कुमाऊंनी से कुछ अलग है न्याय देवता गोरिल की गढ़वाली जागर कथा
न्यायदेवता गोरिल पर एक शोधपूर्ण लेख
- डॉ. मोहन चंद तिवारी
कुमाऊं और गढ़वाल के विभिन्न क्षेत्रों में ‘ग्वेल देवता’, ‘गोलज्यू’ ,‘गोरिल’ आदि विभिन्न नामों से आराध्य न्याय देवता की लोकगाथा के विविध संस्करण प्रचलित हैं और उनमें इतनी भिन्नता है कि कभी कभी उनमें परस्पर तारतम्य बिठाना भी बहुत कठिन कार्य हो जाता है.
लोकगाथाओं की सामान्य प्रवृत्ति रही है कि विभिन्न क्षेत्रीय मान्यताओं और जनश्रुतियों के आधार पर इनका निरंतर कथाविकास होता रहता है. जागर लगाने वाले क्षेत्रीय जगरियों के द्वारा भी कथा में अपनी तरफ से कुछ नया जोड़ देने के कारण न्याय देवता ग्वेल की कथा के साथ समय समय पर कई अवांतर कथाएं भी जुड़ती गई हैं. मूल कथा को क्षेत्रीय भेद और स्थानीय मान्यताओं के कारण भी कई तरह के मोड़ दे दिए गए हैं. इसलिए यह पता लगाना कठिन है कि न्याय देवता की मूलकथा क्या थी? और उसमें कौन सा प्रसंग बाद में जुड़ा ?कुमाऊं
जनश्रुतियों पर आधारित ग्वेल देवता की लोक गाथाओं और लोक मान्यताओं का गवेषणात्मक और तुलनात्मक सर्वेक्षण किया जाए तो अनेक प्रकार की विविधताएं सामने आती हैं. उदाहरण के लिए गोरिल का जन्मस्थान सोर पिथौरागढ़ की गाथाओं में हलराइकोट
(बांसुलीसेरा) बताया गया है.पूर्वी अल्मोड़ा की गोरिल गाथाओं में ग्वालूरीकोट और पाली पछाऊं की गाथाओं में गढ़ चम्पावत या धूमाकोट कहा जाता है. गोरिल के पिता को कहीं हलराई या हालराई तो पाली पछाऊं और पूर्वी अल्मोड़ा की गाथाओं में झालराई कहा गया है. रंगोड़, लखनपुर की गाथाओं में झालराई के पिता का नाम हालराई गाया जाता है.कुमाऊं
गोरिल की माता का नाम यद्यपि सभी गाथाओं में कालिका अथवा कालिंका रानी बताया गया है तथापि ‘सोर’ की गाथाओं में कालिका रानी को काला
पहाड़ के गरुवा राजा की पुत्री कहा गया है. सालम, रंगोड़ की गाथाओं में कालिंका रानी को पंचनाम देवताओं की ‘फूलकन्या’ बताया गया है. ‘फूलकन्या’ उस कन्या को कहते हैं जो कुंवारी कन्या रजस्वला न हुई हो.सभी गाथाओं में कालिंका की सात सौतें बताई जाती हैं.कालिंका आठवीं रानी के रूप में आती है.गढ़वाल की गोरिल कथा ‘पृथीनाथ को पाट’
कुमाऊं की तरह गढ़वाल में भी जनसामान्य में ग्वेल देवता की पूजा और जागर लगाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है. गढ़वाल की जागर
कथाओं में न्याय देवता का गुणगान ‘पृथीनाथ को पाट’ के रूप में बहुत श्रद्धाभाव से किया जाता है तथा पौड़ी गढ़वाल स्थित कंडोलिया देवता के मंदिर में इसकी आराधना क्षेत्र रक्षक देव के रूप में भी की जाती है. हालांकि कुमाऊं अंचल की तरह यह ज्यादा लोकप्रिय नहीं है. कुमाऊं और गढ़वाल की गोरिल कथा की कई घटनाओं में भी अंतर पाया जाता है.कुमाऊं
आज हम इस पोस्ट के द्वारा
ग्वेल देवता की जन्म कथा से सम्बंधित जिस कथा की जानकारी देना चाहते हैं, वह कथा जनश्रुति मात्र नहीं अपितु गढ़वाल के लब्धप्रतिष्ठ लोककथा विशेषज्ञ डॉ.गोविंद चातक की पुस्तक ‘गढ़वाली लोक गाथाएं’ (तक्षशिला प्रकाशन, दिल्ली,1996) में ‘पृथीनाथ को पाट’ के रूप में संग्रहीत लोकगाथा है. डॉ.गोविंद चातक ने उक्त पुस्तक में (8.6.18 पृ.177-187) डॉ. चातक ने गढ़वाल में प्रचलित इस गोरिल की कथा की जागर का आख्यान ‘पृथीनाथ को पाट’ के रूप में संकलित किया है.कुमाऊं
