बैराट खाई: जहां आज भी हैं राजा विराट के महल का खंडहर

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मत्स्य देश

यहां पांडवों ने बिताया था एक वर्ष का अज्ञातवास

  • स्व. राजेंद्र सिंह राणा नयन

देहरादून जिले के पर्वतीय क्षेत्र जौनसार परगने में बैराट खाई नामक एक स्थान है। यह स्थान मसूरी-चकराता मार्ग पर मसूरी से 50 किमी., चकराता से 23 किमी. तथा हल्के वाहन मार्ग पर हरिपुर-कालसी से 30 किमी. की दूरी पर है। मसूरी-चकराता अथवा विकासनगर-लखवाड़ -चकराता मार्ग पर नियमित बस सेवा लखवाड़ से आगे नहीं है। मात्र इक्का-दुक्का जीपों या हल्के वाहन हरिपुर-कालसी होकर अथवा चकराता की ओर से चलते हैं। पर्यटकों को निजी अथवा टैक्सी आदि से जाना सुविधाजनक है। ठहरने और रात्रिविश्राम हेतु नागथात ही उपयुक्त स्थान है।

बैराट खाई – नागथात से 4 किमी. आगे दोनों ओर बांज, बुराश आदि के सघन वन के मध्य से होते हुए एक सुरम्य घाटी में बैराट खाई नामक यह स्थान एक चतुष्पथ पर स्थित है। मसूरी-चकराता मार्ग से एक मार्ग हरिपुर-विकासनगर की ओर तथा एक मोटर मार्ग सिंगोर गांव की ओर चला गया है। यहां से विराट गढ़ ठीक ऊपर पश्चिमोत्तर में दृष्टिगोचर होता है। इस स्थान से गढ़ तक कोई वन नहीं है। प्राचीन किले के बाहर जो खाइयों के घेरे खुदे हुए हैं उन्हीं में से संभवत: तीसरे घेरे की खाई पर यह स्थान स्थित है। तभी इस स्थान का नाम बैराट खाई पड़ा होगा। विकासनगर की ओर जाने वाले मार्ग पर तीन-चार मकान बने हैं जिनमें दुकान तथा चाय का स्टाल भी एक है।

यहां से चकराता जाने वाले मोटर मार्ग पर 2 किमी. आगे जाकर दाहिनी ओर पैदल लगभग 2 किमी. ऊपर जाकर किले के पास पहुंचा जा सकता है। ऊपर जाने हेतु कोई मार्ग नहीं बना है, मात्र पर्वत शिखर को देखते हुए चढ़ना पड़ता है। हजारों वर्षों से हिम, ओले, वर्षा, तूफान, भूकंप एवं भूस्खलन की मार झेलते रहने पर भी किले की चहारदीवारी के चिह्न दीख पड़ते हैं जो बीच-बीच में अपने अस्तित्व को बचाए हुए तथा अधिकांश पत्थरों के ढेरों के रूप में परिवर्तित हो गए हैं एवं बाहर की खाइयां कहीं-कहीं मिट्टी से पट चुकीं या वर्षा आदि से बह गई हैं। किले के उत्तर-पूर्वी द्वार के बाहर भवन का बुनियादी खंडहर, किले के भीतर भी ऐसे ही खंडहरों के ध्वंसावशेष, पक्की ईटों के खंड इधर-उधर गढ़ की गिरी दीवारों के मध्य पाए जाते हैं। मध्य में पक्की ईंटों द्वारा चूने जैसे किसी भूरे रंग के मिश्रण से निर्मित एक कुआं है जो लगभग डेढ़ मीटर व्यास वाला है और एक मीटर गहराई को छोड़कर नीचे बड़े और चपटे पत्थरों से आच्छादित है। ईंटों की नाप 16 x 11 x 4 सेमी है। कहते हैं, यह कुआं नहीं, सुरंग है जो यमुना के तट तक जाती है। सड़कों के बनने एवं भूस्खलन से सुरंग दो स्थनों पर खुली हुई है। एक बैराट खाई से सिंगोर गांव जाने वाले मार्ग से ऊपर और दूसरा स्थान बैंड से लगभग एक किमी. आगे चकराता मार्ग के दाहिने पहाड़ के कटाव पर। स्थानीय पथ-प्रदर्शक की सहायता से उनके अंदर प्रवेश भी किया जा सकता है।

कुछ विद्वान वर्तमान हरियाणा-पंजाब के मैदानी क्षेत्र से राजस्थान के उत्तरी भाग तक मत्स्य देश बताते हैं। महाभारत, सभापर्व के अनुसार सहदेव दक्षिण देशों की विजय यात्रा पर गए थे और राजा विराट ने उनकी अधीनता स्वीकारी थी।

गढ़ पर उपलब्ध पुरातात्विक सामग्री देख कर एवं चारों ओर दूर-दूर तक दृष्टिगत होने वाले प्राकृतिक दृश्यों का अवलोकन करने पर दर्शक भावविभोर हो प्रसन्नता का अनुभव करने लगता है। उत्तर से उत्तर-पूर्व तक हिमाचल प्रदेश तथा गढ़वाल-हिमालय की हिमाच्छादित गगनचुंबी शिखरावली का दृश्य अत्यंत चित्ताकर्षक है। पूर्व की ओर नागटीवा (3,048 मी.) तथा मसूरी स्पष्टत: निकट ही दिखाई देते हैं। उत्तर-पश्चिम में चकराता बीच में पर्वत होने से दिखाई नहीं देता है। मात्र पर्वत शिखर पर ही श्रीगुल देवता का मंदिर दिखाई देता है। बादल तथा कोहरा नहीं हो तो दक्षिण में दूर-दूर तक मैदानों की छटा का भी आनंद लिया जा सकता है। यह स्थान लगभग 2400 मीटर की ऊंचाई पर है। ऐसे ही अन्य स्थानों की तरह यहां से भी प्राचीन ईंटें तथा पत्थर बड़ी मात्रा में उठा लिए गए हैं। एक दिन खाइयां ही मात्र शेष रह जाएंगी

