी (गढ़वाल))

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here