न्याय देवता गोरिल की
यह कथा अवांतर कथाओं की दृष्टि से भी बहुत कुछ नए और अनसुने घटनाकर्मो को लिए हुए है. इसलिए न्यायदेवता की पूजा आराधना के उद्भव तथा विकास पर शोध करने वाले विद्वानों के लिए यह कथा बहुत महत्त्वपूर्ण हो सकती है.कुमाऊं
गढ़वाली लोकगाथा पर आधारित इस कथा में न्याय देवता का नाम ‘गोरिल’ या ‘गोरिया’ दिया गया है. इनके पिता का नाम झालूराय और
माता का नाम “जिया-मां कालिंक्या” बताया गया है. कुमाऊंनी ग्वेल की कथाओं में प्रायः कालिंका और झालूराय के विवाह की कथा से पहले कालिंका द्वारा दो लड़ते हुए भैंसों को अलग करने की कथा आती है किन्तु यहां वह कथा नहीं मिलती. कुमाऊं की कथा में कालिंका को पंच देवताओं की बहिन माना जाता है, और उन्हीं की अनुमति से राजा के साथ कालिंका का विवाह होता है. पर इस गढ़वाली कथा में कालिंक्या को महादेव शिव की बहिन कहा गया है. कालिंक्या घनघोर गाजणी वन में रहने वाली चामत्कारिक शक्तियों से सम्पन्न और सोने के महलों में रहने वाली तपस्विनी के रूप में चित्रित है,जिसे ‘जिया-मां’ भी नाम दिया गया है.कुमाऊं
इस गढ़वाली गोरिल कथा के अनेक ऐसे रोचक कथा प्रसंग हैं जो कुमाऊं संस्करण की कथा में नहीं मिलते हैं. उदाहरण के लिए राजा झालूराय द्वारा कालिंक्या के आश्रम में अनशन करके घोर तपस्या करना, राजा झालूराय द्वारा कालिंक्या को हीरे की अंगूठी के बदले पीने का पानी मांगना, कालिंक्या द्वारा अनजाने में अंगूठी पहन लेने पर राजा द्वारा कालिंक्या को विवाह के लिए बाध्य करना,शिव जी के धाम में राजा द्वारा कालिंक्या के लिए कठोर तपस्या करना और प्रसन्न होने पर विवाह के लिए अनुमति देना, कालिंक्या द्वारा बूढ़े झालूराय से विवाह करने के लिए तैयार नहीं होना,उसके बाद शिव जी द्वारा बूढ़े झालूराय को नौजवान युवक बना देना और उन्हें पुत्रप्राप्ति का वरदान देना आदि कुछ ऐसे नए कथाप्रसंग हैं जो ग्वेल देवता की परंपरागत कथा से बिल्कुल अलग हठ कर हैं और अधिकांश लोगों को इनकी जानकारी भी नहीं है.
कुमाऊं
इसके अलावा इस गढ़वाली गोरिया के जन्म की कथा के घटनाप्रसंग भी सामान्य रूप से प्रचलित कथा से बिल्कुल अलग और नए हैं. इस कथा के अनुसार कालिंक्या के दो जुड़वां पुत्र होते हैं – गोरिया और कलुवा किन्तु उसकी सौत उनके स्थान पर सिल और लोढा (लोड़ो-सिलोटो) रख देती हैं. इन दोनों पुत्रों का प्रसव भी महल में नहीं बल्कि नदी के किनारे श्मशान घाट में होता है. इस कथा में एक बहुत बड़ा अंतर यह है कि राजा झालूराय की पुत्र उत्पन्न होने से पहले ही हिमालय के ग्लेशियरों में दर्दनाक मृत्यु हो जाती है और कालिंक्या और उसकी सौत रानियां विधवा हो जाती हैं. इस कथा की खासियत यह है कि इसमें काठ के घोड़े को पानी पिलाने की घटना नहीं है, जो कि गोरिल कथा की महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है.