महाभारत के आदि पर्व के अनुसार पांडु ने वानप्रस्थ लेकर राज्यभार धृतराष्ट्र को सौंपकर अपनी दोनों रानियों-कुंती और माद्री सहित इसी मार्ग से होकर गंधमादन पर्वत की ओर सप्तशृंग पर्वत के पादतल-पांडुकेश्वर में जाकर अपना आश्रम बनाया था। महाभारत में नागथात को ‘नागशंत’ बताया गया है।

 

नागथात – यह ग्रामीण बाजार अत्यंत रमणीक स्थान पर बसा हुआ है। नाग देवता का स्थान होने से संभवत: इस स्थान का नामकरण हुआ हो। कुछ इतिहासकारों के अनुसार, यहां कभी नागवंशीय नरेशों की राजधानी थी। कहते हैं, अशोक ने इसी राज्य की सीमा पर अपने अभिलेख खुदवाए थे। महाभारत के आदि पर्व के अनुसार पांडु ने वानप्रस्थ लेकर राज्यभार धृतराष्ट्र को सौंपकर अपनी दोनों रानियों-कुंती और माद्री सहित इसी मार्ग से होकर गंधमादन पर्वत की ओर सप्तशृंग पर्वत के पादतल-पांडुकेश्वर में जाकर अपना आश्रम बनाया था। महाभारत में नागथात को ‘नागशंत’ बताया गया है। ब्रह्मपुर के पौरव नरेशों का नाग आराध्य देव था। नाग देवता के इस क्षेत्र में यमुना के दोनों तटों पर अनेक प्राचीन मंदिर और स्थल हैं, जहां प्रतिवर्ष मेले लगते हैं, क्षेत्र में नाग पूजा का व्यापक प्रचलन है।

नागथात में कुछ दुकानें, होटल तथा लॉज आदि होने से आवासीय सुविधाएं उपलब्ध हैं। बाजार के मध्य में सुंदर क्रीड़ा प्रांगण है। यहां राजकीय इंटर कॉलेज एवं स्वास्थ्य केंद्र भी है। संपर्क मार्ग से यह स्थान अनेक निकटतर्वी ग्रामों से जुड़ा हुआ है। इस स्थान की ऊंचाई लगभग 1800 मीटर होगी।

मत्स्य देश का राजा था विराट 

पुराणों के अनुसार- प्राय: पुराणों में वर्णन है कि मनु द्वारा पोषित मछली ने उन्हें सचेत किया था कि महाप्रलय काल उपस्थित होने वाला है। स्वयं ब्रह्मा ने मत्स्य रूप में वेदों की रक्षा हेतु मनु सहित सप्तर्षियों की नाव को हिमालय के उन्नत शिखर तक पहुंचाया था। उसी को मत्स्य देश कहा गया। मूलत: राजा विराट इसी पर्वतीय मत्स्य देश के राजा थे। और विराटनगर उस देश की राजधानी थी। इस संबंध में ‘मत्स्य पुराण’ में विस्तृत वर्णन है।

पं. हरिकृष्ण रतूड़ी के अनुसार- ‘राजा विराटा का राज्य, जिसकी राजधानी बैराट गढ़ या गढ़ी के नाम से परगरना जौनसार-बावर में कालसी कस्बे के ऊपर अब तक टूटी-फूटी अवस्था में पाई जाती है। यही विराट राजा था, जिसके यहां पांडवों ने गुप्तवास किया था

इतिहासकारों के अनुसार – कुछ विद्वान वर्तमान हरियाणा-पंजाब के मैदानी क्षेत्र से राजस्थान के उत्तरी भाग तक मत्स्य देश बताते हैं। महाभारत, सभापर्व के अनुसार सहदेव दक्षिण देशों की विजय यात्रा पर गए थे और राजा विराट ने उनकी अधीनता स्वीकारी थी। वास्तव में इंद्रप्रस्थ के दक्षिण में उनका विजित देश था। उस काल उधर रहे होंगे तो सहदेव से उन्होंने संधि कर ली होगी। विराटपर्व अध्याय-16 के श्लोक 51 से आगे दाक्षिणात्य अधिक पाठ के अनुसार मत्स्य देशीय विराट नगर था।

मत्स्य नरेश विराट द्वारा विजित देश-

 मेखलांश्च त्रिगणर्तांश्च दशार्णांश्च कशेरुकान्।
मालवान् यशवांश्चैव पुलिन्दान् काशिकोसलान्।। 