कुमाऊं
गोरिया की इस कथा में जिया-मां कालिंक्या की कथा को मुख्यता दी गई है.ऐसा प्रतीत होता है कि इस गढ़वाल की गोरिल कथा का स्रोत और कुमाऊं की गोरिल कथा के स्रोत भिन्न भिन्न हैं.इसमें काली नदी का नहीं बल्कि बयाली नदी का उल्लेख मिलता है. पर चंपावत का उल्लेख अवश्य आया है.
गोरिल की गढ़वाली जागरकथा का सार
गढ़वाल में प्रचलित ‘पृथीनाथ को पाट’ नामक जागर कथा में गोरिल के पिता का नाम झालूराय और माता का नाम “जिया-मां कालिंक्या” बताया गया है. कुमाऊंनी ग्वेल की कथाओं में प्रायः कालिंका द्वारा दो लड़ते हुए भैंसों को अलग करने की जो कथा आती है और उसे वहां पंच देवताओं की बहिन बताया जाता है, पर इस तरह का वृत्तांत इस गढ़वाली गोरिल गाथा में नहीं मिलता. कालिंक्या को महादेव शिव की मुंह बोली बहिन कहा गया है. वह घनघोर गाजणी वन में रहने वाली चामत्कारिक शक्तियों से सम्पन्न और सोने के महलों में रहने वाली तपस्विनी स्त्री है. इस ग्वेल कथा के अनेक ऐसे रोचक कथा प्रसंग हैं, जिनकी जानकारी जन सामान्य के लिए बिल्कुल नई होगी.
कुमाऊं
इस गढ़वाली गोरिल के जागर की कथा का हिंदी भावार्थ प्रस्तुत करने से पहले इस जागर के प्रारंभिक गढ़वाली भाषा के बोलों से भी अवगत कराना चाहेंगे,जो इस प्रकार है-
“ॐ पृथी नाथ को पाट.
गुरु को शबद, नौ नरसिंह वीर को पाट;
चौबटा की धूळ,कांवर की विद्या को पाट,
गोरिया! दलेन्द्र हरन्त करी
दुःखों कू अंत करी, सुबुद्धि देई!
मन इच्छा पूर्ण करी,
कुटुम प्रवार पर छाया करी;
चार दिशा में मेरा बैरी भसम करी.”
कुमाऊं
‘पृथी नाथ को पाट’ की कथा के अनुसार चंपावती राज्य में झालूराय का राज्य था. राजा की सात रानियां थीं किंतु उनकी कोई संतान नहीं थी. राजा बूढा हो गया,उसके दांत टूट गए और सिर के बाल पककर फूल गए. राजा को इस बात का भारी दुःख सता रहा था कि उसकी चंपावती बिना राजा के ही रह गई-
कुमाऊं
“चंपावती में थान तेरो जागरन्तो है जयान!
तैं चंपावती राज मा होलो राजा झालूराय,
राजा की होली सात राणी-बौराणी.
हे सात बौराणियों की कोखी मुसो नी जनमे,
हे सात बौराणियों की कोख नी फली!
राजा झालूराय रैगे जनम को औतो,
दांतुड़ी टूटी वैकी,बाल फूली गैंन राजा का.
तब हे पृथीनाथ!वो कना कारणा कद,
मेरी सैणी चंपावती बिना राजा की रैगी.”
( डॉ.गोविंद चातक,’गढ़वाली लोक गाथाएं’, पृ.177 )
कुमाऊं
इन्हीं हालातों में एक दिन राजा ने शिकार पर जाने का निश्चय किया.राजा के महली-मुसद्दी शिकार में जाने के लिए तैयार हो गए.राजा की पालकी सजाई गई.चंपावती नगरी से गाजे बाजे के साथ और अस्त्र-शस्त्र और हथियारों से लैश होकर सारे सैनिक शिकार के लिए प्रयाण करने लगे.राजा ने अपने भडों (सैनिकों) को सिर पर लोहे के शिरस्त्राण, हाथ में चमकती तलवार और धनुषबाण लेकर शिकार पर चलने का आदेश दिया.किंतु जंगल में गए तो शिकार के नाम पर एक चिड़िया का पंख भी नहीं मिला.अंत में राजा थक हार कर एक पत्थर की आड़ में बैठ गया.उसने अपनी प्यास बुझाने के लिए अपने सिपाहियों को बांज की जड़ों का ठंडा पानी लाने के लिए कहा. सिपाही पानी की तलाश में गाजणी के वन में एक ताल के पास पहुंचे.वहां जिया-मां कालिंक्या (कालिका) रहती थी.वह सुबह को ‘कंडाली'(बिच्छू पौधे) की डाली बन जाती थी. वैसे वह सोने की नगरी में सोने के महलों की मालकिन थी.उसके पास खूंखार कुत्ते,दहाड़ मारते,गरजते रीछ,बाघ आदि भयानक जानवर थे.झालूराय के सैनिक राह भटकते पानी लेने के लिए जिया-मां कालिंक्या की उस बावड़ी पर पहुंचे तो,उन्हें देखते ही जिया-मां ने अंदर से कहा-
कुमाऊं
‘अरे कौन हो तुम कहां के बेसुध बालक हो?’ सिपाही बोले- ‘रानी! हम राजा झालूराय के पैक (सिपाही) हैं.हमें प्यासे राजा के लिए यहां से पानी ले जाना है.’ जिया-मां कालिंक्या बोली-‘नहीं तुम मेरा पानी उस राजा के लिए मत ले जाना. वह जन्मों का अपूता है और कर्मों का छोटा है. तुमको पानी पीना है तो पी लो पर उस राजा के लिए पानी ले जाआगे तो भारी अनिष्ट होगा.’ तब जिया-मां कालिंक्या की आज्ञा से राजा के पैक पानी पीकर अपनी प्यास बुझाते हैं और खाली हाथ राजा के पास चले जाते हैं. राजा सिपाहियों से पूछता है-‘हे मेरे पैको! मैं यहां प्यास से मर रहा हूं.तुम पानी लेकर क्यों नहीं आए?’सिपाही बोले महाराज! हम पानी की बावड़ी पर गए थे,पर उस बावड़ी की मालकिन ने कहा-‘उस राजा के लिए पानी मत लेजाना, क्योंकि वह जन्म का अपूता है और कर्म का नाटा है.’ सैनिकों के मुख से यह बात सुनकर राजा झालूराय उस गौमुखी बावड़ी में स्वयं पहुंच गया. परंतु कालिंक्या ने उसे पानी नहीं पीने दिया.
कुमाऊं
तब कालिंक्या के इस अनुचित व्यवहार से दुःखी हो कर राजा कालिंक्या के उसी आश्रम में बावड़ी के पास अनशन करता हुआ समाधि लगा कर बैठ गया. नौ दिन नौ रातें बीत गई तो जिया मां कालिंक्या को भी चिंता हुई कहीं राजा उसके आश्रम में बिना भोजन और पानी के अपने प्राण त्याग न कर दे.इसलिए कालिंक्या सोने के थाल में राजा के लिए भोजन लेकर आई. किंतु राजा ने भोजन ग्रहण नहीं किया. कालिंक्या सुबह का बासी खाना शाम को फ़ेंकतीं और शाम का खाना सुबह फ़ेंकतीं. जिया-मां कालिंक्या को अब चिंता सताने लगी कि उसके गले ये कैसी मुसीबत आ पड़ी?अगर इस राजा को कुछ होता है तो उसका कलंक उस पर ही लगेगा. मैं महादेव की मुंह बोली बहन हूं.ये राजा भूखा प्यासा समाधि में बैठ गया है,इससे मेरी बदनामी ही हो रही है. ऐसा सोच कर कालिंक्या राजा से बोली-“हे राजा तू खा पी क्यों नहीं रहा है? मेरे घर के आगे इस तरह आसन जमा कर क्यों बैठ गया है? तुझे क्या चाहिए? क्या दान में कुछ चाहिए?” राजा बोला- “कालिंक्या! मुझे भारी प्यास लगी है. मुझे पानी पिला दे. उसके बदले चाहे तो मेरे हाथ की इस हीरे की अंगूठी ले ले.” जिया मां राजा के कहने में आ गई.उसने राजा के हाथ से हीरे की अंगूठी लेकर अपने हाथ में पहन ली और सोने के गड़वे में पानी लेकर आ गई.