तथा अन्यान्य भी विजित देशों का वर्णन आया है।

मत्स्य देश निश्चय ही हिमालयीय क्षेत्र में था। भले ही मत्स्य नरेश विराट का राज्य राजस्थान के उत्तर तक रहा हो। कुछ विद्वानों ने कुरु और उत्तर कुरु देश की तरह मत्स्य और वीरमत्स्य जनपदों का नामोल्लेख किया गया है। रायचौधरी के मतानुसार, डॉ. डबराल भी लिखते हैं- ‘समुद्रगामी सरस्वती के पूर्व में, कुरुक्षेत्र के दक्षिण में वर्तमान राजस्थान के उत्तरी भाग पर मत्स्य जनपद फैला था। उत्तर वीरमत्स्य जनपद की पहचान अनिश्चित है’ (कुलिंद जन. का प्रा. इति.- 1 पृ. 15)। संभवत: मध्य हिमालय में स्थित इस मत्स्य देश को ही वीरमत्स्य जनपद भी कहा जाता रहा हो। अज्ञातवास भी हिमालयी क्षेत्र में हुआ था। महाभारत के अनेक स्थल इसकी पुष्टि करते हैं।

अज्ञातवास में जाने से पूर्व भीम ने कहा था कि वे कोई ऐसा देश या स्थान नहीं देखते जहां दुरात्मा दुर्योधन अपने गुप्तचरों द्वारा उनका पता न लगा सके। ऐसी स्थिति में कुरुदेश के पड़ोस में पांडवों का गुप्त रहना संभव नहीं लगता। पं. हरिकृष्ण रतूड़ी के अनुसार- ‘राजा विराटा का राज्य, जिसकी राजधानी बैराट गढ़ या गढ़ी के नाम से परगरना जौनसार-बावर में कालसी कस्बे के ऊपर अब तक टूटी-फूटी अवस्था में पाई जाती है। यही विराट राजा था, जिसके यहां पांडवों ने गुप्तवास किया था और जिसकी लड़की उत्तरा से अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु का विवाह हुआ था तथा जिससे आगे पांडव वंश चला था। राजा विराट की सहस्रों गायें थीं, जिनको कौरव चुरा ले गए थे और जिनको अर्जुन ने छुड़ाया था। उस काल देहरादून, जौनसार-बावर, सिरमौर और गढ़वाल का पश्चिमी भाग कुछ न कुछ उसके राज्य में अवश्य शामिल रहा होगा’ (गढ़वाल का इतिहास, प्रथम संस्करण 1928 अ. 16 पृ. 203)।

भौगोलिक स्थिति – मत्स्य देश के विराट नगर के संबंध में विराट पर्व के अनुसार पांडव गुप्तवास में रहने हेतु बारह वर्ष का वनवास काल समाप्त कर द्वैतवन से पैदल चलते-चलते यमुना नदी के समीप जा पहुंचे। वहां से वे यमुना के दाहिने किनारे से होते हुए पैदल ही चलने लगे। वे वीर (उत्तर की ओर) पर्वतों और वनों के दुर्गम प्रदेशों में डेरा डालते और हिंसक पशुओं को मारते हुए यात्रा कर रहे थे। इस प्रकार वे मत्स्य राष्ट्र के जनपद में प्रविष्ट हुए। द्रोपदी युधिष्ठिर से कहने लगी कि यहां अनेक प्रकार के (ऊंचे-नीचे) खेत और पगडंडियां दिखाई देती हैं। ऐसा जान पड़ता है कि राजा विराट की राजधानी अभी दूर होगी। उन्होंने अपने को थका हुआ बताया और एक रात वहीं निवास करने हेतु आग्रह किया (महाभारत, विराट पर्व, 5/2-4)। युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा, द्रोपदी को कंधे पर उठाकर ले चलो। इस वन से निकलकर हम राजधानी में ही निवास करेंगे।

उन्होंने श्मशान भूमि के निकट एक टीले पर स्थित बहुत बड़े शीशम के वृक्ष के खोखलों में, जो रास्ते से दूर जंगल में निर्जन स्थान था, अपने अस्त्र-शास्त्रों को छिपा दिया। यह स्थान यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर कटा पत्थर – जुड्डू के मध्य ‘हथियारी’ नाम से आज भी प्रसिद्ध है। लखवाड़ बांध का विद्युत-उत्पादन गृह यहीं हथियारी में निर्मित किया जा रहा है। चढ़ाई वाला मार्ग होने से अर्जुन ने द्रोपदी को कंधे पर उठाकर नगर के समीप पहुंचने पर ही नीचे उतारा।

विराट नगर के ध्वंसावशेषों की उत्तर दिशा में आज भी जो ऊंचा टीला है, वहां से अर्जुन राजा विराट के पास पहुंचे थे। विराट पर्व, 11/1-2 के अनुसार- ‘तदनंतर नगर की चहारदीवारी के पीछे जो मिट्टी का ऊंचा टीला था, उसके समीप रूप-संपदा से सुशोभित एक दूसरा पुरुष, जिसका डील-डौल ऊंचा था, उसने स्त्रियों के लिए उचित आभूषण पहन रखे थे। अपने केशों की लटों को खोले और हाथों तक फैलाए, हाथी सी मस्तानी चाल से चलता हुआ मानो पृथ्वी को कंपता हुआ राजसभा के समीप राजा विराट के पास आकर खड़ा हुआ।’

एक अन्य संदर्भ के अनुसार भी पांडवों के इस क्षेत्र में पहले रहने की पुष्टि होती है कि वे इस पर्वतीय एवं सघन वनों से आच्छादित क्षेत्र से पूर्व परिचित थे तभी गुप्तवास में आने से पूर्व युधिष्ठिर भीम को स्मरण कराते हुए कहते हैं-

हिडिम्बं च महावीर्ये किर्मीरं चैव राक्षसम्।
त्वा हत्वा महाबाहो वनं निष्कण्टकं कृतम्।।

अन्य भी

वक राक्षसराजानं भीषणं पुरुषादकम्।
जघ्निवानसि कौन्तेय ब्राह्मणार्थमरिदम्।।
क्षेमा च भयसंवीता ह्येकचक्रा त्वया कृता।
 (महाभारत, विराट पर्व, अ. 2, श्लोक 27 और 28 के मध्य दाक्षिणात्य अधिक पाठ से)।  

हिडिंब तथा वकासुर मारने, एकचक्रानगरी में रहने संबंधी विवरण लाखामंडल अध्याय में दिया जा रहा है।

पौराणिक मत्स्य देश तथा विराटा नगर उत्तर में मध्य हिमालयी क्षेत्र में ही थे और विजित देशों में से राजस्थान का उत्तरवर्ती वह प्रदेश भी था जिसके अंतर्गत ‘उपप्लव्य नगर’ था तथा अज्ञातवास की अवधि समाप्त होने के अनंतर जहां पांडव चले गए थे। विराट पर्व के अनुसार- पांचों पांडवों का तेरहवां वर्ष तो पूर्ण हो ही चुका था, वे सबके सब राजा विराट के उपप्लव्य नगर में रहने लगे (महाभारत विराट पर्व, 72/14)

पांडवों के उपर्युक्त नगर में आने के संबंध में धृतराष्ट्र भी कहते हैं – ‘संजय! लोग कहते हैं कि पांडव (विराट नगर से) उपप्लव्य नामक नगर में आ गए हैं। तुम वहां जाकर उनका समाचार जानो (महाभारत, उद्योग पर्व 8/25)। इसी नगर के समीप पांडव पक्षीय सात अक्षौणी सेना का शिविर लगा था।

महाभारत के निम्नांकित स्थलों के वर्णनों के अनुसार मत्स्य देश उत्तर में था- कर्ण कहते हैं –

  1. (उत्तर में) मत्स्य से लेकर कुरु और पांचाल देश तक (पूर्व में) नैमिषारण्य से चेदि देश तक जो लोग निवास करते हैं, वे सभी श्रेष्ठ एवं साधु पुरुष हैं (महाभारत, कर्ण पर्व, 45/16)।
  2. मत्स्य देश के राजा विराट मूलत: पर्वतीय नरेश थे जो महाभारत युद्ध में सम्मिलित होने के लिए अन्य पर्वतीय राजाओं सहित पांडवों की सहायतार्थ प्रस्तुत हुए थे। यथा –
    तथैव राजा मत्स्यानां विराटो वाहिनी पति:
    पर्वतीयैर्महीपालै: सहित: पांडवानियात्।।                   (महाभारत, उद्योग पर्व, 19/12)।
  3. दुर्योधन कहते हैं – ‘हम लोग मत्स्य देश की उत्तरगोष्ठ की खोज करते हुए यहां आए और मत्स्यदेशीय सैनिकों के साथ ही युद्ध करना चाहते थे। इस दशा में भी यदि अर्जुन हम से युद्ध करने आया है तो किसका अपराध कर रहे हैं’ (महाभारत, विराट पर्व, 47/8)। उसके अनुसार, अज्ञातवास पूर्ण होने से पूर्व अर्जुन पहचाना गया है। राजा विराट की जिस स्थान पर गौशालाएं थीं, आज वहां ‘गौथान’ नामक ग्राम बसा है। पहले दिन सूर्यास्त से पूर्व त्रिगर्त (वर्तमान कांगड़ा) नरेश सुशर्मा ने जो गायें चुराई थीं, वह उन्हें आमलांबा नदी की ओर से ले गया तथा दूसरी सुबह कौरवों ने जिन शेष गायों का अपहरण किया था, उन्हें वे यमुना तटवर्ती हथियारी, जहां पांडवों के द्वारा अपने अस्त्र-शस्त्र छिपा रखे थे, के निकट बौसान नामक स्थान से ले आए थे। यही कारण था कि दोनों नदियों के मध्य ऊंचा पर्वत होने से त्रिगर्तों तथा कौरवों को एक-दूसरे की गतिविधियों का पता नहीं चल पाया।

कुणिंद नरेश सुबाहु तथा राजा विराट समकालीन तथा पड़ोसी थे। प्रतीत होता है कि उनके आपसी संबंध मित्रतापूर्ण थे। वनवास काल में पांडव हरिद्वार से चल कर सुबाहु की राजधानी में आकर ठहरे थे। उनके पुत्रों ने महाभारत युद्ध में पांडव पक्ष की ओर से शौर्यपूर्ण युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त की थी। 

कुणिंद नरेश सुबाहु तथा राजा विराट समकालीन तथा पड़ोसी थे। प्रतीत होता है कि उनके आपसी संबंध मित्रतापूर्ण थे। वनवास काल में पांडव हरिद्वार से चल कर सुबाहु की राजधानी में आकर ठहरे थे। उनके पुत्रों ने महाभारत युद्ध में पांडव पक्ष की ओर से शौर्यपूर्ण युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त की थी। वैसे तो उक्त युद्ध में जो-जो भी सम्मिलित हुए थे, उनमें पांच पांडवों तथा तीन कौरवों पक्ष के लोगों के अतिरिक्त कोई जीवित नहीं बचा था, किंतु पांचाल नरेश दु्रपद एवं मत्स्य नरेश विराट पांडवों के घनिष्ट संबंधी होने से दोनों कुलों का सर्वथा विनाश हुआ था। स्वयं राजा विराट, उनके दस भाई, तीनों पुत्रों- शंख, श्वेत तथा उत्तर ने उक्त युद्ध में अपने प्राणों की बाजी लगा दी थी।