कुमाऊं
इसके बाद झालूराय बोला-“हे कालिंक्या तूने मुझ से पानी का मोल तो ले लिया है,किंतु अंगूठी पहनने का मतलब समझती है क्या ?अब तू मेरी हो गई है.अपनी जिद के कारण अब तू हार गई है.इसलिए अब तुझे मुझ से विवाह करना होगा. कालिंक्या अपने साथ हुए इस छल कपट से धर्म संकट में पड़ गई और राजा से बोली-“ठीक है,मैं एक संस्कारवती,शीलवती नारी हूं इसलिए अपने विवाह का निर्णय स्वयं नहीं ले सकती हूं. तुझे मेरे भाई महादेव शिव के पास चलना होगा. वे ही मेरे विवाह के बारे में अंतिम फैसला लेंगे-
“तब क्या बोलूं छ राजा झालूराय :
त्वै पर मेरी मूंदड़ी लैगे कालिंक्या!
तिन लिने पाणि को मोल मैं से,
पर जाणदी छै अंगूठी पैरण को मतलब क्या होंद.
तब वा होई गए हारमान,धोखा मा ऐ गए.
कालिंक्या बोल्दी तिल जाण भाई शिव क पास;
मेरो भाई जबान देलो त मैं तेरी राणी है जौलू.”
कुमाऊं
आखिर में राजा झालूराय कालिंक्या की शर्त मान गए और शिव जी के पास चले गए. वे शिव जी के धाम जा कर ऊपर पैर और नीचे सिर करके कठोर तपस्या करने लगे.तपस्या करते करते बारह दिन हो गए किंतु शिव जी टस से मस नहीं हुए.तब शिव जी के गणों को दया आई और वे कहने लगे हे भगवान शिव! इस शरणागत जोगी का कुछ तो मान रखिए.शिव जी ने तब अपनी तपस्या से ध्यान हटा कर उस राजा की ओर देखा और उससे पूछा-“राजा तुझे क्या वरदान चाहिए?” तब झालूराय ने कहा- “हे आशुतोष! मुझे दान में कालिंक्या दे दीजिए!” तब राजा की कठोर तपस्या को देखते हुए शिव जी ने उसे कालिंक्या को देने का वचन दे दिया.
कुमाऊं
राजा झालूराय के साथ कालिंक्या के विवाह की तैयारियां होने लगीं.पंचदेवों ने वेदिका बना दी.भांवरे होने लगे मांगल गीत गाए जाने लगे. विदाई के लिए कालिंक्या का डोला सज गया. मगर उधर कालिंक्या के मन में कुछ और ही चल रहा था.वह बूढ़े झालूराय के साथ विवाह नहीं करना चाहती थी.इसलिए वह शिव जी के सामने रोने लगी और कहने लगी- “हे भाई! इस बूढ़े के साथ मैं कैसे उमर काटूंगी? अपनी बहिन को रोते देख और उसकी समस्या का हल निकालने के लिए शिव जी ने अक्षतों का एक ताड़ा राजा झालूराय पर मारा और उस को अमृत छकाया तो देखते देखते वह बूढ़ा राजा सुंदर और तरुण अवस्था में आ गया और साथ ही शिव जी ने राजा को पुत्र होने का वरदान भी दे दिया-
कुमाऊं
“पंचनाम देवतौंन वेदी रंचीले,
फेरा होण लेगीन,मांगळ गायेण लैग्या.
सजीगे कालिंक्या को ओंळा सरी डोला,
कालिंक्या रोण बैठीगे,हे भैजी,
ये बुड्या दगड़ी मैंन कनकै उमर लगौण ?
शिवजी न मारे एक ताडो,अमृत संचारे,
तब राजा झालूराय दैंगे सुघर तरुणो.
दिने वै तई ऊन पुत्र को वरदान.”