ऐतिहासिक काल में राजा विराट से संबंधित राष्ट्र के कुछ भाग पर संभवत: यौधेय जनपद गठित हुआ।

डॉ. डबराल के अनुसार- ‘पूर्वी पंजाब, हरियाणा एवं राजस्थान के कुछ भाग पर यौधेय जनपद था। त्रिगर्त और यौधेय जनपदों की मध्यवर्ती सीमा पर सतलुज बहती थी’ (कुलिंद जनपद का इति., पृ. 29)।

मध्य हिमालय के जिस भू-भाग पर मनु की नाव को उतारा गया, उसी को मत्स्य देश कहा गया। मत्स्य के पर्याय मीन शब्द के कारण इसी को मैनाक पर्वत भी कहा गया। बाल्मीकि रामायण किष्किंधा कांड-सर्ग 43 एवं महाभारत, श्लोक 29-30 के अनुसार- मैनाक पर्वत की स्थिति का वर्णन ‘औंचगिरि को लांघकर आगे बढ़ने पर मैनाक पर्वत मिलेगा। वहां मय दानव का घर है जिसे उसने स्वयं ही अपने लिए बनाया है।’ महाभारत, वन पर्व, 9/11 के अनुसार- ‘वहां पुण्यसरोवर, विख्यात मैनाक पर्वत और प्रचुर फल-मूलों से संपन्न असित नामक पर्वत है।’ बिंदुसर नामक पुण्यसरोवर के तट पर इसी मैनाक पर्वत की एक गुफा में स्कंद का जन्म होने से उसका नाम एक ‘गुह’ भी है। महाभारत तथा पुराणों में मैनाक पर्वत का अनेक स्थलों में वर्णन है। यमुना तथा तमसा नदियों का मध्यवर्ती यह पर्वत हरिपुर से श्वेत पर्वत-बंदरपूंछ के एक शिखर केदारकांठे तक चला गया है।

गोरखालियों के अत्याचारों से पीड़ित जौनसार की जनता ने विद्रोह कर दिया। विराट गढ़ी पर खाद्य सामग्री पहुंचाना बंद करने के अतिरिक्त उन्होंने कंपनी के समर्थन की भी प्रत्यक्ष रूप से घोषणा कर दी। फलत: गोरखाली सैनिक विवश होकर विराट गढ़ी को खाली कर पश्चिम की ओर चले गए। पश्चात कंपनी सेना ने विराट गढ़ी पर 14 दिसंबर 1814 को अपने अधिकार की घोषणा कर दी।

गोरखालियों द्वारा अठारहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में जब कुमाऊं, गढ़वाल तथा वर्तमान हिमाचल की रियासतों- सतलुज नदी तट तक अपना प्रभाव स्थापित किया गया था, तब उन्होंने अन्य गढ़ों की तरह विराट गढ़ पर भी अपना सैनिक शिविर स्थापित कर दिया। उसका जौनसार-बाबर, देवगार वाला क्षेत्र सिरमौर रियासत के अंतर्गत था। वर्ष 1814 को गोरखालियों को निकाल बाहर करने और गढ़वाल नरेश की सहायता हेतु ब्रिटिश कंपनी की सेना का एक दल देहरादून कस्बे में पहुंचा तो गोरखाली सैनिक भागकर नालापानी के शिविर में चले गए। उसी क्रम में 20 अक्टूबर, 1814 को ले. कर्नल कार्पेंटर के नेतृत्व में एक सैनिक दल हरिपुर तक पहुंचा। उसे पता चला कि वहां जो गोरखाली सैनिक थे वे भाग कर उत्तर की ओर विराट गढ़ पर चले गए हैं। देहरादून से 24 अक्टूबर को मेजर जनरल जिलेप्सी यमुना तटवर्ती गोरखालियों की गतिविधियों को जानने हेतु इस क्षेत्र में आया था। वह विराट गढ़ी को अत्यंत दुर्गम तथा दुर्जेय मान अन्य ठिकानों की ओर पहले ध्यान देने का निश्चय कर, वापस चला गया।

इस बीच गोरखालियों के अत्याचारों से पीड़ित जौनसार की जनता ने विद्रोह कर दिया। विराट गढ़ी पर खाद्य सामग्री पहुंचाना बंद करने के अतिरिक्त उन्होंने कंपनी के समर्थन की भी प्रत्यक्ष रूप से घोषणा कर दी। फलत: गोरखाली सैनिक विवश होकर विराट गढ़ी को खाली कर पश्चिम की ओर चले गए। पश्चात कंपनी सेना ने विराट गढ़ी पर 14 दिसंबर 1814 को अपने अधिकार की घोषणा कर दी। उपर्युक्त कथन की पुष्टि डॉ. डाबराल के ग्रंथ गोरख्याणी-2, पृ. 70 एवं 89 से होती है।

पांडवों को मारने के लिए दुर्योधन ने लाक्षागृह बनवाया था लाखामंडल में!

इस पावन स्थान पर प्रकृति ने अनुपम संयोग बनाया है। तभी केदारखंड नामक ग्रंथ में ‘श्री गंगादशधारणां’ नामक शीर्षक में वर्णित किया गया है। यहां यमुना के दाहिने तट पर उत्तर में ऋषिनाला और दक्षिण में गोठाड़गाड़ (गोमती) संगम बनाती है और इन्हीं के मध्य लाखामंडल स्थित है। सामने बाएं तट पर बर्नीगाड़ में वरुण नदी और उसके दक्षिण में पहाड़ से गंगा की पवित्र धारा निकल यमुना में संगम बना रही है। तभी उस स्थान को गंगाणी कहा जाता है। पुराणों के अनुसार शेषनाग द्वारा लाई गई यह धारा मंदाकिनी नाम से बताई गई है। स्थानीयजन अर्जुन द्वारा बाण के प्रहार से उत्पन्न इस धारा को ‘बाणगंगा’ भी कहते हैं। यहां यमुना-वरुण-गंगा संगम पर बीच धारा में एक पर्वतकार देव स्थित है। इसे शिव कहें या नारायण। महाभारत के आदि पर्व में इस स्थान को ‘वरणावत’ नगर नाम दिया गया है।

कहा गया है कि दुर्योधन ने पांडवों को जला डालने के लिए ज्वलनशील लाख-राल आदि पदार्थों से ‘लाक्षामहल’ बनवाया था। कहा जाता है कि प्राचीन काल में इस स्थान का इतना धार्मिक महत्व था कि यहां लाखों मंदिर होने से इसका नाम लाखामंडल पड़ा। ऐतिहासिक दृष्टि से इसे कुणिंद जनपद का एक मंडल भी बताया गया है। वर्तमान में यहां जो राजस्व ग्राम है, वह महल का तद्भव रूप बनकर ‘महड़’ नाम वाला है। इस स्थान का प्राचीन नाम कार्तिकेय का जन्म स्थल होने से कर्तृपुर या कार्तिकेयपुर भी रहा। स्कंद का एक नाम सुब्रह्मण्यम् भी है, इस कारण इसे ब्रह्मपुर भी कहा जाता रहा होगा।

देहरादून जिले की चकराता तहसील के जौनसार परगने में यह1095 मीटर की ऊंचाई पर स्थित अपनी नैसर्गिक छटा, प्रागैतिहासिकता, धार्मिकता, सांस्कृतिक महत्व के अतिरिक्त उत्कृष्ट वास्तुशिल्प के कारण आज भी राज्य में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। इसी स्थान से यमुना के दाहिने तट ऋषिगंगा की सीमा से जौनसार और बाएं तट वरुण की सीमा से जौनपुर नामक परगने यमुना के बहाव की ओर क्रमश: हरिपुर और मसूरी तक चले गए हैं। उत्तर की ओर यहां से यमुना के दोनों तटों पर यमुनोत्री-बंदरपूंछ तक रवाँई परगना चला गया है।

यमुनोत्री जाने वाले मार्ग पर बर्नीगाड़ देहरादून से मसूरी होकर 107 किमी. और विकासनगर से होकर आने में 122 किमी. तथा बर्नीगाड़ से यमुना पर बने पुल के उस पार चकराता जाने वाले मोटर मार्ग पर 5 किमी. पर लाखामंडल स्थित है। यहां उत्कृष्ट कोटि की मूर्तियां तथा प्राप्त अभिलेख आदि स्वंत्रतता प्राप्ति के कुछ वर्षों पश्चात से पुरातत्व विभाग के संरक्षण में हैं।

संप्रति एक ही मंदिर, जिसे ईश्वरा द्वारा र्नििमत बताया जाता है और जिसके सामने एक अन्य कक्ष तथा बरामदा जो पश्चात के निर्मित हैं, में भग्न मंदिरों की मूर्तियां रखी हुई हैं। इसी के उत्तर में बाहर वृहद शिवलिंग एक चबूतरे पर धूप, वर्षा, हिम, ओला आदि सहते हुए स्थित है। उसी के आगे कुछ दूरी पर राजकीय संग्रहालय और उससे भी उत्तर में लगभग 150 मीटर दूरी पर वह चमकता हुआ शिवलिंग है जो सन 1962-63 में खेत को समतल करते हुए निकला था। उसकी अगल-बगल व पीछे तीनों ओर प्राचीन दीवारें करीब 2 मीटर ऊंचाई तक अब भी शेष हैं और सामने पूरब की दीवार खुदाई के समय ही टूट गई थी। छत नहीं होने से क्षतिग्रस्त होना स्वाभाविक है।

दो बड़े शिवलिंग, जिनमें से एक को केदार लिंग और दूसरे को युधिष्ठिर लिंग कहा जाता है, स्थित मंदिर के बरामदे की दक्षिणी दीवार के पास प्रांगण में रखे हुए हैं और उन्हें वहीं पूजा जाता है। मंदिर के अंतरंग कक्ष में जलेरी पर स्थित शिवलिंग के अतिरिक्त कुछ सुंदर चमकदार छोटे-बड़े लिंग रखे हुए देखे।

गर्भगृह में स्थित शिवलिंग लगभग 30 सेमी से कम परिधि का तथा 15 सेमी. जलेरी से ऊपर होगा। इससे बड़े केदार लिंग और युधिष्ठिर लिंग बाहर प्रांगण में हैं तथा इस स्थान पर दोनों अन्य लिंगों से बड़े तथा चमकीले  लकुलीस किस्म के हैं। परिधि में वृत्ताकार रेखाएं होना ऐसे शिवलिंग की विशेषता होती है तथा ये प्राचीनतम माने जाते हैं। धार्मिक महत्व की दृष्टि से सभी देवताओं की मूर्तियां उपलब्ध होने से ‘पंचदेवोस्थान’ है। यह शैव, शाक्त, वैष्णव, सौर, गाणपत्य, स्कंद सभी संप्रदायों का तीर्थ है।