कुमाऊं
इस प्रकार शिव जी के वरदान से राजा झालूराय और कालिंक्या दोनों का मांगलिक विधि से विवाह संपन्न हुआ. विवाह के बाद कालिंक्या गर्भवती हुई तो तीसरे महीने उसे मांस खाने का दोहद उत्पन्न हुआ.जिया-मां कालिंक्या राजा से बोली-” महाराज! मुझे मांस खाने की इच्छा हो रही है.”
कुमाऊं
राजा ने रानी कालिंक्या से पूछा- “रानी! तेरे लिए किस का मांस लाऊं बकरी के मांस पर बकरगन्ध आती है,मृग के मांस पर मृग की गन्ध और बारह सिंगे के मांस पर बारह सिंगे की गंध आती है.रानी तुम किसका मांस खाओगी? रानी बोली- “महाराज! मुझे कस्तूरे (कस्तूरी मृग) का मांस लाकर दो.राजा झालूराय कस्तूरे की तलाश में हिमालय के कांठे (ग्लेशियरों) की ओर चले गए.किंतु ऐसी त्रासदी हुई कि कस्तूरे मृग के शिकार में राजा स्वयं ग्लेशियर की बर्फ में डूब कर मर गए.रानी कालिंक्या विधवा हो गई. इस प्रकार राजा झालूराय की दर्दनाक मृत्यु होने से चंपावत में स्त्रियों का राज हो गया.
“हे जिया-मां हमारे पिता कहां हैं.कालिंक्या कहती है तुम्हारे पिता हिमालय की कांठियों की बर्फ में दब कर मर गए हैं. जिया-मां के कहने पर दोनों बालक हिमालय की कांठियों में जाकर सबसे पहले अपने पिता का वार्षिक श्राद्ध करते हैं.
कुमाऊं
चंपावती के राज्य में राजा के न रहने से जो रानियां कालिंक्या से पहले ही ईर्ष्या रखती थीं,अब उससे बदला लेने के लिए षड्यंत्र रचने लगी. दसवें महीने जब कालिंक्या को प्रसव पीड़ा हुई तो वह अपनी सौत रानियों से प्रसव का स्थान पूछने लगी. रानियां साजिश के तहत कालिंक्या को बयाली के श्मशान घाट में ले गई. वहां पहले से ही कहीं चिताएं जलाई जा रही थी तो कहीं शवों के अन्त्येष्टि क्रिया के पिंड भरे जा रहे थे.रानियों ने कहा इसी घाट में तेरा प्रसव होगा.प्रसव वेदना से कालिंक्या बेहोश हो चुकी थी और उसे यह पता ही नहीं चल पाया कि उसने दो बच्चों को जन्म दिया है. रानियों ने उन दोनों नवजात शिशुओं को नदी में बहा दिया और उनके स्थान पर सिल और लोढा रख दिए. कालिंक्या को जब होश आया तो रानियों ने कहा बहिन! तुम्हारे गर्भ से ये जुड़वां सिल और लोढा (लोड़ो-सिलोटो) पैदा हुए हैं. उन्होंने उनका नाम भी रख दिया ‘लोड़ी-कलुवा’ और ‘सिलवा-कलुवा’.इस कथा से सम्बंधित जागर के बोल इस प्रकार हैं-
कुमाऊं
“जै घाट पर कखी पिंड दियेणा छा,
कखी सेंळ रचेणा छया.
राणी बोदीन यखी होलू तेरो सुलकुड़ो
वेदना मा वी होश नी रै फरमोश
तों वीं को बाड़ा गाड़ बगै दिने,
अर वीं का खुंगला पर लोड़ो सिलोटो धर देने.
बोदी : हे भुली! तेरो कोखी लोड़ो सिलोटो होए,
एक होए लोड़ी-कलुवा दूजा सिलवा-कलुवा.”