समीपवर्ती धार्मिक स्थल

यमुना के वाम तटवर्ती नागटीबा के अतिरिक्त नाग देवता के विरोड़ गांव, उसके ऊपर पर्वत शिखर पर नाग देवता के स्थान को भी नागथात ही कहते हैं। उस गांव के गौड़ ब्राह्मण इसके पूजक हैं। ब्रह्मपुर के पौरव नरेशों के आराध्यदेव वीरणेश्वर स्वामी का यह स्थान संभव हो सकता है। इसी क्षेत्र में नैनबाग से पूर्व में भुगधार नामक पर्वत शिखर पर ‘भद्रराज’ का मंदिर है। यमुना के दोनों ओर के तटों के लोगों में इस देव की बड़ी मान्यता है। लोग ‘नागराज’ रूप में श्रीकृष्ण मानकर दुग्ध, दधि, घृतादि से उन्हें पूजते हैं। तालेश्वर द्विज वर्मन की मिश्रधातु पट्टिका की 8वीं पक्ति में यही पूजा विधान लिखा है। इधर ही भद्रा नदी बहती है।

भद्रराज– विकासनगर-यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर यमुना के वाम तटीय क्षेत्र में स्थित कटापत्थर नामक स्थान के ऊपर पर्वत पर भद्रराज का एक प्राचीन मंदिर बताया जाता है। इस क्षेत्र में इस देव के जितने भी मंदिर हैं उनमें यही सबसे प्राचीन कहा जाता है। यमुना के दक्षिण तटवर्ती लखवाड़ क्षेत्र की पर्वत चोटी पर भी एक अर्वाचीन मंदिर चमकता हुआ दिखाई देता है। वह भी भद्रराज का ही है। इस देव को स्थानीय जन भद्राज कहते हैं। संभवत: यह देव नागराज की अपेक्षा कार्तिकेय हो सकते हैं क्योंकि उभयतटीय लोग नाग देवता और भद्राज को पृथक-पृथक नामों से संबोधित करते हैं। नागराज की पूजा की भांति कार्तिकेय तथा गणेश की पूजा भी दधि, दुग्ध एवं घृत से ही की जाती है। महाभारत, वन पर्व, 228/4 तथा 232/5 में स्वामी कार्तिकेय के क्रमश: भद्रशाख तथा भद्रकृत नाम आए हैं। इस स्थिति में नाग देवता एवं भद्राज को एक ही देव मानना तर्क संगत प्रतीत नहीं होता। प्राचीन मूर्तियां प्रतीकात्मक पत्थरों की होने से भी दोनों देवों की पहचान नहीं हो सकती। यह अन्वेषण का विषय है। कहा जाता है कि इस मंदिर के निकटवर्ती क्षेत्र में श्रीपुर नामक प्राचीन नगर के अवशेष भी हैं।

दुर्गादेवी मंदिर, देवथल- कटापत्थर और हथियारी के मध्य देवथल नामक स्थान पर मार्ग के निकट दुर्गादेवी का प्रसिद्ध मंदिर है। अन्नपूर्णा का भी मंदिर इस स्थान पर बनाया गया है। मुख्य मंदिर के पृष्ठ भाग में अनेक भग्न मूर्तियां बिखरी हुई हैं जिनमें शिवलिंग तथा गणेश की मूर्तियों के कुछ खंड हैं। इनसे प्रतीत होता है कि पहले यहां शिवालय भी रहा होगा। इस स्थान पर किसके द्वारा मूर्तियां खंडित की गईं, अज्ञात है किंतु इससे देवस्थान की प्राचीनता का पता चलता है। लखवाड़ में महासू मंदिर का जीर्णोद्धार करके एक भव्य मंदिर निर्मित है। इसी प्रकार सारीगाड़ से ऊपर कंडारी ग्राम में भी श्री रघुनाथ का मंदिर है। उपर्युक्त दोनों स्थान मोटर मार्ग से जुड़ हुए हैं। पट्टी खाटल में छलेश्वर देव तथा यमुना के उस पार म्यूंडा ग्राम में शेडकुड़िया मंदिर दर्शनीय है। श्रीगुल देव भी वहां स्थापित बताए जाते हैं। इनके अतिरिक्त इस उपत्यका में अन्य कई देवालय हैं।

ऋष्य शृंग- देवथल से ठीक उत्तर में सामने शृंग पर्वत ऋषिगंगा के उस पार दिखाई देता है। वहां इस ओर भंकोली नामक गांव है और दूसरी ओर उत्तर ढाल पर थली ग्राम है जो कश्यप गोत्रीय महात्मा विभांडक की तप स्थली होने से आज भी थली कहा जाता है। महाभारत, वन पर्व, अध्याय 110 के अनुसार उन्हीं के पुत्र ऋष्य शृंग हुए। वे मृगी के पेट से पैदा हुए थे। अपनी तपस्या के प्रभाव से उन्होंने अंगदेश के राजा लोमपाद के राज्य में इंद्र द्वारा वर्षा करवाई थी, इस पर राजा ने अपनी पुत्री शांता ऋष्य शृंग को ब्याह दी थी। लोमपाद के मित्र राजा दशरथ की पुत्रेष्टी यज्ञ भी इन्हीं के द्वारा संपादित किया गया था। महाभारत, वन पवर्, अध्याय 110 से 113 तक इनका वर्णन हुआ है। इसके अतिरिक्त बाल्मीकीय रामायण-बालकांड सर्ग 9 से 11 तथा अश्वमेध एवं पुत्रेष्टी यज्ञ सर्ग15 तक इनका विशद वर्णन है। ये ऋषि त्रेता युग में हुए। शृंग नामक एक ऋषि द्वापर में हुए हैं जिन्होंने राजा परीक्षित को शाप दिया था।