कुमाऊं
तब वे दुष्ट सौतेली रानियां तो अपने राजमहल में लौट आईं किन्तु रोती-बिलखती कालिंक्या को उन्होंने दुत्कारते हुए वहीं बयाली के श्मशान घाट पर ही छोड़ दिया. उधर रानियों ने कालिंक्या के जिन दो बालकों को नदी में बहाया था वे बहते बहते फेंकी घाट पहुंच गए और वहां संयोग से भाना नामक मछुवारे के जाल में फंस गए. भाना मछुवारा उन नवजात बालकों से पूछता है-“हे बालको! तुम कौन हो?और यहां कहां से आए हो?” बालक बोले हम कलुवा गोरिया हैं,भाना धीवर! हमको अपने जाल से बाहर निकाल. भाना धीवर जन्म से ही निस्संतान था. उसने खुशी खुशी उन दोनों बालकों को पाल पोस कर बड़ा बना दिया. तब एक दिन मछुवारे से गोरिया कलुवा बोलते हैं-“हे धीवर! हमें चंपावत भेज दे,हम दोनों चंपावत के राजकुमार हैं. इसके बाद चंदन के घोड़े में सवार होकर वे दोनों बालक चंपावत पहुंच जाते हैं. वहां जाकर क्या देखते हैं कि जिया-मां बयाली घाट में मसानों से घिरी है. वे अपनी मां के पास जाते हैं. उन्हें देखकर जिया-मां कालिंक्या आंसू बहाते हुए कहती है “बालको! तुम मेरे पुत्र जैसे लगते हो. कालिंक्या अपने स्तनों से दूध की धाराएं फेंकती है तो दूध की धाराएं उनके मुंह में जा पड़ती है. कालिंक्या उन दोनों गोरिया कलुवा को गले लगाती है. बालक पूछते हैं- “हे जिया-मां हमारे पिता कहां हैं.कालिंक्या कहती है तुम्हारे पिता हिमालय की कांठियों की बर्फ में दब कर मर गए हैं. जिया-मां के कहने पर दोनों बालक हिमालय की कांठियों में जाकर सबसे पहले अपने पिता का वार्षिक श्राद्ध करते हैं.
कुमाऊं
उधर चंपावत में गोरिया कलुवा के आने के समाचार को सुनकर सारे राजमहल में खुशियां मनाई जाती हैं.उनका राजतिलक किया जाता है.गोरिया राजा के रूप में पदभार ग्रहण करते हैं तो उनका दूसरा भाई उनकी भुजा (मंत्री) बन कर रहता है.
जिया-मां कालिंक्या के नौ उपदेश
उसके बाद चंपावत में गोरिल के राजा बनने और कलुवा के मंत्री बनने पर जिया-मां कालिंक्या ने अपने दोनों बेटों को राजधर्म की शिक्षा देते हुए नौ उपदेश दिए,जो इस प्रकार हैं-
- किसी को बैरी न समझना.
- प्रजा के लोगों के साथ सदा न्याय करना.
- किसी से छलकपट नहीं करना.
- सत्य कभी नहीं छिपता है.
- कहा हुआ कभी नहीं मिटता.
- मेरी सौतों ने मेरी जैसी दुर्गति की वैसी किसी स्त्री की न हो.
- उन सौतों ने मेरे बारे में कहा था कि मैंने सिल बट्टा जना है. मुझे अपशकुनी, अवगुणी बताया और दुत्कारा कि इस अपशकुनी को चीर कर चार दिशाओं में फेंक दो.
- मगर मेरे पुत्रो! तुम मेरे लिए सत्य बन कर आए हो और दूध और पानी (नीर-क्षीर न्याय) की तरह मुझे न्याय मिल पाया है.
- मगर पुत्रो! तुम किसी का बुरा नहीं करना, सबके साथ न्याय करना.
तब से प्रजा के मध्य न्यायदेवता के रूप में पूज्य राजा गोरिया अपनी जिया-मां कालिंक्या की आज्ञा से न्याय के मार्ग पर चलते हैं. उनके राज्य में प्रजा खुश थी और उसी ने गोरिया को सदा अमर रहने का आशीर्वाद दिया है.हे न्याय देवता गोरिल! हम तुम्हारे नाम का दिया जलाते हैं, तुम्हारी जय जयकार करते हैं. गोरिल देवता की जय हो-
“तुम कैको नखरौ नी कर् या,
तब गोरिया मां को बोल्यूं ठाणद्;
खुशी रैन्द राजा परजा,आशीषा देंदी-
तुम रया अमर, हम जगोंदा,तुमारा नौं को दीवो,
हम जय जय कार करदां, तेरी जय हो गोरिल देवता.”
गोरिल देवता की जय जय कार!
न्यायदेवता हम सबका कल्याण करें!!
*सभी सांकेतिक चित्र गूगल से साभार*
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)