गौरा घाटी- मांथात से पश्चिम, लाखामंडल से 15 किमी. तथा बर्नीगाड़ से 20 किमी. दूर चकराता मार्ग पर गौरा घाटी नामक अत्यंत रमणीक स्थान है। वहां पर थोड़ी-सी दुकानें, होटल तथा लॉज भी हैं। यह स्थान सघन वन से आवृत्त है। पांडवों का आखेट स्थल भी यह था। कार्तिकेय के जन्म स्थल के ठीक ऊपर इसका धार्मिक महत्व भी है। स्कंदपुराण-अवंत्य खंड में मार्कंडेय ऋषि युधिष्ठिर से कहते हैं, ‘राजन! तदंतर सूर्यदेव वंदित गौरीखंड (गौरा घाटी) की यात्रा करें।’ यहां से सामने पश्चिम में चकराता दिखाई देता है। स्थान की ऊंचाई लगभग 2100 मीटर होगी। पास में ही अनेक प्रजाति के सघन वन से आच्छादित बुरांस्टी नामक पर्वत है। इसी पर्वत से दो जल धाराएं आगे जकर मिलकर गोठाड़ (गोमती) नाम से पूरे क्षेत्र को सिंचित करती हुई लाखामंडल के दक्षिण में कुआं के सामने युमना से संगम बनाती हैं। बसंत में फूलों से परिपूर्ण, शीतल, सुगंधित छटा का नंदनवन का सा अवलोकन करना हो तो यही उपयुक्त स्थान है।

गौरा घाटी से ऊपर की ओर चढ़ाई पर लगभग 4 किमी. की दूरी पर पाताल की ओर जाता हुआ धरती पर एक रंध्र है। दूसरा रंध्र आगे खड़ंबा पर्वत शिखर से नीचे पूर्व दिशा में कुडोग गांव (पुरानी बस्ती) के निकट है। बिना पथप्रदर्शक के देखने हेतु जाना उचित नहीं है। तीसरा छिद्र थली ग्राम के नीचे दक्षिण में अपेक्षाकृत कुछ कम परिधि का है। संभव है, स्कंद के बाण प्रहार से ये निर्मित हुए हों। इन्हीं में से कोई एक मयासुर का आवास हो। बाल्मीकि रामायण, किष्किंधा कांड, सर्ग 43, श्लोक 25 से 31 तक इस बिल, गिरि, मैनाक पर्वत, मयासुर भवन तथा बिंदुसर का वर्णन है।

चकराता

कैलाना से जंगलात चौकी तक देवदारु के सघन वन के मध्य बसे इस नगर की छटा ही निराली है। ब्रिटिश सरकार द्वारा सन 1858 के पश्चात गोरा पलटन हेतु यह स्थान बसाया गया। तभी से यह कैंटोनमेंट के अधिकार में चला आ रहा है। इस क्षेत्र का सबसे प्राचीन बस स्टेशन भी यहीं है। बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक तक रवाँई-जौनपुर, जौनसार-बावर क्षेत्र का यह एक मात्र व्यापारिक केंद्र भी रहा। देहरादून-सहारनपुर मार्ग पर यहां से कालसी गेट तक आज भी बसों का संचालन गेट प्रणाली से होता आ रहा है तथा वह व्यवस्था पुलिस की अपेक्षा सेना के जवानों के अधीन है। इस प्रचलित मार्ग के अतिरिक्त अब यह पर्यटन शहर बर्नीगाड़-लाखामंडल, त्यूनी तथा मसूरी से जुड़ जाने के कारण सुविधाजनक हो गया है।

डॉ. डबराल द्वारा (उत्तराखंड का इतिहास-1) इस शहर को महाभारतकालीन एकचक्रानगरी बताया गया है। संभवत: नाम साम्य मात्र पर विद्वान लेखक ने ऐसा लिखा है। यहां प्राचीन बस्ती के लक्षण, मंदिर अथवा पुरातत्व संबंधी कोई अवशेष न होकर मात्र दो गिरजाघर हैं। वह भी स्वतंत्रता के पश्चात गोरा पलटन के यहां से चले जाने से वीरान हो गए थे और 1952 से अब उनमें शिक्षण संस्थाएं संचालित हो रही हैं। सक्षम अधिकारी की पूनर्वानुमति के बिना विदेशी पर्यटकों के लिए यह नगर प्रतिबंधित है।

वन पर्यटन-साहसिक पर्यटकों हेतु चकराता से हनोल अथवा पुरोला तक की पद यात्रा एक अविस्मरणीय एवं सुखद अनुभव है। जंगलात चौकी की ओर से देववन, भुजकोटी, खड़ंबा, मुंडाली, बमणाईं, जाखा, कथियान होते हुए उपर्युक्त स्थानों के अतिरिक्त मोल्टा, रिंगाली होकर जरमोला भी पहुंचा जा सकता है। मार्ग में खड़ंबा, शिखर करीब 2,850 मीटर ऊंचा है। पूरा क्षेत्र रई, देवदार, मोरू, बांज, बुरांश आदि अनेक प्रजाति के वनों से आच्छादित है। मुंडाली, कथियान तथा रिंगाली में वन विश्रामगृह भी हैं। चकराता यमुना तथा टोंस वृत्तों के यही वन एशिया में प्रमुख हैं।

(सभी फोटो इन्द्र सिंह नेगी)

यमुना उपत्यका-यमुनोत्री से साभार

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